भीमराव रामजी आंबेडकर - CBSE Test Papers

 CBSE Test Paper 01

भीमराव रामजी आंबेडकर


  1. आर्थिक विकास के लिए जाति-प्रथा कैसे बाधक है?

  2. श्रम विभाजन किसे कहते हैं? श्रम विभाजन और जाति-प्रथा पाठ के अनुसार बताइए।

  3. डॉ. आंबेडकर के इस कथन का आशय स्पष्ट कीजिए- गर्भधारण के समय से ही मनुष्य का पेशा निर्धारित कर दिया जाता है। क्या आज भी यह स्थिति विद्यमान है।

  4. डॉ. आंबेडकर की कल्पना के आदर्श समाज के तीन बिन्दुओं का उल्लेख कीजिए।

  5. डॉ. भीमराव आंबेडकर के आदर्श समाज की कल्पना में भ्रातृता का महत्त्व स्पष्ट कीजिए।

  6. जाति प्रथा को श्रम-विभाजन का ही एक रूप न मानने के पीछे आंबेडकर के क्या तर्क हैं?

  7. निम्नलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए- (2×3=6)
    ‘समता' का औचित्य यहीं पर समाप्त नहीं होता। इसका और भी आधार उपलब्ध है। एक राजनीतिज्ञ पुरुष का बहुत बड़ी जनसंख्या से पाला पड़ता है। अपनी जनता से व्यवहार करते समय, राजनीतिज्ञ के पास न तो इतना समय होता है न प्रत्येक के विषय में इतनी जानकारी ही होती है, जिससे वह सबकी अलग-अलग आवश्यकताओं तथा क्षमताओं के आधार पर वांछित व्यवहार अलग-अलग कर सके। वैसे भी आवश्यकताओं क्षमता के आधार पर भिन्न व्यवहार कितना भी आवश्यक तथा औचित्यपूर्ण क्योंं न हो, ‘मानवता के दृष्टिकोण से समाज दो वर्गों व श्रेणियों में नहीं बाँटा जा सकता। ऐसी स्थिति मे, राजनीतिज्ञ को अपने व्यवहार में एक व्यवहार्य सिद्धांत की आवश्यकता रहती है और यह व्यवहार्य सिद्धांत यही होता है कि सब मनुष्यों के साथ समान व्यवहार किया जाए। राजनीतिज्ञ यह व्यवहार इसलिए नहीं करता कि सब लोग समान होत है, बल्कि इसलिए कि वर्गीकरण एवं श्रेणीकरण संभव नहीं होता।

    इस प्रकार ‘समता' यद्यपि काल्पनिक जगत की वस्तु है, फिर भी राजनीतिज्ञ को सभी परिस्थितियों को दृष्टि में रखते हुए उसके लिए यही मार्ग भी रहता है, क्योंकि यही व्यावहारिक भी है और यही उसके व्यवहार की एकमात्र कसौटी भी है।

    1. समता का औचित्य क्या है?
    2. क्षमता को राजनीतिज्ञ पुरुष के संदर्भ में कैसे स्पष्ट किया गया है?
    3. राजनीतिज्ञ समान व्यवहार क्योंं करते हैं?

CBSE Test Paper 01
भीमराव रामजी आंबेडकर


Solution

  1. भारत में जाति-प्रथा के कारण व्यक्ति को जन्म के आधार पर मिला पेशा ही अपनाना पड़ता है। उसे विकास के समान अवसर नहीं मिलते। जबरदस्ती थोपे गए पेशे में उनकी अरुचि हो जाती और वे काम को टालने या कम काम करने के लिए प्रेरित होते हैं। वे एकाग्रता से कार्य नहीं करते। इस प्रवृत्ति से कार्य कुशलता नहीं प्राप्त होती है और यह स्थिति आर्थिक दृष्टि से हानिकारक होती है।

  2. श्रम विभाजन का अर्थ है- मानवोपयोगी कार्यों का वर्गीकरण करना। प्रत्येक कार्य को कुशलता से करने के लिए योग्यता के अनुसार विभिन्न कामों को आपस में बाँट लेना। कर्म और मानव-क्षमता पर आधारित यह विभाजन सभ्य समाज के लिए आवश्यक है।

  3. डॉ. आंबेडकर ने भारत की जाति प्रथा पर सटीक विश्लेषण किया है। यहाँ जातिप्रथा की जड़ें बहुत गहरी हैं। समाज ने जातिगत आधार पर लोगों के पेशे को जन्म से ही निर्धारित कर दिया भले ही वे उसमें पारंगत हों या नहीं। उनकी रुचि न होने पर भी उन्हें वही कार्य करना पड़ता था जो उनके लिए निर्धारित किया गया है। इस व्यवस्था को श्रम विभाजन के नाम पर लागू किया गया था।
    आज यह स्थिति नहीं है। शिक्षा, समाज सुधार, तकनीकी विकास, सरकारी कानून आदि के कारण जाति के बंधन ढीले हो गए हैं। व्यवसाय के क्षेत्र में जाति का महत्त्व नगण्य हो गया है।

  4. डॉ. आंबेडकर की कल्पना के आदर्श समाज के मुख्यतः तीन बिंदुओं- स्वतंत्रता, समता एवं भ्रातृता यानी भाईचारा पर आधारित है। उनका मानना था कि आदर्श समाज तभी स्थापित हो सकता है, जब समाज के सभी सदस्यों को अपना व्यवसाय चुनने की स्वतंत्रता हो तथा सभी व्यक्तियों को उनकी रूचि के अनुसार कार्यों की उपलब्धता हो।
    किसी भी आदर्श समाज के लिए आवश्यक है कि उस समाज के सभी व्यक्तियों को समान अवसर तथा समान व्यवहार उपलब्ध हों। ऐसे समाज में सबके हित की धारणा होनी चाहिए जो समाज के सदस्यों से संबंधित हों। प्रत्येक वर्ग के सदस्यों को न केवल पर्याप्त साधन एवं अवसर उपलब्ध हों, बल्कि उनमें गतिशीलता का भी उचित समावेश होना चाहिए। सभी सदस्य एक दूसरे के प्रति श्रद्धा व सम्मान का भाव रखें । इस आदर्श समाज में जातीय भेदभाव का दूर-दूर तक नामोनिशान तक नहीं होना चाहिए तथा समाज में सबसे अधिक महत्त्व कर्म को, कर्मशीलता को मिलना चाहिए।

  5. आदर्श समाज में तीन तत्वों में से एक भ्रातृता को रखकर लेखक ने आदर्श समाज में स्त्रियों को सम्मिलित नहीं किया है, किंतु वह जिस समाज की बात कर रहा है, उस समाज की संरचना स्त्री तथा पुरुष दोनों से मिलकर निर्मित होती है। वास्तव में लेखक का आशय इस बात से है कि समाज में लोग एक दूसरे के साथ भाईचारे का व्यवहार रखें। समाज में समरसता एवं सह-अस्तित्व की भावना हो तथा लोगों के  मन में एक दूसरे के प्रति श्रद्धा व सम्मान का भाव हो। इसके अभाव में आदर्श समाज की कल्पना नहीं की जा सकती।  

  6. जाति प्रथा को श्रम-विभाजन का ही एक रूप न मानने के पीछे आंबेडकर ने निम्न तर्क दिए हैं-

    1. श्रम-विभाजन मनुष्य की रुचि पर नहीं बल्कि उसके जन्म पर आधारित है और यह विभाजन अस्वाभाविक होता है। 
    2. व्यक्ति की योग्यता और क्षमताओं की उपेक्षा की जाती है।
    3. व्यक्ति के जन्म से पहले ही उसके माता-पिता के सामाजिक स्तर के आधार पर उसका पेशा निर्धारित कर दिया जाता है। उसे पेशा चुनने की कोई आज़ादी नहीं होती।
    4. व्यक्ति को अपना व्यवसाय बदलने या चुनने की अनुमति नहीं होती।
    5. संकट में भी व्यवसाय बदलने की अनुमति नहीं होती चाहे बेरोजगारी या भूखे मरने की नौबत ही क्यों न आ जाए।
    1. जाति, धर्म, संप्रदाय से ऊपर उठकर मानवता अर्थात् मानव मात्र के प्रति जो समान व्यवहार है, वही समता का औचित्य है।
    2. राजनेताओं का हर वर्ग के लोगों से पाला पड़ता है। उन्हें अपनी जनता से व्यवहार के समय समता को महत्त्व देना चाहिए। ऐसा उनके लिए सुगम भी है क्योंकि वर्गीकरण करना उनके लिए संभव नहीं होता। आवश्यकता तथा क्षमता के आधार पर वांछित व्यवहार करने में विषमता ही सामने आती है।
    3. राजनीति एक व्यावहारिक सिद्धांत के अनुरूप होती है। समाज में व्याप्त विषमता, असमानता एक सच्चाई है, लेकिन राजनीतिज्ञ को एक व्यवहार्य सिद्धांत की आवश्यकता रहती है और समतामूलक धारणा की, जिससे सब मनुष्यों के साथ समान व्यवहार किया जाए। वे ऐसा चाहते है क्योंकि वे सबकी अलग-अलग आवश्यकताओं के अनुरूप व्यवहार करने में असमर्थ होते है। इसी समतामूलक धारणा के आधार पर उनकी राजनीति फलती-फूलती है। इस कारण राजनीतिज्ञ समान व्यवहार को अधिक महत्त्व देते हैं।