फणीश्वर नाथ रेणु - CBSE Test Papers

 CBSE Test Paper 01

फणीश्वर नाथ रेणु


  1. जब मैनेजर और सिपाहियों ने लुट्टन पहलवान को चाँद सिंह से लड़ने से मना कर दिया तो लुट्टन ने क्या कहा?

  2. लुट्टन पहलवान अपने पुत्रों को क्या शिक्षा दिया करता था?

  3. पहलवान की ढोलक की आवाज़ का पूरे गाँव पर क्या असर होता था?

  4. पलहवान की  ढोलक कहानी के किस-किस मोड़ पर लुट्टन के जीवन में क्या-क्या परिवर्तन आए?

  5. लुट्टन को पहलवान बनने की प्रेरणा कैसे मिली?

  6. ढोल में तो जैसे पहलवान की जान बसी थी- पहलवान की ढोलक पाठ के आधार पर सिद्ध कीजिए।

  7. निम्नलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए- (2×3=6)
    जाड़े का दिन, अमावस्या की रात-ठंडी और काली। मलेरिया और हैजे से पीड़ित गाँव भूयार्त शिशु की तरह थर-थर काँप रहा था। पुरानी और उजड़ी बाँस-फूस की झोपड़ियों में अंधकार और सन्नाटे का सम्मिलित साम्राज्य, अँधेरा और निःस्तब्धता को केवल सियारों का रोना और उल्लुओं की डरावनी आवाज़ ही भंग कर रही थी। अँधेरी रात चुपचाप आँसू बहा रही थी।
    निःस्तब्धता करुण सिसकियों और आहों को बलपूर्वक अपने हृदय से ही दबाने की चेष्टा कर रही थी। आकाश में तारे चमक रहे थे। पृथ्वी पर कहीं प्रकाश का नाम नहीं। आकाश से टूटकर यदि कोई भावुक तारा पृथ्वी पर जाना भी चाहता, तो उसकी ज्योति और शक्ति रास्ते में ही समाप्त हो जाती थी। अन्य तारे उसकी भावुकता अथवा असफलता पर खिलखिलाकर हँस पड़ते थे।

    1. प्रस्तुत गद्यांश से संबंधित पाठ तथा इसके लेखक का नाम लिखिए।
    2. इस गद्यांश में लेखक ने गाँव में किस विभीषिका का भयंकर वर्णन किया है?
    3. रात्रि की निःस्तब्धता को कौन भंग कर रहा था?

CBSE Test Paper 01
फणीश्वर नाथ रेणु


Solution

  1. मैनेजर और सिपाहियों की बातें सुनकर लुट्न सिंह गिड़गिड़ाने लगा। वह राजा साहब के सामने जा खड़ा हुआ। उसने कहा दुहाई सरकार, पत्थर पर माथा पटककर मर जाऊँगा लेकिन लडूंगा अवश्य सरकार, वह कहने लगा-लड़ेंगे सरकार हुकुम हो सरकार।

  2. पहलवान अपने पुत्रों को यह शिक्षा दिया करता था कि ढोल को गुरु समझना चाहिए तथा ढोलक की आवाज़ पर पूरा ध्यान देना चाहिए। दंगल में उतरते ही सबसे पहले ढोलों को प्रणाम करना चाहिए।

  3. ढोलक की आवाज़ से रात की विभीषिका और दुख का सन्नाटा कम होता था। ढोल की आवाज महामारी से पीड़ित लोगों की नसों में बिजली दौड़ा  देती थी, उनकी आँखों के सामने दंगल का दृश्य साकार हो जाता था। मानो वे मृत्यु अथवा बीमारी रूपी शत्रु से लड़ने के लिए तत्पर हो जाते थे और अपनी पीड़ा भूल कर खुशी-खुशी मौत का सामना करते थे। इस प्रकार ढोल की आवाज, मृतप्राय गाँववालों की नसों में संजीवनी शक्ति भरकर उन्हें महामारी से लड़ने की प्रेरणा देती थी।

  4. कहानी में लुट्टन के जीवन में अनेक परिवर्तन आए -

    1.  बचपन में ही लुट्टन के माता-पिता का देहांत हो गया था।
    2. उनका  पालन-पोषण उनकी सास ने किया और अपनी सास पर हुए अत्याचारों का बदला लेने के लिए ही उन्होंने पहलवान बनने का निश्चय किया था।
    3. उन्होंने बिना गुरु के कुश्ती सीखी थी। वे ढोल को अपना गुरु मान कर हर समय उसे अपने समीप रखते थे।
    4. अल्पायु में उन्हें पत्नी की मृत्यु का दुःख सहना पड़ा और दो छोटे बच्चों का भार संभालना पड़ा, उन्हें भी लुट्टन ने पहलवानी के दाॅंव-पेंच सिखाये।
    5. जीवन के पंद्रह वर्ष राजा की छत्रछाया में सुखपूर्वक राजसी भोग करते हुए बिताये परंतु राजा के निधन के बाद उनके पुत्र ने उन पर होने वाले खर्च को फिजूलखर्ची मानकर उन्हें राजसी सुविधाओं से वंचित कर दिया।
    6. गाँव के बच्चों को पहलवानी सिखायी।
    7. अपने बच्चों की मृत्यु के असहनीय दुःख का सामना साहसपूर्वक किया।
    8. महामारी के समय अपने  ढोल के द्वारा लोगों में उत्साह का संचार किया, उन्हें मृत्यु से लड़ने का साहस दिया।
  5. लुट्टन जब नौ साल का था तभी उसके माता-पिता का देहांत हो गया था। सौभाग्य से उसकी शादी हो चुकी थी। अनाथ लुट्टन को उसकी विधवा सास ने पाल-पोसकर बड़ा किया। उसकी सास को गाँव वाले परेशान करते थे। उसका मन करता था की एक-एक करके बदला ले जिस के लिए स्वस्थ शरीर की आवश्यकता थी इसीलिए  उसने पहलवान बनने की ठानी। धारोष्ण दूध पीकर, कसरत कर उसने अपना बदन गठीला और ताकतवर बना लिया। कुश्ती के दाँवपेंच सीखकर लुट्टन पहलवान बन गया।

  6. जब लुट्टन सिंह जवानी के जोश में चाँद सिंह जैसे मँजे हुए पहलवान को ललकार बैठा तब जनसमूह, राजा और पहलवानों की यह धारणा थी कि यह कच्चा किशोर जिसने कुश्ती कभी सीखी ही नहीं है, पहले दाँव में ही ढेर हो जाएगा। जब कि लुट्टन सिंह की नसों में बिजली और मन में जीत का जज़्बा उबाल खा रहा था। उसे किसी की परवाह न थी। किन्तु ढोल की थाप में उसे एक-एक दाँव-पेंच का मार्गदर्शन जरूर मिल रहा था। उसी थाप का अनुसरण करते हुए उसने उस ‘शेर के बच्चे’ को खूब धोया, उठा-उठा कर पटका और हरा दिया। इस जीत में एक मात्र ढोल ही उसके साथ था। अतः जीतकर वह सबसे पहले ढोल के पास दौड़ा और उसे प्रणाम किया।

    1. प्रस्तुत गद्यांश से संबंधित पाठ का नाम 'पहलवान की ढोलक' तथा इस पाठ के लेखक 'फणीश्वर नाथ रेणु' हैं।
    2. लेखक ने गाँव में अनावृष्टि, अन्न की कमी तथा मलेरिया एवं हैजे से उत्पन्न विभीषिका का वर्णन किया है। महामारी के कारण चारो ओर मौत का भयानक तांडव है। इस भयावह बीमारी के कारण घर-परिवार सभी शून्य होते जा रहे थे।
    3. रात्रि की निःस्तब्धता को केवल सियारों का रोना व उल्लुओं की डरावनी आवाज़ ही भंग करती थी, अन्यथा वहाँ पर किसी के कराहने व रोने की आवाज़ सुनाई भी नहीं दे रही थी।