संविधान का राजनीतिक दर्शन - एनसीईआरटी प्रश्न-उत्तर

सीबीएसई कक्षा - 11 राजनीति विज्ञान
एनसीईआरटी प्रश्नोत्तर
पाठ - 10 संविधान का राजनीतिक दर्शन

1. नीचे कुछ तथ्य दिए गए हैं। क्या इनका संबंध किसी मूल्य से है? यदि हाँ, तो वह अंतर्निहित मूल्य क्या है? कारण बताएँ।
  1. पुत्र और पुत्री दोनों का परिवार की संपत्ति में हिस्सा होगा।
  2. अलग-अलग उपभोक्ता वस्तुओं के बिक्री कर का सीमाकन अलग-अलग होगा।
  3. किसी भी सरकारी विद्यालय में धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाएगी।
  4. 'बेगार' अथवा बंधुआ मजदूरी नहीं कराई जा सकती।
उत्तर-
  1. यह तथ्य सामाजिक मूल्य से संबंधित है। यह संविधान द्वारा प्रदान समानता के मौलिक अधिकार के अनुरूप है। क्योंकि समानता के अधिकार के द्वारा नस्ल, धर्म ,लिंग, जाति, अथवा क्षेत्र आदि के आधार पर किसी के साथ किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाएगा। यह सामाजिक न्याय के सिद्धांत का परिचायक है। इस तरह पुत्र और पुत्री को संपत्ति में बराबर का हक देना समानता पर आधारित और भेदभाव रहित समाज की स्थापना की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है।
  2. भिन्न-भिन्न उपभोक्ता वस्तुओं के बिक्री-कर का सीमांकन भिन्न-भिन्न करने से आर्थिक न्याय के सिद्धांत का पालन होता है। क्योंकि अनेक उपभोक्ता वस्तुओं का समाज के अनेक वर्गों द्वारा उपभोग किया जाता है जिनकी कर-देय क्षमता अलग-अलग होती है।
  3. यह कथन संविधान की प्रस्तावना में उल्लेखित धर्मनिरपेक्षता के मूल्य पर आधारित है। इस सिद्धांत के अंतर्गत राज्य धार्मिक मामलों में किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करेगा।
  4. बेगार अथवा बंधुआ मजदूरी का निषेध सामाजिक न्याय के मूल्य पर आधारित है। यह संविधान के अनुच्छेद 23 में उल्लेखित स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार के अंतर्गत मानव के बलात् प्रतिरोध की अभिपुष्टि करता है। इसके अंतर्गत समाज के किसी भी वर्ग द्वारा किसी भी वर्ग का शोषण दंडनीय अपराध है।

2. नीचे कुछ विकल्प दिए जा रहे हैं। बताएँ कि इसमें किसका इस्तेमाल निम्नलिखित कथन को पूरा करने में नहीं किया जा सकता है?
लोकतांत्रिक देश को संविधान की ज़रूरत...
  1. सरकार की शक्तियों पर अंकुश रखने के लिए होती है।
  2. अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यकों से सुरक्षा देने के लिए होती है।
  3. औपनिवेशिक शासन से स्वतंत्रता अर्जित करने के लिए होती है।
  4. यह सुनिश्चित करने के लिए होती है कि क्षणिक आवेग में दूरगामी लक्ष्यों से कहीं विचलित न हो जाएँ।
  5. शांतिपूर्ण ढंग से सामाजिक बदलाव लाने के लिए होती है।
उत्तर- उपर्युक्त विकल्पों में से केवल "iii" में दिया गया विकल्प उपर्युक्त कथन को पूरा करने के लिए प्रयोग नहीं किया जा सकता है अर्थात् 'औपनिवेशिक शासन से स्वतंत्रता अर्जित करने के लिए होती है', पूर्णतः गलत हैं।

3. संविधान सभा की बहसों को पढ़ने और समझने के बारे में नीचे कुछ कथन दिए गए हैं-
  1. इनमें से कौन-सा कथन इस बात की दलील है कि संविधान सभा की बहसें आज भी प्रासंगिक हैं? कौन-सा कथन यह तर्क प्रस्तुत करता है कि ये बहसें प्रासंगिक नहीं हैं।
  2. इनमें से किस पक्ष का आप समर्थन करेंगे और क्यों?
  1. आम जनता अपनी जीविका कमाने और जीवन की विभिन्न परेशानियों के निपटारे में व्यस्त होती है। आम जनता इन बहसों की कानूनी भाषा को नहीं समझ सकती।
  2. आज की स्थितियाँ और चुनौतियाँ संविधान बनाने के वक्त की चुनौतियों और स्थितियों से अलग हैं। संविधान निर्माताओं के विचारों को पढ़ना और अपने नए जमाने में इस्तेमाल करना दरअसल अतीत को वर्तमान में खींच लाना है।
  3. संसार और मौजूदा चुनौतियों को समझने की हमारी दृष्टि पूर्णतया नहीं बदली है। संविधान सभा की बहसों से हमें यह समझने के तर्क मिल सकते हैं कि कुछ संवैधानिक व्यवहार क्यों महत्त्वपूर्ण हैं। एक ऐसे समय में जब संवैधानिक व्यवहारों को चुनौती दी जा रही है, इन तर्कों को न जानना संवैधानिक व्यवहारों को नष्ट कर सकता है।
उत्तर-
    1. जब आम जनता अपनी जीविका कमाने और जीवन की भिन्न-भिन्न परेशानियों के निपटारे में व्यस्त होती है, तो यह कथन यह तर्क प्रस्तुत करता है कि ये बहसें प्रासंगिक नहीं हैं। जीविका किसी भी व्यक्ति की प्रथम जरूरत होती है। इस समस्या से जूझते व्यक्ति के लिए संविधान सभा की बहसों का कोई महत्त्व नहीं होता हैं।
    2. आज की परिस्थितियाँ तथा चुनौतियाँ संविधान निर्माण के समय की चुनौतियों तथा स्थितियों से काफी अलग हैं। आज समय बहुत बदल गया है। अतः यह तर्क इस बात की पुष्टि करता है कि इस प्रकार की बहस वर्तमान समय में उपयोगी नहीं हैं।
    3. यह कथन इस तथ्य की पुष्टि करता है कि संसार की वर्तमान चुनौतियों को समझने, जानने के लिए बहसें प्रासंगिक हैं। इन तर्कों से वर्तमान परिस्थितियों की समझने में सहायता मिलती है।
    1. मैं इस बात को मानता/मानती हूँ की आजीविका सभी व्यक्तियों के लिए आवश्यक पहलु है। अतः अन्य कार्यों पर इसे प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
    2. इस तथ्य से सहमत होने का पर्याप्त कारण है कि आज की स्थितियाँ संविधान निर्माण के समय से बहुत ज़्यादा बदल चुकी हैं। संविधान के लागू होने से लेकर आज तक अर्थात् 64 वर्षों में संविधान में 95 से अधिक संशोधन स्वयं इस तथ्य की पुष्टि करते हैं।
    3. मैं इस बात से सहमत हूँ कि ये बहसें आज भी उपयोगी हैं, क्योंकि समस्त चुनौतियों तथा यह संसार आज भी पूरी तरह नहीं बदले हैं।

4. निम्नलिखित प्रसंगों के आलोक में भारतीय संविधान और पश्चिमी अवधारणा में अंतर स्पष्ट करें
  1. धर्मनिरपेक्षता की समझ
  2. अनुच्छेद 370 और 371
  3. सकारात्मक कार्य-योजना या अफरमेटिव एक्शन
  4. सार्वभौम वयस्क मताधिकार
उत्तर-
  1. धर्मनिरपेक्षता की समझ- भारत में धर्मनिरपेक्षता की धारणा पश्चिमी देशों में धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा से बिलकुल अलग है। पश्चिमी धारणा में व्यक्ति की स्वतंत्रता तथा व्यक्ति की नागरिकता से संबंधित अधिकारों की रक्षा के लिए धर्मनिरपेक्षता को धर्म तथा राज्य के पारस्परिक निषेध के रूप में देखा गया है। यहाँ धर्म एक व्यक्ति की निजी अवधारणा माना जाता है तथा राज्य की इसमें कोई भूमिका नहीं होती है। जबकि भारत के संविधान में यह व्यवस्था है कि ऐसे राज्य की स्थापना की गई है, जो प्रचलित सभी धर्मों के साथ समानता के आधार पर व्यवहार करेगा। किसी धर्म को न तो संरक्षण देगा और न ही राज धर्म को मान्यता देगा। लेकिन कभी-कभी राज्य की धर्म के अंदरूनी मामले में हस्तक्षेप करना पड़ता है। राज्य ऐसा इसलिए करता है क्योंकि इसमें व्यापक हित है। जैसे, धर्म से अनुमोदित रिवाज मसलन छुआछूत व्यक्ति को उसकी बुनियादी गरिमा से वंचित करते थे। छुआछूत की पैठ इतनी गहरी थी कि राज्य को हस्तक्षेप कर इसे खत्म करना पड़ा। संविधान के अनुच्छेद 15, 16, 28, 29, 30 में धर्मनिरपेक्षता के संबंध में व्यापक प्रावधान किए गए हैं।
  2. अनुच्छेद 370 और 371- संविधान के अनुच्छेद 370 में जम्मू-कश्मीर राज्य संबंधी विशेष प्रावधान किया गया है। इस अनुच्छेद को महत्वपूर्ण माना गया है। इसके द्वारा जम्मू-कश्मीर राज्य को विशेष दर्जा प्राप्त है। विशेष दर्जे की मुख्य वजह जम्मू तथा कश्मीर के भारत में विलय के समय भारतीय शासक द्वारा जम्मू तथा कश्मीर राज्य के तत्कालीन शासक से किए गए वायदे हैं। जम्मू तथा कश्मीर का अपना एक विशेष संविधान है। यद्यपि यह भारतीय संघ का अभिन्न अंग है, परंतु अन्य राज्यों की तुलना में इसकी स्थिति भिन्न है। अनुच्छेद 370 जम्मू-श्मीर राज्य के संबंध में अस्थायी या संक्रमणकालीन व्यवस्था ही करता है।
    अनुच्छेद 371 का संबंध उत्तर-पूर्व राज्यों से है। इस अनुच्छेदका संबंध असम, मणिपुर, आंध्रप्रदेश, नागालैंड, गोवा, मिजोरम तथा अरुणाचल प्रदेश जैसे राज्यों के संबंध में विशेष उपबंध किए गए हैं। अनुच्छेद 370 तथा 371 वाले राज्यों पर केंद्र का सीधा-साधा नियंत्रण अर्थात् उन राज्यों की सहमति के आधार पर संसद के नियमों को लागू किया जा सकता है। दूसरे शब्दों में, अनुच्छेद 370 और 371 में उल्लिखित राज्य एक निश्चित सीमा तक स्वायत्तता का उपयोग कर सकते हैं। इस प्रकार इन दोनों अनुच्छेदों में उल्लिखित राज्यों की स्थिति अन्य राज्यों से थोड़ी भिन्न है। पश्चिमी देशों में ऐसा देखने को नहीं मिलता है।
  3. सकारात्मक कार्य योजना या अफरमेटिव एक्शन- सकारात्मक कार्य योजना या अफरमेटिव एक्शन का अभिप्राय यह है कि हमारे संविधान निर्माताओं ने भारतीय संस्कृति के मूलमंत्र-'वसुधैव कुटुम्बकम्' को व्यापक प्ररिप्रेक्ष्य में संविधान में राजनीतिक दर्शन के संघात्मकता, भ्रातृत्व जैसी धारणाओं को अंगीकार किए और समाज के सभी वर्गों की भावनाओं एवं संस्कृतियों का सम्मान करते हुए उपबंध लागू किए। इस प्रकार समाज के सभी वर्गों के विकास के लिए समान अवसर उपलब्ध कराने की व्यवस्था की गई है। यह पाश्चात्य अवधारणा से सर्वथा भिन्न है।
  4. सार्वभौम वयस्क मताधिकार- सार्वभौम वयस्क मताधिकार का आशय है-सभी वयस्क स्त्री और पुरुष को मताधिकार का समान अवसर हमारे संविधान निर्माताओं द्वारा दिया गया है। अर्थात् संविधान को लागू करने के साथ ही महिलाओं को पुरुष के समान मताधिकार दिया गया है। जबकि अनेक पश्चिमी देशों में स्त्रियों को मताधिकार संविधान लागू होने के काफी बाद दिया गया है। उन्हें संविधान निर्माण के समय यह अधिकार नहीं दिया गया था।

5. निम्नलिखित में धर्मनिपरेक्षता का कौन-सा सिद्धांत भारत के संविधान में अपनाया गया है?
  1. राज्य का धर्म से कोई लेना-देना नहीं है।
  2. राज्य का धर्म से नजदीकी रिश्ता है।
  3. राज्य धर्मों के बीच भेदभाव कर सकता है।
  4. राज्य धार्मिक समूहों के अधिकार को मान्यता दंगा।
  5. राज्य को धर्म के मामलों में हस्तक्षेप करने की सीमित शक्ति होगी।
उत्तर- भारतीय संविधान में धर्मनिरपेक्षता के निम्न सिद्धांतों को अपनाया गया है-
  1. राज्य का धर्म से कोई लेना-देना नहीं है।
  2. राज्य धार्मिक समूहों के अधिकार को मान्यता नहीं देगा।
  3. राज्य को धर्म के मामलों में हस्तक्षेप करने की सीमित शक्ति होंगी।
  4. राज्य किसी भी धर्म को कोई विशेष सहायता नहीं देगा।

6. निम्नलिखित कथनों को सुमेलित कीजिए-
i. विधवाओं के साथ किए जाने वाले बर्ताव की आलोचना की आज़ादी।आधारभूत महत्त्व की उपलब्धि
ii. संविधान सभा में फैसलों का स्वार्थ के आधार पर नहीं बल्कि तर्कबुद्धि के आधार पर लिया जाना।प्रक्रियागत उपलब्धि
iii. व्यक्ति के जीवन में समुदाय के महत्त्व को स्वीकार करना।लैंगिक न्याय की उपेक्षा
iv. अनुच्छेद 370 और 371।उदारवादी व्यक्तिवाद
v. महिलाओं और बच्चों को परिवार की संपत्ति में असमान अधिकार।धर्म-विशेष की ज़रूरतों के प्रति ध्यान देना।
उत्तर-
i. विधवाओं के साथ किए जाने वाले बर्ताव की आलोचना की आज़ादी।प्रक्रियागत उपलब्धि
ii. संविधान सभा में फैसलों का स्वार्थ के आधार पर नहीं बल्कि तर्कबुद्धि के आधार पर लिया जाना।आधारभूत महत्त्व की उपलब्धि
iii. व्यक्ति के जीवन में समुदाय के महत्त्व को स्वीकार करना।उदारवादी व्यक्तिवाद
iv. अनुच्छेद 370 और 371।धर्म-विशेष की ज़रूरतों के प्रति ध्यान देना।
v. महिलाओं और बच्चों को परिवार की संपत्ति में असमान अधिकार।लैंगिक न्याय की उपेक्षा

7. यह चर्चा एक कक्षा में चल रही थी। विभिन्न तर्कों को पढ़ें और बताएँ कि आप इनमें से किस-से सहमत हैं और क्यों?
जयेश
 : मैं अब भी मानता हूँ कि हमारा संविधान एक उधार का दस्तावेज़ है।
सबा : क्या तुम यह कहना चाहते हो कि इसमें भारतीय कहने जैसा कुछ है ही नहीं? क्या मूल्यों और विचारों पर हम 'भारतीय' अथवा 'पश्चिमी' जैसा लेबल चिपका सकते हैं? महिलाओं और पुरुषों की समानता का ही मामला लो। इसमें 'पश्चिमी' कहने जैसा क्या है और, अगर ऐसा है भी तो क्या हम इसे महज पश्चिमी होने के कारण खारिज कर दें?
जयेश : मेरे कहने का मतलब यह है कि अंग्रेज़ों से आज़ादी की लड़ाई के बाद क्या हमने उनकी संसदीय-शासन की व्यवस्था नहीं अपनाई?
नेहा : तुम यह भूल जाते हो कि जब हम अंग्रेज़ों से लड़ रहे थे तो हम सिर्फ अंग्रेज़ों के खिलाफ़ थे। अब इस बात का, शासन की जो व्यवस्था हम चाहते थे उसकी अपनाने से कोई लेना-देना नहीं, चाहे यह जहाँ से भी आई हो।
उत्तर- उक्त चर्चा में बहस का मुख्य मुद्दा भारतीय संविधान एक उधार का दस्तावेज़ है। संविधान के बहुत से उपबंध अन्य देशों के संविधान से लिए गए हैं। कुछ उपबंध तो भारतीय शासन अधिनियम, 1935 से लिए गए हैं। वस्तुस्थिति यह है कि विदेशी स्रोतों से ग्रहण किए गए उपबंध में देश की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थिति के अनुरूप परिवर्तन किए गए, उन्हें उसी रूप में ग्रहण नहीं किया गया वरन् अपनी आवश्यकताओं तथा स्थितियों के अनुरूप उनमें परिवर्तन लाकर और भविष्य में आवश्कतानुसार बदलाव की गुंजाइश रखते हुए संविधान निर्माताओं द्वारा उन्हें ग्रहण किया गया। वास्तव में संविधान निर्माताओं का उद्देश्य मौलिक संविधान की जगह एक व्यावहारिक संविधान का निर्माण करना था। सबा के इस कथन से सहमत होने के पर्याप्त कारण हैं कि कोई भी मूल्य, मूल्य होता है; आदर्श, आदर्श होते हैं; हम इसे किसी विशेष श्रेणी में नहीं बाँट सकते, किसी सीमा में नहीं बाँध सकते। किसी भी दृष्टिकोण से स्त्री-पुरुष समानता की सराहना ही की जाएगी। हमें इसे ग्रहण करने में महज इस आधार पर संकोच नहीं करना चाहिए कि इसका स्रोत विदेशी हैं बल्कि सराहनीय स्थिति यह है कि हमें आदर्श अथवा मूल्यों को ग्रहण करते समय अपना दृष्टिकोण व्यापक रखना चाहिए। इस प्रकार की सोच एक प्रगतिशील समाज की स्थापना की दिशा में यह एक संकटदायक स्थिति है। नेहा का तर्क भी यही है और इससे सहमति का आधार भी यही है। बल्कि अपनी आवश्यकताओं और स्थितियों के अनुरूप उसे ग्रहण कर लेना ही बुद्धिमानी है। इसके विपरीत, यदि हम भारतीयता के नाम पर अपनी पुरातन व्यवस्थाओं को ही अपना लें जो हमारी आज की ज़रूरतों तथा बदलती परिस्थितियों के अनुकूल ही न हो, तो ऐसी 'भारतीयता' से हमें क्या लाभ होगा।
संक्षेप में हम कह सकते हैं कि सविधान-निर्माताओं को इस बात का अहसास था कि वे भारत जैसे बड़े तथा विविधतापूर्ण देश के लिए एक ऐसे संविधान की जरूरी है जो न केवल सामाजिक समस्याओं और संकटों के भवर से राष्ट्र को निकाल सके वरन् युगों तक देश का दिशासूचक बना रहे। यही भारतीय संविधान का बहुत बड़ा गुण है। ग्रेनविल ऑस्टिन के शब्दों में, "भारतीय संविधान के निर्माण में परिवर्तन के साथ चयन की कला को अपनाया गया हैं।"

8. ऐसा क्यों कहा जाता है कि भारतीय संविधान को बनाने की प्रक्रिया प्रतिनिधिमूलक नहीं थी? क्या इस कारण हमारा संविधान प्रतिनिध्यात्मक नहीं रह जाता? अपने उत्तर का कारण बताएँ।
उत्तर- भारतीय संविधान की आलोचना प्रायः इस आधार पर भी की जाती है कि यह प्रतिनिध्यात्मक नहीं है, यद्पि इसका निर्माण एक ऐसी संविधान सभा द्वारा किया गया है जिसके प्रतिनिधि जनता द्वारा चुने हुए नहीं थे, क्योंकि 1946 में गठित इस संविधान सभा के सदस्य परोक्ष रूप से राज्य विधान मंडलों द्वारा निर्वाचित किए गए थे। संविधान सभा के कुल 389 सदस्यों में से 296 ब्रिटिश प्रांतों के प्रतिनिधि, 93 देशी रियासतों के प्रतिनिधि और चार कमिश्नर क्षेत्रों के प्रतिनिधि थे। माउंटबेटन योजना के आधार पर 3 जून, 1947 को भारत का विभाजन होने के बाद इसका पुनर्गठन किया गया। पुनर्गठित संविधान सभा के सदस्यों की संख्या 324 नियत की गई। भिन्न-भिन्न प्रांतों एवं देशी रियासतों के प्रतिनिधियों का चुनाव अप्रत्यक्ष रूप से विधान सभा के सदस्यों द्वारा किया गया। 31 दिसंबर, 1947 को पुनर्गठित संविधान सभा के सदस्यों की कुल संख्या 299 थी। संविधान पर हस्ताक्षर करने वाले सदस्यों की संख्या 284 थी। लेकिन संविधान निर्माण काफी प्रक्रिया का गहन विश्लेषण करने पर यह बात निराधार साबित होती है। क्योंकि संविधान के हर प्रावधान पर संविधान सभा में गहन वाद-विवाद, तर्क-वितर्क और व्यापक विचार-विमर्श हुआ और तब जाकर उसे अंतिम रूप से स्वीकार किया गया। प्रायः यह कहा जाता है कि भारतीय संविधान को लोकप्रिय स्वीकृति प्राप्त नहीं थी। क्योंकि न तो इसका निर्माण करने वाली संविधान सभा के सदस्य ही प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित थे और न ही इसे जनमत संग्रह द्वारा अनुसमर्थित कराया गया था। परंतु सच्चाई यह है कि जिन परिस्थितियों में संविधान सभा का निर्माण किया गया, उनमें वयस्क मताधिकार के आधार पर इस प्रकार की संविधान सभा का निर्माण संभव नहीं था। यदि जनमत-संग्रह भी करवाया जाता तब भी संविधान के स्वरूप में विशेष परिवर्तन नहीं होना था। इस तथ्य की पुष्टि 1952 में हुए आम चुनाव से भी होती है। क्योंकि इस चुनाव में संविधान सभा के अधिकांश सदस्यों ने भाग लिया और संविधान का स्वरूप चुनाव का एक प्रमुख मुद्दा था। ये सदस्य अच्छे बहुमत से चुनाव में विजयी रहे। निष्कर्ष रूप में यह कहना गलत होगा कि हमारा संविधान प्रतिनिध्यात्मक नहीं है।

9. भारतीय संविधान की एक सीमा यह है कि इसमें लैगिक न्याय पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है। आप इस आरोप की पुष्टि में कौन-सा प्रमाण देंगे। यदि आज आप संविधान लिख रहे होते तो इस कमी को दूर करने के लिए उपाय के रूप में किन प्रावधानों की सिफारिश करते?
उत्तर- भारत का संविधान विश्व का अनूठा, विस्तृत संविधान है। इसमें समाज तथा सरकार के अनेक अंगों की शक्तियों व अधिकारों की भिन्न-भिन्न व्याख्या की गई है।इसके बावजूद भी भारतीय संविधान दोषरहित नहीं माना जा सकता। यह एक संपूर्ण प्रलेखन ही माना जा सकता है। इसमें सबसे बड़ी त्रुटि लैंगिक न्याय-विशेषतया परिवार की संपति में बेटी तथा बेटा के साथ भेदभाव है। परिवार की संपत्ति में स्त्री और बच्चों के साथ भी भेदभाव किया जाता है। समान कार्य के लिए स्त्री तथा पुरुषों को समान वेतन नहीं दिया जाता है। ये व्यक्ति के मूल सामाजिक-आर्थिक अधिकार हैं। इन्हें मौलिक अधिकारों की श्रेणी में रखा जाना चाहिए। परंतु संविधान की सबसे बड़ी त्रुटि यह है कि इन अधिकारों को राज्य के नीति-निर्देशक तत्त्वों में शामिल किया गया है जिसे न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती, जबकि मौलिक अधिकार न्यायालय में प्रवर्तनीय हैं। यदि इन अधिकारों को मौलिक अधिकारों की श्रेणी में रखा जाता तो उन्हें न्यायालय में चुनौती दी जा सकती थी। नीति-निर्देशक तत्त्वों के लिए राज्य केवल प्रयत्न्न करेगा। भारतीय संविधान की सीमाओं में एक दोष यह भी है की आज तक महिलाओं को संसद या विधान मंडल में एक-तिहाई आरक्षण नहीं दिया गया है। यदि आज की बदलती परिस्थितियों में संविधान लिखा जाता तो निश्चित रूप से इन त्रुटियों को दूर करने के लिए प्रावधान किए जाते। विभिन्न सामाजिक-आर्थिक अधिकारों जिनसे व्यक्ति और समाज का विकास प्रत्यक्षतः जुड़ा होता है उन्हें मौलिक अधिकारों की श्रेणी में रखा जाता है।

10. क्या आप इस कथन से सहमत हैं कि-'एक गरीब और विकासशील देश में कुछ एक बुनियादी सामाजिक-आर्थिक अधिकार मौलिक अधिकारों की केंद्रीय विशेषता के रूप में दर्ज करने के बजाए राज्य की नीति-निर्देशक तत्त्वों वाले खंड में क्यों रख दिए गए-यह स्पष्ट नहीं है।' आपके जानते सामाजिक-आर्थिक अधिकारो को नीति–निर्देशक तत्त्व वाले खंड में रखने के क्या कारण रहे होंगे?
उत्तर- नीति-निर्देशक तत्त्व भारतीय संविधान की एक प्रमुख विशेषता मानी जाती है। इसके माध्यम से भारत में लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना का प्रावधान किया गया। विश्व में एकमात्र आयरलैंड का संविधान ही ऐसा संविधान है जिसमें राज्य के नीति-निर्देशक तत्त्व विद्यमान हैं। जनता की सुख-सुविधाओं के विकास राज्य का महत्त्वपूर्ण कार्य है। इस उद्देश्य से राज्यों के समक्ष ऐसे सामाजिक-आर्थिक लक्ष्य प्रस्तुत है जिन तक पहुँचकर भारत को एक कल्याणकारी राज्य बनाना है। ये तत्त्व वास्तव में राज्य के नैतिक कर्तव्य हैं। शासन के तत्त्वों में ये मूलभूत हैं। यह सर्वाविदित है कि नीति-निर्देशक तत्त्वों का कोई वैधानिक आधार नहीं है, फिर भी ये शासन संचालन के आधारभूत सिद्धांत हैं। इसकी स्थिति यह है कि इसका पालन राज्यों की इच्छा पर निर्भर करता है। आवश्यक प्रश्न यह है कि इतने महत्त्व के प्रावधान होते हुए भी संविधान निर्माताओं के माध्यम से इन्हें वैधानिक आधार न देना तथा इन्हें राज्यों की कृपा पर छोड़ देना कुछ व्यवहारिक नहीं कहा जा सकता है, पर उल्लेखनीय तथ्य यह है कि जब भारत आज़ाद हुआ था तो उस समय इसकी आर्थिक स्थिति इतनी कमजोर थी कि इन निर्देशक तत्त्वों का पालन करने की बाध्यता होने पर आर्थिक सकट उत्पन्न हो सकता था। इससे अन्य आर्थिक-सामाजिक तथा राजनीतिक समस्याएँ खड़ी हो सकती थीं। तत्कालीन स्थिति की वास्तविकता को देखते हुए नीति-निर्देशक तत्त्वों के पालन को राज्य की इच्छा पर छोड़ दिया गया ताकि राज्यों पर किसी भी प्रकार का अतिरिक्त भार न पड़े।