जैनेंद्र कुमार - CBSE Test Papers

 CBSE Test Paper 01

जैनेंद्र कुमार


  1. भगत जी बाज़ार को सार्थक व समाज को शांत कैसे कर रहे हैं?

  2. किस तरह का बाज़ार आदमी को ज्यादा आकर्षित करता है?

  3. बाज़ार दर्शन पाठ में किस प्रकार के ग्राहकों की बात हुई है? आप स्वयं को किस श्रेणी का ग्राहक मानते/मानती हैं?

  4. बाज़ारूपन से क्या तात्पर्य है? किस प्रकार के व्यक्ति बाज़ार को सार्थकता प्रदान करते हैं अथवा बाज़ार की सार्थकता किसमें है?

  5. बाज़ार दर्शन निबंध उपभोक्तावाद एवं बाज़ारवाद की अंतर्वस्तु को समझाने में बेजोड़ है।-उदाहरण देकर इस कथन पर अपने विचार प्रस्तुत कीजिए।

  6. लेखक ने पाठ में संकेत किया है कि कभी-कभी बाज़ार में आवश्यकता ही शोषण का रूप धारण कर लेती है। क्या आप इस विचार से सहमत हैं? तर्क सहित उत्तर दीजिए।

  7. निम्नलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए- (2×3=6)
    बाज़ार को सार्थकता भी वही मनुष्य देता है जो जानता है कि वह क्या चाहता है और जो नही जानते कि वे क्या चाहते है, अपनी ‘पर्चेजिंग पावर' के गर्व मे अपने पैसे से केवल एक विनाशक शक्ति (शैतानी शक्ति, व्यंग्य की शक्ति) ही बाज़ार को देते है। न तो वे बाज़ार से लाभ उठा सकते है, न उस बाज़ार को सच्चा लाभ दे सकते है। वे लोग बाज़ार का बाज़ारूपन बढ़ाते है। जिसका मतलब है कि कपट बुढ़ाते है। कपट की बढ़ती का अर्थ परस्पर सद्भाव की घटी।

    1. 'बाज़ार का बाज़ारूपन' से लेखक का क्या अभिप्राय है? स्पष्ट कीजिए।
    2. बाज़ार की सार्थकता कौन दे सकता है? कैसे?
    3. पर्चेजिंग पावर क्या है? उससे बाज़ार का अहित कैसे होता है?

CBSE Test Paper 01
जैनेंद्र कुमार


Solution

  1. लेखक ने इस निबंध में भगत जी का उदाहरण दिया है जो बाज़ार से काला नमक व जीरा लाकर वापस लौटते हैं। इन पर बाज़ार का आकर्षण काम नहीं करता क्योंकि इन्हें अपनी ज़रूरत का ज्ञान है। इससे पता चलता है कि मन पर नियंत्रण वाले व्यक्ति पर बाजार का कोई प्रभाव नहीं होता। ऐसे व्यक्ति बाजार को सही सार्थकता प्रदान करते हैं। दूसरे, उनका यह रुख समाज में शांति पैदा करता है क्योंकि यह पैसे की पावर नहीं दिखाता। यह प्रतिस्पर्धा नहीं उत्पन्न करता।

  2. लेखक के अनुसार ‘शॉपिंग मॉल’ व्यक्ति को ज्यादा आकर्षित करता है। उनकी सजावट देखकर व्यक्ति उनसे बहुत प्रभावित हो जाता है। वह उनके आकर्षण के जाल में फँस जाता है। इसी कारण वह उन चीजों को भी खरीद लेता है जिसकी उसे कोई जरूरत नहीं होती। वास्तव में, शॉपिंग मॉल ऊँचे रेटों पर सामान बेचते हैं।

  3. बाज़ार दर्शन पाठ में कई प्रकार के ग्राहकों की चर्चा की गई है जो निम्नलिखित हैं - खाली मन और खाली जेब वाले ग्राहक, भरे मन और भरी जेब वाले ग्राहक, पर्चेजिग पावर का प्रदर्शन करने वाले ग्राहक, बाजारुपन बढ़ानेवाले ग्राहक, अपव्ययी ग्राहक,भरे मन वाले ग्राहक, मितव्ययी और संयमी ग्राहक।
    मैं अपने आप को भरे मन वाला ग्राहक समझती हूँ क्योंकि मैं आवश्यकता अनुसार ही बाज़ार का रुख करती हूँ और जो मेरे लिए जरुरी वस्तुएँ हैं वे ही खरीदती हूँ।

  4. बाजारुपन से तात्पर्य ऊपरी चमक-दमक से है। जब सामान बेचने वाले बेकार की चीजों को आकर्षक बनाकर मनचाहे दामों में बेचने लगते हैं, तब बाज़ार में बाजारुपन आ जाता है,इसके अलावा धन को दिखावे की वस्तु मान कर व्यर्थ में उसका दिखावा करने वाले ग्राहक भी बाजार में बाजारूपन लाने में सहायक होते हैं।
    जो विक्रेता, ग्राहकों का शोषण नहीं करते और छल-कपट से ग्राहकों को लुभाने का प्रयास नहीं करते साथ ही जो ग्राहक अपनी आवश्यकताओं की चीजें खरीदते हैं वे बाजार को सार्थकता प्रदान करते हैं। इस प्रकार विक्रेता और ग्राहक दोनों ही बाज़ार को सार्थकता प्रदान करते हैं।
    मनुष्य की आवश्यकताओं की ज्यादा से ज्यादा पूर्ति करने में ही बाजार की सार्थकता है।

  5. यह निबंध उपभोक्तावाद एवं बाजारवाद की अंतर्वस्तु को समझाने में बेजोड़ है। लेखक बताता है कि बाजार का आकर्षण मानव मन को भटका देता है। वह उसे ऐशोआराम की वस्तुएँ खरीदने की तरह आकर्षित करता है। लेखक ने भगत जी के माध्यम से नियंत्रित खरीददारी का महत्त्व भी प्रतिपादित किया है। बाजार मनुष्य की ज़रूरतें पूरी करें। इसी में उसकी सार्थकता है, अन्यथा यह समाज में ईर्ष्या, तृष्णा, असंतोष, लूटखसोट को बढ़ावा देता है।

  6. हम इस बात से पूरी तरह सहमत हैं। दुकानदार कभी-कभी ग्राहक की आवश्यकताओं का भरपूर शोषण करते हैं जैसे कभी कभी जीवनपयोगी वस्तुओं (चीनी, गैस, प्याज, टमाटर आदि) की कमी हो जाती है। उस समय दुकानदार मनचाहे दामों में इन चीजों की बिक्री करते हैं। ग्राहक भी अपनी दैनिक आवश्कताओं के कारण सबकुछ जानते हुए बाजार के शोषण का शिकार बन जाता है।

    1. बाज़ारूपन से कपट भाव बढ़ता है और कपट भाव से आपस में उचित व्यवहार की कमी आ जाती है। ग्राहक और विक्रेता के संबंध केवल व्यावसायिक ही रह जाते हैं। एक की हानि मे दूसरा अपना लाभ देखने लगता है। इसे ही लेखक ने 'कपट बाज़ार' कहा है।
    2. जो मनुष्य आवश्यकतानुसार ही वस्तुएँ खरीदते हैं, वास्तव मे वही बाज़ार को सार्थकता प्रदान करते हैं।
    3. लेखक के अनुसार ‘पचेंजिंग पावर' वास्तव में मनुष्य का गर्व है। गर्व में मनुष्य केवल पैसे की विनाशक शक्ति, शैतानी शक्ति, व्यंग्य की शक्ति ही बाज़ार को देते हैं। ऐसे में मनुष्य न तो बाज़ार का स्वयं लाभ उठा पाता है और न बाज़ार को ही सच्चा लाभ दे सकता है। इससे लोग बाज़ार का बाज़ारूपन ही बढ़ाते हैं।