अंतरा - जयशंकर प्रसाद - पुनरावृति नोट्स

 CBSE Class 12 हिंदी ऐच्छिक

पुनरावृति नोट्स
पाठ-1 देवसेना का गीत / कार्नेलिया का गीत


(क) देवसेना  का  गीत
आह  वे दना  . . . . . . . . .  लाज  गंवाई ।
मूल  भाव :-  ‘देव सेना  की  गीत’  प्रसाद  के  ‘स्कंदगुप्त’  नाटक  से  लिया  गया  है।  मालवा के  राजा बंधुवर्मा की बहन  देव सेना  स्कंदगुप्त के प्रेम  निराश होकर जीवन भर  भ्रम में जीती रही  तथा विषम परिस्थितियों में  संघर्ष करती  रही। इस  गीत के  माध्यम  से  वह अपने  अनुभवों  में  अर्जित  वेदनामय क्षणों को  याद  कर जीवन  के  भावी  सुख, आशा  और अभिलाषा  से  विदा ले  रही  है।
व्याख्या  बिन्दु  :-  देवसेना मालवा  के  राजा बंधुवर्मा  की  बहन  है।  बंधुवर्मा की  वीरगति  के  उपरांत  देवसेना  राष्ट्रसेवा का व्रत लेती है। वह यौवनकाल में स्कंदगुप्त को पाने की चाह रखती  थी, किंतु स्कंदगुप्त मालवा के  धनकुबेर  की कन्या  विजया  की  और आकर्षित  थे।  देव सेना  जीवन में  नितांत  अकेली  हो जाती  है  और  गाना  गाकर  भीख  माँगती  है।  जीवन  के  अंतिम  पड़ाव  पर  भी  देव सेना  को  वेदना  ही  मिली। स्कंदगुप्त को पाने में असपफल होने के कारण निराशा भरा जीवन व्यतीत किया। यौवन क्रियाकलापों को  वह  भ्रमवश  किए गए कर्म  मानती  है,  इसलिए उसकी आँखो  से  निरंतर  आँसुओं की  धरा बह रही है। यौवनकाल में स्कंदगुप्त को न पाकर, अपने  प्रेम को वह  भूल चुकी  है। स्कंदगुप्त के प्रणयनिवेदन से वह स्वप्न देखने लगती  है। उसे लगता है कि परिश्रम से उत्पन्न थकान के कारण जैसे कोई यात्राी सघन  वन  के  वृक्षों  की  छाया में नींद  से  भरा  हुआ  स्वप्न  देख  रहा  हो  और  कोई  उसके  कान  में  अर्धरात्रि में गाए जाने वाला विहाग राग सुना रहा हो। स्कंदगुप्त के प्रणय-निवेदन से उसे लगता है कि उसने अपने  समस्त  श्रमपफल  को  खो  दिया  है।  उसकी  प्रे मरूपी  पूँजी  कहीं  खो  गई  है।  वह  स्कंद  गुप्त  के  निवेदन को ठुकरा  देती है। वह जानती है कि अच्छे भविष्य  की कल्पना  व्यर्थ  है,  फिर भी उसके हृदय में मधुर कल्पनाएँ जन्म लेती है। वह भावी सुख की आशा करती है, इसलिए अपनी आशा का बावली कहती  है। वह  अपनी  दुर्बलताओं को  जानती  है और यह भी  कि  उसकी हार  निश्चित  है,  पिफर  भी वह  प्रलय  से  मुकाबला करती  है।  विषम  परिस्थितियों  से  संघर्ष  करती  है और पराजय  स्वीकार  नहीं करती। अंत में देव सेना संसार को संबोध्ति करती हुई कहती है कि तुम अपनी ध्रोहर ;प्रेमद्ध वापस ले लो, वह इसे संभाल नहीं पायेगी। उसका  जीवन करूणा और वेदना  से भर गया है। वह मन ही मन लज्जित है।

(ख) कार्नेलिया  का  गीत
अरूण  यह  . . . . . . . . .  रजनी  भर  तारा।
मूल भाव  - ‘कार्नेलिया का गीत’  जयशंकर प्रसाद के  नाटक ‘चन्द्रगुप्त’ से  लिया गया है। सिकन्दर के  सेनापति  सेल्यूकस  की  बेटी  कार्नेलिया  इस  गीत  के  माध्यम  से  भारत  देश  की  गौरव  गाथा,  प्राकृतिक 
सौन्दर्य और संस्कृति का  गुणगान कर रही है। 
व्याख्या बिन्दु - सिंधु नदी के  तट पर बैठी कार्नेलिया कहती है कि भारत  देश मिठास एवं लालिमा अर्थात्  उत्साह  से  परिपूर्ण  है।  इस  देश  में  सूर्योदय  का  दृश्य  अत्यंत  आकर्षक  एवं  मनोहारी  है।  यहाँ  पहुँच कर अनजान क्षितिज को भी सहारा मिल जाता है। अर्थात दूर अनजान देशों से आये यात्रियों को भी भारत आश्रय देता है। सूर्योदय के समय तालाबों में कमल के फूल खिलकर अपनी आभा बिखेर देते  हैं  तो  सूर्य  की  किरणें  उन  पर  नृत्य  करती  सी  प्रतीत  होती  है। यहाँ  का  जीवन  सुन्दर,  सरल  एवं  मनोहारी दिखाई  देता  है।  भारत  की  हरियाली  से  युक्त  भूमि  पर  सूर्य की  लालिमा  ऐसी  लगती  है  जैसे  सर्वत्रा मांगलिक कुमकुम बिखरा हुआ हो। प्रातःकाल मलय पर्वत की शीतल, मंद,  सुगंध्ति पवन का सहारा लेकर इंद्रधनुष के समान सुंदर पंखो को फैला कर पक्षी भी जिस ओर मुँह करके  उड़ते दिखाई देते हैं,  वही उनके  घोसलें  हैं  अर्थात्  वे  भारत को  ही अपना  घर मानते  है,  यहाँ उन्हें  शांति  मिलती  है।  जैसे बादल गर्मी से मुरझाऐं पेड़-पौधे पर अपने जल की वर्षा कर जीवनदान देते  हैं, उसी तरह यहाँ के लोग अपनी आँखो से करूणा रूपी जल बहाकर निराश  और उदास लोगो के मन में नव आशा का संचार कर जीवन की प्रेरणा देता है। विशाल समुद्र की लहरें भी भारत के  किनारों से टकरा शांत हो जाती है, उन्हें भी यहाँ विश्राम मिलता है। रात भर जागते हुए तारे प्रातःकाल होने पर उन्हें भी मस्ती से  ऊँघते  दिखाई  देते  है  अर्थात्  छिपने की  तैयारी करते  हैं तब  ऊषा  रूपी नायिका  सूर्य रूपी  सुनहरें कलश में सुख रूपी जल लेकर आती है और भारत-भूमि पर लुढ़का देती है अर्थात् प्रातःकाल होने पर  भारतवासी सुखी,  समृद्ध खुशहाल दिखाई  देते  है।