भारतीय समाजशास्त्री- एनसीईआरटी प्रश्न-उत्तर

CBSE कक्षा 11 समाजशास्त्र
एनसीईआरटी प्रश्न-उत्तर

पाठ - 10 भारतीय समाजशास्त्री

1. अनंतकृष्ण अय्यर और शरतचंद्र रॉय ने सामाजिक मानव विज्ञान के अध्ययन का अभ्यास कैसे किया?
उत्तर- अनंतकृष्ण अय्यर और शरतचंद्र रॉय ने सामाजिक मानव विज्ञान के अध्ययन का अभ्यास निम्नलिखित प्रकार से किया :
  • अनंतकृष्ण अय्यर (1861-1931) भारत में समाजशास्त्र के अग्रदूत थे।
  • अनंतकृष्ण अय्यर के राज्य में कोचीन के दीवान द्वारा नृजातीय सर्वेक्षण में मदद के लिए कहा गया।
  • शरतचंद्र रॉय जनजातीय समाज में ज़्यादा रुचि रखते थे एवं यह उनकी नौकरी की जरूरत भी थी।इसी वजह से उन्हें अदालत में जानकारियों की परंपरा और कानून को दुभाषित करना था।
  • अनंतकृष्ण अय्यर संभवतः पहले स्वयं शिक्षित मानवविज्ञानी थे जिन्होंने एक विद्धान तथा शिक्षाविद् के रूप में राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर की ख्याति मिली।
    शरतचंद्र रॉय के द्वारा समाजशास्त्र का प्रयोग:
  • महाप्रान्त क्षेत्र के अलावा ब्रिटिश सरकार इसी तरह का सर्वेक्षण सभी रजवाड़ों में करवाना चाहती थी। ये क्षेत्र विशेषतः उनके नियंत्रण में आते थे।
    अनंतकृष्ण अय्यर ने इस कार्य की पूर्ण रूप से एक स्वयंसेवी के रूप में किया।
  • ओराव, मुंडा तथा खरिया जनजातियों पर किया गया सर्वप्रसिद्ध प्रबन्ध लेखन कार्य के अलावा रॉय ने सौ से अधिक लेख राष्ट्रीय और ब्रिटिश शैक्षिक जर्नल में प्रकाशित किये।
  • शरतचंद्र रॉय ने सन् 1922 ई० में मैन इन इडिया नामक जर्नल की स्थापना की। भारत में यह अपने समय का पहला जर्नल था।

2. 'जनजातीय समुदायों को कैसे जोड़ा जाए'-इस विवाद के दोनों पक्षों के क्या तर्क थे?
उत्तर- जनजातीय समुदायों जोड़ने के लिए निम्नलिखित तर्क थे :
  • विभिन्न ब्रिटिश प्रशासक ऐसे भी थे जो मानवविज्ञानी थे एवं भारतीय जनजातियों में रुचि रखते थे। उन सबका मानना था कि ये आदिम लोग थे तथा उनकी अपनी विशिष्ट संस्कृति थी। साथ ही ये भारतीय जनजातियाँ हिंदू मुख्यधारा से बहुत सीमा तक पृथक थीं।
  • उनका मानना था कि समाज में इन सीधे सादे जनजातीय लोगों का न केवल शोषण होगा बल्कि उनकी संस्कृति का पतन भी होगा।
  • उन्होंने महसूस किया कि राज्य का यह कर्तव्य है कि वे इन जनजातियों को संरक्षण दे ताकि वे अपनी जीवन विधि और संस्कृति को कायम रख सके। इसकी वजह यह भी थी, यह कि उन पर लगातार दबाव बन रहा था कि वे हिंदू संस्कृति की मुख्यधारा में अपना समायोजन करें।
  • उनके अनुसार, जनजातीय संस्कृति को बचाने का कार्य गुमराह करने की कोशिश की और इसका परिणाम जनजातियों का पिछड़ापन है।
  • घूर्ये राष्ट्रवादी विचारधारा के प्रबल समर्थक थे। उन्होंने इस तथ्य पर बल दिया कि भारतीय जनजातियों को एक भिन्न सांस्कृतिक समूह की तुलना में पिछड़े हिंदू समाज की तरह पहचाना जाना चाहिए।
मुख्य अंतर-
  • मतभेद यह था कि मुख्यधारा की संस्कृति के प्रभाव का किस तरह मूल्याकंन किया जाए। संरक्षणवादियों का मानना था कि समायोजन का परिणाम जनजातियों के शोषण और उनकी सांस्कृतिक विलुप्तता का रूप सामने आएगा।
  • घूर्ये और राष्ट्रवादियों का तर्क था कि ये दुष्परिणाम केवल जनजातीय संस्कृति तक ही सीमित नहीं हैं। बल्कि भारतीय समाज के सभी पिछड़े और दलित वर्गों में समान रूप से देखे जा सकते हैं।

3. भारत में प्रजाति तथा जाति के संबंधों पर हरबर्ट रिजले तथा जी०एस०घूर्ये की स्थिति की रूपरेखा दें।
उत्तर- भारत में प्रजाति तथा जाति के संबंधों पर हरबर्ट रिजले तथा जी०एस०घूर्ये की स्थिति की रूपरेखा इस प्रकार है :
  • रिजले केअनुसार, मनुष्य को उसकी शारीरिक विशिष्टताओं के आधार पर पृथक-पृथक जनजातियों में वर्गीकृत किया जा सकता है; जैसे- नाक की लंबाई, खोपड़ी की चौड़ाई या कपाल का भार अथवा खोपड़ी का वह भाग जहाँ मस्तिष्क स्थित है।
  • रिजले के अनुसार, भिन्न-भिन्न प्रजातियों के उद्विकास के अध्ययन के संदर्भ में भारत एक विशिष्ट 'प्रयोगशाला' है। इसकी वजह यह थी कि जाति एक लंबे समय से विभिन्न समूहों के मध्य अंतनिर्वाह को निषिद्ध करती है।
  • उच्च जातियों ने भारतीय-आर्य प्रजाति की विशिष्टताओं को ग्रहण किया, लेकिन निम्न जातियों में अनार्य जनजातियों, मंगोल या अन्य प्रजातियों की विशेषता पाई जाती हैं।
  • रिजले एवं अन्य विद्धानों ने सुझाव दिया कि निम्न जातियाँ ही भारत की मूल निवासी हैं। आर्यों ने उनका शोषण किया जो कहीं बाहर से आकर भारत में फले-फूले थे।
  • रिजले के तर्कों से घूर्ये असहमत नहीं थे। लेकिन उन्होंने इसे केवल अंशतः सत्य माना। उन्होंने इस समस्या की तरफ ध्यान दिया। वस्तुतः यह समस्या, केवल औसत के आधार पर बिना बदलाव सोच-विचार किए किसी समुदाय पर विशिष्ट मापदंड लागू कर देने से पैदा होती है। जोकि विस्तृत एवं सुव्यवस्थित नहीं था।
  • प्रजातीय शुद्धता केवल भारत में उत्तर में शेष रह गई। थी। इस कारण से वहाँ अंतर्विवाह निषिद्ध था।

4. जाति की सामाजिक मानवशास्त्रीय परिभाषा को सारांश में बताएँ।
उत्तर- जाति की सामाजिक मानवविज्ञान संबंधी परिभाषा :
  • जाति खंडीय विभाजन पर आधारित है- जाति एक संस्था है तथा यह खंडीय विभाजन पर आधारित है। इसका अर्थ यह है कि जातीय समाज कई बंद तथा पारस्परिक खंडों एवं उपखंडों में विभाजित है।
  • जाति विवाह पर कठोर प्रतिबंध लगाती है- जाति द्वारा विवाह पर कठोर नियंत्रण लगाय जाते है। जाति में अंतर्विवाह या जाति में ही विवाह के अतिरिक्त 'बहिर्विवाह' के नियम भी जुड़े रहते हैं, या किसकी शादी किससे नहीं हो सकती है।
  • जाति सामाजिक अंतक्रिया पर प्रतिबंध लगाती है- एक सामाजित संस्था के रूप में जाति की सामाजिक अंतःक्रिया पर रोक लगाय जाते है, उदाहरण : साथ बैठकर भोजन करने के संदर्भ में।
  • विभिन्न जातियों के लिए भिन्न-भिन्न अधिकार और कर्तव्य- सोपानिक तथा प्रतिबंधित सामाजिक अंतःक्रिया के सिद्धांतों का अनुसरण करते हुए जाति अनेक जातियों के लिए अलग-अलग अधिकार और कर्तव्य भी निर्धारित करती है।
  • जाति सोपानिक विभाजन पर आधारित हैं- जातिगत समाज का आधार सोपानिक वर्गीकृत है। दूसरी जाति की तुलना में प्रत्येक जाति असमान होती है।
  • अस्पृश्यता की संस्था के रूप में- इसके अंतर्गत, किसी जाति विशेष के व्यक्ति से छू जाने मात्र से मनुष्य अपवित्र महसूस करता है।

5. जीवंत परंपरा से डी०पी० मुकर्जी का क्या तात्पर्य है? भारतीय समाजशास्त्रियों ने अपनी परंपरा से जुड़े रहने पर बल क्यों दिया?
उत्तर- डी०पी० मुकर्जी के अंतर्गत, वह एक परंपरा है जो भूतकाल से कुछ प्राप्त कर उससे अपने संबंध बनाए रखती है। इसके अतिरिक्त यह नयी चीज़ों को भी ग्रहण करती है।इस प्रकार जीवंत परंपरा में पुराने और नए तत्वों का मिश्रण है।
  • डी०पी० मुकर्जी के अनुसार, भारतीय समाजशास्त्रीयों को जीवंत परंपरा में रुचि रखनी चाहिए ताकि इसका उचित और सार भाव प्राप्त हो सके।
  • भारतीय समाजशास्त्री निम्नलिखित विषयों को अधिक सुलभता से जान सकते है-
    - आपके उम्र के बच्चों के द्वारा खेला जाने वाला खेल। (लड़का/लड़की)।
    - किसी लोकप्रिय त्योहार को मनाने के प्रक्रिया।
  • भारतीय समाजशास्त्रीयों का प्रथम दायित्व,भारत की सामाजिक परंपराओं का अध्ययन करना तथा जानना है। डी०पी० मुकर्जी के लिए, परंपरा का अध्ययन केवल भूतकाल तक ही सीमित नहीं था। इसके विपरीत वे परिवर्तन की संवेदनशीलता से भी जुड़े थे।
  • डी०पी० मुकर्जी ने जो भी लिखा है, वह भारतीय समाजशास्त्रीयों के लिए काफी नहीं है। सबसे पहले उन्हें भारतीय होना अनिवार्य है। उदाहरणत : उन्हें रूढ़ियों, प्रथाओं, रीति-रिवाजों और परंपराओं की जानकारी देनी है। इसका औचित्य यह है संदर्भित सामाजिक व्यवस्था को समझना एवं इसके अंदर तथा बाहर के तथ्यों की जानकारी हासिल करना।
  • डी०पी० मुकर्जी ने तर्क किया कि पाश्चात्य संदर्भ में भारतीय संस्कृति और समाज व्यक्तिवादी नहीं हैं।
  • स्वैच्छिक व्यक्तिगत कार्यों की तुलना में भारतीय सामाजिक व्यवस्था मुख्य रूप से समूह, समुदाय अथवा जाति संबंधी कार्यों के प्रति अभिमुख है।

6. भारतीय संस्कृति तथा समाज की क्या विशष्टिताएँ हैं तथा ये बदलाव के ढाँचे को कैसे प्रभावित करते हैं?
उत्तर- भारतीय संस्कृति तथा समाज की विशष्टिताएँ हैं तथा ये बदलाव के ढाँचे को निम्नलिखित तरह से प्रभावित करते हैं-
  • डी०पी० मुकजीं ने माना की, भारत का निर्णायक तथा मुख्य लक्षण इसकी सामाजिक व्यवस्था है।
  • उनके अंतर्गत भारत में इतिहास, राजनीति और अर्थशास्त्र पश्चिम के मुकाबले और आयाम के दृष्टिकोण से कम विकसित थे।
  • पश्चिम के अंतर्गत भारतीय संस्कृति और समाज व्यक्तिवादी नहीं है लेकिन इनमें सामूहिक व्यवहार के प्रतिमान निहित हैं।
  • डी०पी० मुकर्जी का है कि भारतीय समाज और संस्कृति का संबंध केवल भूतकाल तक ही सीमित नहीं है। इसे अनुकूलन की प्रक्रिया में भी विश्वास है।
  • डी०पी० मुकर्जी के अनुसार है कि भारतीय संदर्भ में वर्ग संघर्ष जातीय परंपराओं से प्रभावित होता है एवं उसे अपने में शामिल कर लेता है, जहाँ नवीन वर्ग संघर्ष अभी स्पष्ट रूप से उभर कर सामने नहीं आया है।
  • डी०पी० मुकर्जी को भारतीय परंपरा जैसे स्मृति, श्रुति और अनुभव में विश्वास था। इन सब में आखिरी अनुभव या व्यक्तिगत अनुभव क्रांतिकारी सिद्धांत है।
  • सामान्यीकृत अनुभव तथा समूहो का सामूहिक अनुभव भारतीय समाज में बदलाव का सबसे मुख्य सिद्धांत था।
  • उच्च परंपराएँ स्मृति तथा श्रुति में केंद्रित थी, लेकिन समय-समय पर उन्हें समूहों और संप्रदायों के सामूहिक अनुभवों के माध्यम से चुनौती दी जा रही है। उदाहरण : भक्ति आंदोलन।
  • डी०पी० मुकर्जी के अंतर्गत, भारतीय संदर्भ में बुद्धि-विचार बदलावों के लिए प्रभावशाली शक्ति नहीं है। ऐतिहासिक दृष्टिकोण से अनुभव एवं प्रेम परिवर्तन के उत्कृष्ट कारक हैं।
  • भारतीय परिप्रेक्ष्य में संघर्ष तथा विद्रोह सामूहिक अनुभवों के अंतर्गत कार्य करते हैं।

7. कल्याणकारी राज्य क्या है? ए०आर० देसाई कुछ देशों द्वारा किए गए दावों की आलोचना क्यों करते हैं?
उत्तर- कल्याणकारी राज्य : यह एक ऐसा राज्य है जो भिन्न-भिन्न परिप्रेक्ष्यों से संबंधित व्यक्तियों के कल्याण का कार्य करता है; जैसे-व्यक्तियों का आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, विकासात्मक आदि। ए०आर० देसाई की रुचि आधुनिक पूँजीवादी राज्य के आवश्यक विषय में था।
देसाई ने कल्याणकारी राज्य की निम्नलिखित विशेषताएँ बताई हैं :
  • कल्याणकारी राज्य एक सकारात्मक राज्य होता है। इसका अभिप्राय है कि उदारवादी राजनीति के शास्त्रीय सिद्धांत की 'Laissez Faire' नीति के विपरीत, कानून तथा व्यवस्था को बनाए रखने के लिए कल्याणकारी राज्य केवल न्यूनतम कार्य ही नहीं करता है।
  • एक कल्याणकारी राज्य पूँजीवादी बाज़ार को समाप्त करना चाहता है एवं न ही यह उद्योगों तथा दूसरे क्षेत्रों में जनता को निवेश करने से वंचित रखता है। कुल मिलाकर सरकारी क्षेत्र जरूरत की वस्तुओं तथा सामाजिक अधिसंरचना पर ध्यान देता है। इसकी तरफ निजी उद्योगों का वर्चस्व उपभोक्ता वस्तुओं पर कायम रहता है।
  • इसमें अर्थव्यवस्था मिश्रित होती है। मिश्रित अर्थव्यवस्था का अर्थ है-ऐसी अर्थव्यवस्था जहाँ निजी पूँजीवाद कंपनियाँ एवं राज्य या सामूहिक कपनियाँ दोनों साथ मिलकर कार्य करती हों।
  • देसाई कुछ ऐसे तरीकों का सुझाव देते हैं जिनके आधार पर कल्याणकारी राज्य द्वारा उठाये गए कदमों का परीक्षण किया जा सकता है। ये हैं:
    1. गरीबी, भेदभाव से मुक्ति एवं सभी नागरिकों की सुरक्षा- कल्याणकारी राज्य गरीबी, सामाजिक भेदभाव और अपने सभी नागरिकों की सुरक्षा की व्यवस्था करता है।
    2. आय की समानता- कल्याणकारी राज्य आय के क्षेत्र में हो रही असमानता को दूर करने का प्रयास करता है। इसके लिए यह अमीरों की आय गरीबों में पुनः बाँटता है, धन के संग्रह को रोकता है।
    3. समुदाय की वास्तविक जरूरतों की प्राथमिकता-कल्याणकारी राज्य अर्थव्यवस्था को इस प्रकार परिवर्तित करता है जहाँ समाज की वास्तविक जरूरतों को ध्यान में रखते हुए पूँजीवादियों को अधिक लाभ कमाने की मनोवृत्ति पर रोक लग जाय।
    4. स्थायी विकास- कल्याणकारी राज्य स्थायी विकास के लिए आर्थिक मंदी और तेजी से मुक्त व्यवस्था सुनिश्चित करता है।
    5. रोज़गार- यह सबके लिए रोजगार उपलब्ध कराता है।

8. समाजशास्त्रीय शोध के लिए 'गाँव' को एक विषय के रूप में लेने पर एम०एन० श्रीनिवास तथा लुई डयूमों ने इसके पक्ष तथा विपक्ष में क्या तर्क दिए हैं?
उत्तर- एम०एन० श्रीनिवास ने भारतीय गाँवों को समाजशास्त्रीय शोध/अनुसंधान के विषय के रूप में चुनाव किया। इसकी वजह यह थी कि उनकी रुचि ग्रामीण समाज से जीवनभर बनी रही।
  • उनके लेख दो प्रकार के हैं-गाँवों में किए गए क्षेत्रीय कार्यों का नृजातीय ब्यौरा और इन ब्यौरों पर परिचर्चा।
  • दूसरे प्रकार के लेख में सामाजिक विश्लेषण की एक इकाई के रूप में भारतीय गाँव पर ऐतिहासिक और अवधारणात्मक परिचर्चाएँ सम्मिलित हैं।
  • श्रीनिवास का मानना है कि गाँव एक महत्वपूर्ण सामाजिक पहचान है। इतिहास तथ्यों के अंतर्गत गाँवों ने अपनी एक एकीकृत पहचान बनाई गई है। ग्रामीण समाज में ग्रामीण एकता का अथिक आवश्यक है।
  • श्रीनिवास द्वारा ब्रिटिश प्रशासक मानव वैज्ञानिकों की आलोचना की गई है। इसकी वजह यह है कि उन्होंने भारतीय गाँव को आत्मनिर्भर, स्थिर,छोटे गणतंत्र के रूप में चित्रित किया था।
  • गाँव पहले आत्मनिर्भर नहीं थे। वस्तुतः वे भिन्न-भिन्न तरह के सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक संबंधों से जुड़े हुए थे।

9. भारतीय समाजशास्त्र के इतिहास में ग्रामीण अध्ययन का क्या महत्व है? ग्रामीण अध्ययन को आगे बढ़ाने में एम०एन० श्रीनिवास की क्या भूमिका रही?
उत्तर- भारतीय समाजशास्त्र के इतिहास में ग्रामीण अध्ययन का क्या महत्व : भारत गाँवों का देश है। 65 प्रतिशत से अधिक लोग भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करते हैं। यदि हम पाश्चात्य सामाजशास्त्रीयों के अपूर्ण और मिथ्या, तथ्यात्मक एवं शिक्षा संबंधी-जानकारियों को चुनौती देना चाहते हैं, तो गाँवों का अध्ययन आवश्यक है। ब्रिटिश सरकार के औपनिवेशिक हित, विचारधारा और नीतियों को ध्यान में रखते हुए उन्होंने अपना शोध कार्य सम्पन्न किया था।
एम०एन० श्रीनिवास की क्या भूमिका :
  • 1950-1960 के दौरान श्रीनिवास ने ग्रामीण समाज से संबंधित विस्तृत नृजातीय ब्यौरों का लेखा-जोखा को तैयार करने में सामूहिक परिश्रम को प्रोत्साहित तथा समन्वित किया।
  • एम०एन० श्रीनिवास ने भारतीय समाज और भारत के ग्रामीण जीवन से संबंधित कुछ विचारों पर महत्वपूर्ण लेख लिखे हैं।
  • एम०एन० श्रीनिवास की रुचि भारतीय गाँव और भारतीय समाज में जीवनभर बनी रही।