अंतरा - सूरदास - पुनरावृति नोट्स

 CBSE कक्षा 11 हिंदी (ऐच्छिक)

अंतरा काव्य खण्ड
पाठ-2 सूरदास
पुनरावृत्ति नोट्स


कवि का सामान्य परिचय-

  • अधिकांश साहित्यकारों का मत है। कि उनका जन्म आगरा और मथुरा के बीच में रूनकता नामक गाँव में हुआ था। वह साहित्य आकाश के एक चमकते नक्षत्र है।

रचनाएँ- सूरदास के काव्य ग्रन्थ-

  1. सूरसागर
  2. सूरसारावली
  3. साहित्य लहरी

काव्यगत विशेषताएँ-

  • सूरदास वात्सल्य, प्रेम और सौन्दर्य के अमर कवि हैं।
  • काव्य में माधुर्यगुण, स्वाभावकिता तथा सजीवता विद्यमान है।
  • सूरदास की काव्यभाषा ब्रजभाषा है। सूर की भाषा में माधुर्य, लालित्य और नाद सौन्दर्य का मिश्रण है।
  • तुकात्मकता तथा लय के कारण संगीतात्मकता का समावेश है।
  • सूरदास के पदों में अनुप्रास, रुपक, श्लेष आदि का सहज प्रयोग है। काव्य सरस है। भावानुरूप शब्द चयन है।

सूर के पद–1
पद-1. खेलन में को .................. करि नंद-दुहैया।

प्रसंग- कविः सूरदास कविता: पद
संदर्भ-

  • इस पद में कवि ने भगवान श्री कृष्ण की खेल में हार हो जाने को बड़े ही स्वाभाविक रूप में चित्रित किया है। श्रीदामा से हार जाने पर भी श्रीकृष्ण हार स्वीकार नहीं करते और रूठकर एक ओर बैठ जाते हैं। पुनः खेलने का मन होने पर वे नंदबाबा की दुहाई देकर श्रीदामा की दाँव देने के लिए तैयार हो जाते हैं। श्रीकृष्ण की बाल सुलभ खीझ का व बाल लीला का सहज स्वाभाविक वर्णन बड़े सुंदर ढंग से चित्रित किया गया है।

व्याख्या-

  • श्रीकृष्ण और श्रीदामा खेल रहे हैं, जिसमें श्रीकृष्ण हार जाते हैं। हारने पर भी वे श्रीदामा की दाँव देने को तैयार नहीं होते वरन् श्रीदामा पर क्रोधित होने लगते हैं। श्रीदामा तथा अन्य चित्र कृष्ण से कहते हैं कि तुम हम पर इतना क्रोध क्यों दिखा रहे हो। खेल में कोई छोटा-बड़ा नहीं होता, सभी बराबर होता है। श्रीदामा कृष्ण से कहते हैं न तो जाति में तुम हमसे बड़े हो, न ही हम तुम्हारी शरण में रहते हैं जो तुम इतनी ऐंठ (अकड़) दिखा रहे हो। हाँ, तुम्हारे पास हमसे कुछ गाएँ अधिक हैं जिससे तुम इतना अधिकार जता रहे हो। खेल में रूठने वाले के साथ कोई खेलना पसंद नहीं करेगा-ऐसा कहकर सभी ग्वाल-बाल (मित्र) इधर-उधर बैठ जाते हैं। हालांकि श्रीकृष्ण भीतर से (मन से) खेलना चाहते हैं पर वे श्रीदामा पर ही एहसान रखते हुए कहते हैं कि देखों में दोबारा खेल रहा हूँ। वे नंद बाबा की दुहाई देते हुए श्रीदामा की दाँव (बाजी) देने को तैयार हो जाते हें।

विशेष (कला पक्ष)-

  1. बृजभाषा का प्रयोग किया गया है। कृष्ण की बाल लीलाओं का सहज एवं स्वाभाविक वर्णन है।
  2. पद में बाल मनोविज्ञान (खेलन में रुठना) का सुंदर चित्रण किया गया है।
  3. पद में गेयता एवं तुकात्मकता है।
  4. सखा भाव भक्ति का वर्णन है।
  5. को काको, हरि हारे, दावं दियो आदि में अनुप्रास अलंकार है।
  6. दुहाई देना-मुहावरे का प्रयोग किया गया है।
  7. वात्सल्य रस है।
  8. छंद पद है।
  9. माधुर्यगुण है।

पद-2. मुरली तऊ गुपलहि .................... सीस डुलावति।

प्रसंग- कवि : सूरदास कविता : पद
संदर्भ-

  • प्रस्तुत पद में श्रीकृष्ण की बाँसुरी के प्रति गोपियों का सौतन का भाव प्रकट हुआ है। श्रीकृष्ण के प्रति अनन्य प्रेम होने के कारण गोपियाँ मुरली (बाँसुरी) के प्रति ईर्ष्या का भाव रखती है। उनका कहना है कि मुरली श्रीकृष्ण को जैसे चाहती है वैसे नचाती है। वह उनको एक पाँव पर खड़ा रहने को बाध्य कर देती है, अपनी हर आज्ञा का पालन करवाती है फिर भी श्रीकृष्ण पूरी तरह से मुरली के अधीन है।

व्याख्या-

  • एक सखी दूसरी सखी से कहती है कि मुरली श्रीकृष्ण को इतना परेशान करती है तो भी उन्हें बाँसुरी अत्यधिक प्रिय है। बाँसुरी श्रीकृष्ण को नाना प्रकार से नचाती है, वह उनको एक पाँव पर खड़ा रहने को बाध्य कर देती है तथा उन पर अपना पूर्ण अधिकार जताती है (मुरली बजाते समय श्रीकृष्ण की त्रिभंगी मुद्रा) । श्रीकृष्ण का शरीर अत्यंत कोमल है फिर भी मुरली उनसे अपनी आज्ञा का पालन करवाती है। उसकी आज्ञा का पालन करते-करते उनकी कमर तक टेढ़ी हो जाती है। यह मुरली चतुर कृष्ण को भी अपना कृतज्ञ बना देती है। गोवर्धन पर्वत को उठाने वाले श्रीकृष्ण की गर्दन तक को ये मुरली झुका देती है। मुरली स्वयं तो उनके अधर (होंठ) रूपी शैय्या पर लेटी रहती है और उनके हाथों से अपने पैर दबवाती है अर्थात् श्रीकृष्ण बाँसुरी के छिद्रों पर हाथ फिराते हैं। मुरली बजाते-बजाते श्रीकृष्ण की भृकुटियाँ टेढ़ी हो जाती है और नाक के नथुने फूल जाते हैं इस मुद्रा को देखकर गोपियों को लगता है कि ये बाँसुरी उन पर क्रोध कर रही है। ये सब मुरली के कारण ही हो रहा है। सूरदास जी कहते हैं कि गोपियों को लगता है कि ये मुरली श्रीकृष्ण को क्षणभर में प्रसन्न कर लेती हैं और कृष्ण अपने पूरे शरीर को डुलाने लगते हैं अर्थात् आनंद में झूमने लगते हैं।

विशेष (कला पक्ष)-

  1. बृजभाषा के साथ आंचलिक शब्दों का प्रयोग किया गया है यथा-सुजान, कनौड़े, पौढ़ि, पलुरावति आदि।
  2. नाच नचावति, सीस झुलावति आदि मुहावरों का प्रयोग देखते ही बनता है।
  3. बाँसुरी बजाते हुए श्रीकृष्ण की त्रिभंगी मुद्रा का आकर्षक वर्णन है।
  4. श्लेष (गुपालहिं, गिरिधर), रूपक (अधर–सज्जा, कर–पल्लव), अनुप्रास (सुनरी सखी, ‘नंदलालहि’ नाना, नार नवावति, नैन नासा) जैसे अलंकारों का सफल प्रयोग हुआ है।
  5. शृंगाररस के वियोग पक्ष का वर्णन है।
  6. माधुर्य गुण है।
  7. छंद पद है।