शमशेर बहादुर सिंह - CBSE Test Papers

 CBSE Test Paper 01

शमशेर बहादुर सिंह


  1. स्लेट पर या लाल खड़िया चाक मल दी हो किसी ने -इसका आशय स्पष्ट कीजिए।

  2. अपने परिवेश के उपमानों का प्रयोग करते हुए सूर्योदय और सूर्यास्त का शब्दचित्र खींचिए।

  3. उषा कविता में किन उपमानों को देख कर कहा जा सकता है कि गाँव की सुबह का गतिशील शब्द चित्र है?

  4. भोर के नभ को राख से लीपा, गीला चौका की संज्ञा दी गई है। क्यों? उषा कविता के आधार पर बताइए।

  5. निम्नलिखित काव्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर लिखिए : (2+2=4)
    बहुत काली सिल ज़रा से लाल केसर से
    कि जैसे घुल गई हो
    स्लेट पर या लाल खड़िया चाक
    मल दी हो किसी ने

    1. काव्यांश की अलंकार योजना पर प्रकाश डालिए।
    2. काव्यांश का भाव-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।
  6. निम्नलिखित काव्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर लिखिए- (2×3=6)
    प्रात नभ था बहुत नीला शंख जैसे
    भोर का नभ
    राख से लीपा हुआ चौका
    (अभी गीला पड़ा है)
    बहुत काली सिल जरा से लाल केसर से
    कि जैसे धूल गई हो
    स्लेट पर या लाल खड़िया चाक
    मल दी हो किसी ने।

    1. काव्यांश के भाव-सौन्दर्य को स्पष्ट कीजिए।
    2. भोर के नभ को ‘राख से लीपा हुआ चौका’ क्यो कहा गया है?
    3. सूर्योदय से पूर्व के आकाश के बारे में कवि ने क्या कल्पना की है?
  7. निम्नलिखित काव्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर लिखिए- (2×3=6)
    प्रात नभ था बहुत नीला शंख जैसे
    भोर का नभ
    राख से लीपा हुआ चौका
    (अभी गीला पड़ा है)
    बहुत काली सिल जुरा से लाल केसर से
    कि जैसे धुल गई हो
    स्लेट पर या लाल खड़िया चाक
    मल दी हो किसी ने
    नील जल में या किसी की
    गौर झिलमिल देह
    जैसे हिल रही हो।
    और....
    जादू टूटता है इस उषा का अब
    सूर्योदय हो रहा है।

    1. अभी गीला पड़ा है से कवि का क्या तात्पर्य है?
    2. काव्यांश में आए किन्हीं दो अलंकारों का नामोल्लेख करते हुए उनसे उत्पन्न सौंदर्य को स्पष्ट कीजिए।
    3. उपयुक्त कविता में आए किस दृश्य बिंब से आप सबसे अधिक प्रभावित हुए हैं और क्यों?

CBSE Test Paper 01
शमशेर बहादुर सिंह


Solution

  1. कवि कहता है कि सुबह के समय अँधेरा होने के कारण आकाश स्लेट के समान लगता है। उस समय सूर्य की लालिमा-युक्त किरणों से ऐसा लगता है जैसे किसी ने काली स्लेट पर लाल खड़िया मिट्टी मल दिया हो। कवि आकाश में छायी हुई लालिमा के बारे में बताना चाहता है।

  2. प्रातः कालीन सूर्य उदित हो रहा है 'जो ऐसा लगता है' मानो वह अपने सुनहरे वस्त्रों की रोशनी से आकाश और धरती दोनों को भर देता है। सभी अपने दिन की शुरुआत उस सुनहरी आभा से करते है। धीरे-धीरे दिन आगे बढ़ता है सूर्यास्त के समय जैसे हम अपनी पोशाक बदल कर सोने जाते है वैसे ही सूर्य हल्की लाल पोशाक पहनकर सोने के लिए तैयार हो जाता है। उसे देखकर सभी अपने दैनिक कार्य समाप्त कर सोने की तैयारी करने लगते है।

  3. कविता में नीले नभ को राख से लीपे गीले चौके के समान बताया गया है। दूसरे बिंब में उसकी तुलना काली सिल से की गई है। तीसरे में स्लेट पर लाल खड़िया चाक का उपमान है। लीपा हुआ चौका काली सिल या स्लेट गाँव के परिवेश से ही लिए गए हैं। प्रातः कालीन सौंदर्य क्रमशः विकसित होता है। सर्वप्रथम राख से लीपा चौका जो गीली राख के कारण गहरे स्लेटी रंग का अहसास देता है और पौ फटने के समय आकाश के गहरे स्लेटी रंग से मेल खाता है। उषा उसके पश्चात तनिक लालिमा के मिश्रण से काली सिल का जरा से लाल केसर से धुलना सटीक उपमान है तथा सूर्य की लालिमा के रात की काली स्याही में घुल जाने का सुंदर बिंब प्रस्तुत करता है। धीरे-धीरे लालिमा भी समास हो जाती है और सुबह का नीला आकाश नील जल का आभास देता है व सूर्य की स्वर्णिम आभा गौरवर्णी देह के नील जल में नहा कर निकलने की उपमा को सार्थक सिद्ध करती है।

  4. कवि कहता है कि भोर के समय ओस के कारण आकाश नमी युक्त व धुँधला होता है। राख से लिपा हुआ चौका भी मटमैला रंग का होता है।  दोनों का रंग लगभग एक जैसा होने के कारण कवि ने भोर के नभ को राख से लीपा गीला चौका की संज्ञा दी है। दूसरे, चौके को लीपे जाने से वह स्वच्छ हो जाता है। इसी तरह भोर का नभ भी पवित्र होता है।

    1. काव्यांश मे 'बहुत काली सिल.... गई हो' मे उत्प्रेक्षा अलंकार है।
    2. उषाकालीन आकाश उस काली सिल जैसे निर्मल और स्वच्छ है जिसे लाल केसर से धुला गया हो। इनसे आकाश की पवित्रता और प्रात: काल की मटियालापन प्रकट होता है ।
    1. इस काव्यांश में प्रात:कालीन नभ के सौंदर्य का प्रभावी चित्रण किया गया है। वह राख से लीपे हुए चौके के समान प्रतीत होता है। उसमें ओस का गीलापन है तो क्षण- कम बदक्षणे रंग भी हैं।
    2. भोर के नभ को ‘राख से लीपा हुआ चौका’ इसलिए कहा गया है कि भोर का नभ श्वेत वर्ण और नीलिमा का मिश्रित रंग-रूप लिए हुए है। इसमें ओस की नमी उसके गीलेपन का अहसास करा रही है। चौके की पवित्रता के दर्शन इसमें हो रहे हैं।
    3. सूर्योदय से पूर्व के आकाश में कवि ने यह कल्पना की है कि लगता है आकाश में रंगों का कोई जादू हो रहा है। कभी यह नीले शंख के समान प्रतीत होता है तो कभी काली सिल पर लाल केसर की आभा दिखाई देती है। कभी यह स्लेट पर मली लाल खड़िया की तरह लगता है।
    1. अंधकार के समाप्त होने पर भोर के नभ के नीले रंग में वैसी ही नमी होती है, जैसे राख से लीपा हुआ चौका (चूल्हा) अभी तक गीला पड़ा हो। कालिमा के छंटने पर क्षितिज की लालिमा ऐसी लगती है, मानो किसी काली सिल (पत्थर) पर लाल केसर का लेप लगा दिया गया हो। इस प्रकार सूर्योदय से पहले का आकाश परिवर्तित हो रहा है।
    2. काव्यांश में ‘शंख जैसे’ में उपमा तथा 'बहुत काली सिल गई हो' में उत्प्रेक्षा अलंकार है। इनसे आकाश की पवित्रता व प्रात: के समय का मटियालापन प्रकट होता है।
    3. इस काव्यांश में हम नीले जल में गोरी देह के झिलमिलाने के बिंब से अधिक प्रभावित हुए। सुबह नीला आकाश स्वच्छ होता है। नमी के कारण दृश्य हिलते प्रतीत होते हैं। श्वेत सूर्य का बिंब आकाश में सुंदर प्रतीत होता है।