लघु व्यवसाय-पुनरावृति नोट्स

                                                                            CBSE कक्षा 11 व्यवसाय अध्ययन

पाठ-8 लघु व्यवसाय
पुनरावृति नोट्स


एक व्यवसाय जिसका संचालन छोटे पैमाने पर किया जाता है जिसमें कम पूंजी, कम श्रम और कम मशीनों का प्रयोग किया जाता है। उसे छोटा या लघु व्यवसाय कहा जाता है। वस्तुओं का उत्पादन छोटे पैमाने पर होता है। इसका प्रबंध एवं संचालन व्यवसाय के स्वामी द्वारा होता है। भारत में लघुव्यवसाय में ग्रामीण और लघु उद्यम में परम्परागत - हैंडलूम, हस्तशिल्प, खादी एवं ग्रामीण उद्योग तथा आधुनिक लघु उद्योगों में, लघु पैमाने के उद्योग व पावर लूम आदि शामिल हैं।
MSMED Act 2006 के अनुसार, लघुस्तरीय उपक्रम कर अभिप्राय उस उपक्रम से है जहां प्लांट व मशीनरी में विनियोग 25 लाख रुपये से अधिक हो लेकिन 5 करोड़ रुपये से अधिक न हो |
व्यवसाय के आकार का मापन करने के लिए कई मापदण्डों का प्रयोग किया जाता है जैसे व्यवसाय में लगे लोगों की संख्या उसमें पूंजी निवेश उत्पादन की मात्रा एवं मूल्य, बिजली का उपभोग। भारत सरकार ने लघु व्यवसाय को परिभाषित करने के लिए संयंत्र एवं मशीनरी में निवेश को आधार बनाते हुए इसे निम्न भागों में बांटा है:

क्रम संख्याउद्योगों के प्रकारपूजी सीमाविशेषताएं
1.लघु पैमाने के उद्योगएक करोड़विशिष्ट उत्पादों के लिए 5 करोड़ तक ( 71 उत्पादों पर)
2.सहायक लघु उद्योग इकाईएक करोड़अपनी मूल इकाई को 50 प्रतिशत उत्पादन देती हे
3.निर्यात प्रधान इकाईएक करोड़अपने उत्पादन का 50 प्रतिशत
से अधिक निर्यात करती है और 25 प्रतिशत माल घरेलू बाजार में बेच सकती है।
4.अतिलघु औधोगिक इकाई25 लाखप्लांट एवं मशीनरी में 25 लाख रूपये से ज्यादा निवेश न हो
5.महिला उद्यमऊपर में से कोई भींस्वामित्व एवं प्रबन्ध महिलाओं द्वारा एवं 51 प्रतिशत से ज्यादा पूंजी भी महिला की हो।
6.सूक्ष्म व्यावसायिक उद्यमएक लाखप्लांट एवं मशीनरी में 1 लाख रुपये से ज्यादा निवेश न हो।
7.ग्रामीण उद्योगवेश 50,000/- प्रति श्रमिक से ज्यादा न हो |ये उद्यम ग्रामीण क्षेत्रों में स्थापित  होते है। बिना पावर के उत्पादन।
8.कुटीर उद्योगपूजी निवेश का मापदण्ड नहीं।ज्यादातर श्रमिक परिवार के सदस्य होते हैं, कम पूंजी एवम् मशीनों का प्रयोग
9.सूक्ष्म व्यवसायिक उद्यम25 लाख 

भारत के सामाजिक एवं आर्थिक विकास में लघु उद्योगों की भूमिका

  1. रोजगार : कृषि के बाद लघु उद्योग सबसे ज्यादा रोजगार उपलब्ध कराता है। भारत में 95 प्रतिशत यूनिट लघु औद्योगिक इकाइयों की है। ये उपक्रम श्रम प्रधान होते हैं और भारतीय ग्रामीण क्षेत्र में श्रमिक प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है।
  2. उत्पादनों की विविधता : लघुस्तरीय उद्योगों द्वारा रेडीमेन्ट गारमेन्ट, स्टेशनरी, साबुन, चमड़े की वस्तुएं, रबर व प्लास्टिक का सामान आदि बहुत-सी वस्तुएं बनाई जाती है।
  3. निर्यात : भारत के कुल निर्यात का 45 प्रतिशत भाग लघु उद्योगों का है जिससे हमें विदेशीमुद्रा प्राप्त होती है। इससे भुगतान संतुलन की समस्या को हल करने में सहायता मिलती है।
  4. संतुलित क्षेत्रीय विकास : लघुस्तरीय उद्योग कहीं भी स्थापित किये जा सकते हैं क्योंकि इनमें स्थानीय संसाधनो, कम पूंजी एवं साधारण टेक्नोलाॅजी का प्रयोग किया जाता है।
  5. बड़े उद्योगों के पूरक : लघुस्तरीय उद्योग बड़े उद्योगों को विभिन्न प्रकार के उपकरण टूल्स आदि की पूर्ति करते हैं।
  6. उत्पादन की कम लागत : लघुस्तरीय उद्योग में बने हुए माल की लागत कम आती है 5 क्योंकि ये स्थानीय संसाधनों का प्रयोग करते हैं।
  7. शीघ्र निर्णय : संगठन का आकार छोटा होने के कारण ये शीघ्र एवं समय पर निर्णय ले सकते हैं। इन्हें अन्य लोगों से परामर्श करने की आवश्यकता नहीं होती।
  8. उद्यमशीलता का विकास : नौजवान युवक व महिलाओं को अपने व्यवसाय शुरू करने के अवसर लघु उद्योगों द्वारा प्रदान किये जाते हैं।

ग्रामीण भारत में लघु उद्योगों की भूमिका

  1. ग्रामीण क्षेत्र में रोजगार के अवसर पैदा करना : लघु एवं कुटीर उद्योग भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के अवसर उपलब्ध कराता है।
  2. आर्थिक दशा में सुधार : लघु पैमाने के उद्योगों द्वारा आय के विभिन्न स्रोत ग्रामीणों को प्राप्त होते हैं। इससे आर्थिक दशा में सुधार होता है एवं ग्रामीणों के जीवन स्तर में भी वृद्धि होती है।
  3. प्रवास को रोकना : ग्रामीण उद्योगों का विकास, ग्रामीण जनसंख्या का शहरी क्षेत्रों में प्रवास रोकता है क्योंकि उन्हें गांव में ही रोजगार प्राप्त हो जाता है।
  4. स्थानीय संसाधनों का प्रयोग : लघुस्तरीय उद्योग अपने उत्पादन में स्थानीय संसाधनों जैसे कॉपर लकड़ी व अन्य संसाधनों को प्रयोग करते हैं, जो कि वैसे बिना उपयोग के रह जाते हैं या बहुत कम उपयोग हो पाता है। इन प्राकृतिक स्थानीय संसाधनों का।
  5. आय का समान वितरण : लघुस्तरीय उद्योग एवं कुटीर उद्योग राष्ट्रीय आय के समान वितरण में भी योगदान करते हैं। जिससे राष्ट्रीय आय शहर में रहने वाले कुछ उद्योगपतियों के हाथों में ही नहीं रह जाती।
  6. संतुलित क्षेत्रीय विकास : ये उपक्रम प्रायः उत्पादन के स्थानीय स्रोतों पर आधारित होते हैं। इस प्रकार इनसे उद्योग एक ही स्थान पर केन्द्रित न होकर बिखर जाते हैं। इससे संतुलित क्षेत्रीय विकास संभव होता है।
  7. स्थानीय कारीगरों को अवसर : लघु व्यवसाय उन स्थानीय कारीगरों को अवसर प्रदान करने में सहायक होता है जिनमें विभिन्न क्षेत्रों में महारत हासिल है परन्तु अवसर के अभाव में उनका कौशल दुनिया के सामने नहीं अा पाता |

लघु पैमाने के उद्योगों की समस्याएं

  1. वित्त : लघु पैमाने के उद्योगों को कार्यशील पूंजी की कमी का सामना करना पड़ता है। इन्हें बैंकों से उचित दर पर ऋण लेने में कठिनाई का सामना करना पड़ता है।
  2. कच्चा माल एवं बिजली : वित्त एवं भंडारण सुविधाओं के अभाव में, लघु पैमाने के उद्योग कच्चा माल थोक मात्रा में खरीदने में असमर्थ होते हैं। बिजली की कमी एक अन्य कारक है जो संयंत्र की कुल क्षमता के उपयोग में बाधक बनता है।
  3. विपणन में कठिनाई : कोषो की कमी के कारण लघु पैमाने के उद्योग अपने उत्पादों के विज्ञापन और वितरण पर ज्यादा रकम खर्च नहीं कर पाते। ये मध्यस्थों पर निर्भर होते हैं जो इन का शोषण करते हैं।
  4. तकनीकी समस्या : पूंजी की कमी के कारण ये नई मशीन और तकनीकी का प्रयोग नहीं कर पाते हैं। पुरानी मशीनों का प्रयोग करते हैं। इसलिए इनकी उत्पादन की लागत बढ़ जाती है।
  5. प्रतियोगिता : ये उद्योग न केवल बड़े उद्योगों से प्रतियोगिता करते हैं बल्कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियों से भी प्रतियोगिता करते हैं। ये उदारीकरण, निजीकरण एवं भूमंडलीकरण के कारण हो रहा है।
  6. अन्य समस्याएं :
    1. प्रबन्धकीय कुशलता की कमी जो कि ग्रामीण इलाकों में पेशेवरों की गैर उपलब्धता की कारण हे |
    2. उत्पादित माल की मांग की कमी
    3. स्थानीय करों का भार
    4. श्रम सम्बंधी समस्याएं जो कुशल एवं निपुण कारीगरों की गैर उपलब्धता के कारण होती है
    5. निम्न उत्पाद गुणवत्ता

लघु पैमाने के उद्योगों तथा लघु व्यावसायिक इकाइयों को प्राप्त सरकारी सहायता / सरकार द्वारा उठाये गये कदम-

  1. संस्थागत सहायताएं
    1. राष्ट्रीय लघु उद्योग निगम (NSIC) : इसकी स्थापना 1955 में लघु उद्योगों की सहायता व तेजी से विकास के लिए भारत में की गई। उद्यमियों के सामने मुख्य बाधा मशीनरी व यंत्र खरीदने के लिए पर्याप्त पूंजी का अभाव था। पूंजी की कमी के कारण ही अनेक नए उद्यमी उद्यमिय अवसरों का लाभ उठाने से वंचित रह जाते थे। उद्यमियों की इस आवश्यकता को पूरा करने के लिए ही NSIC की स्थापना की गई।
      NSIC ने निम्नलिखित दो उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए लघु व्यवसायों के निष्पादन तथा साख श्रेणी (Performance and Credit Rating) की नई योजना लागू की गई :-
    • साख श्रेणी की आवश्यकता के बारे में लघु उद्योगों को जानकारी देना |
    • अच्छे वित्तीय रिकार्ड बनाए रखने के लिए लघु व्यवसायिक इकाईयों को प्रोत्साहित करना |
      इसके मुख्य कार्य निम्नलिखित हैं:-
    • यह किराया क्रम पद्धति के आधार पर लघु उद्योगों को कच्चा माल व मशीनें उपलब्ध कराता है।
    • यह लघु उद्योगों के माल को निर्यात करता है।
    • यह लघु उद्योगों को तकनीकी ज्ञान प्रदान करता है।
    • नवीनतम तकनीकी प्राप्त करने में मदद करना।
    • सलाहकार सेवाएं प्रदान करना।
    • पट्टे पर विभिन्न यंत्र उपलब्ध कराना।
    • औद्योगिक बस्तियों की स्थापना करना।
  2. जिला औद्योगिक केन्द्र (DIC)
    DIC की अवधारणा 1977 के दौरान आई, जब भारतीय सरकार ने 23 दिसम्बर, 1977 को नई औद्योगिक नीति की घोषणा की। DIC का मुख्य उद्देश्य सभी आवश्यक सेवाएं एक ही स्थान पर उपलब्ध करना है। DIC की स्थापना के लिए आवश्यक वित, संबंधित राज्य तथा केन्द्रीय सरकार द्वारा बराबर-बराबर उपलब्ध कराई जाती है।
    जिला औद्योगिक केन्द्र के कार्य :
    1. जिले में औद्योगिकरण के केन्द्र बिन्दु के रूप में कार्य करता है।
    2. लघुस्तरीय औद्योगिक इकाइयों की स्थापना के लिए प्रोजेक्ट व उद्यमियों की पहचान करना |
    3. लघुस्तरीय औद्योगिक इकाइयों को स्थायी पंजीकरण प्रमाण-पत्र जारी करना |
    4. लघुस्तरीय औद्योगिक इकाइयों को विपणन सहायता उपलब्ध कराना |
    5. उद्यमी तथा जिले के अग्रणी बैंक के बीच संबंध स्थापित करना।
    6. बिजली बोर्ड, जल आपूर्ति बोर्ड, आदि से लाइसेंस लेने में उद्यमियों की मदद करना |
    7. लघुस्तरीय औद्योगिक इकाइयों को ऋण, कार्य शैड व कच्चा माल उपलब्ध करवाना |
    8. शिक्षित बेरोजगारों के लिए सरकारी सहायता प्राप्त स्कीमों को लागू करना |
    9. मशीनरी व कच्चा माल आयात के लिए उद्यमियों को सहायता प्रदान करना |

अन्य पहाड़ी, पिछड़े तथा ग्रामीण क्षेत्रों में सरकारी सहायता

  1. विद्युत आपूर्ति : कुछ राज्य इन क्षेत्रों को आधी दरों पर विद्युत आपूर्ति करते हैं।
  2. टैक्स छूट : इन क्षेत्रों में उद्योग स्थापित करने से पांच वर्ष तक टैक्स छूट मिल जाती है।
  3. भूमि तथा जल : रियायती दरों पर भूमि की उपलब्धता व जल की आपूर्ति न लाभ न हानि के आधार पर की जाती है।
  4. सुरक्षात्म उपाय : सरकार ने लघुस्तरीय उद्योगों के लिए 800 प्रकार के उत्पाद सुरक्षित रखे हैं तथा कच्चे माल व मशीनों की स्थापना में सहायता दी जाएगी।
  5. वित्तीय सहायता : पूंजीगत संपत्ति के निर्माण में 10-15 प्रतिशत का आर्थिक सहायता। रियायती दरों पर लोन उपलब्ध कराना।
  6. बिक्री कर : सभी संघ शासित प्रदेशों में लघु उद्योगों को बिक्री कर से मुक्त रखा गया है जबकि कुछ राज्यों में 5 वर्ष के लिए रियायत दी गई है।
  7. विपणन सहायता : सरकार ने इनकी विपणन समस्याओं को हल करने के लिए सूचनाओं में सुधार एवं सामान के विक्रय की गारंटी देने जैसे उपाय किए।
  8. चुंगीकर : ज्यादातर राज्यों ने चुंगीकर खत्म कर इन उद्योगों की सहायता करने का प्रयास किया है। मूल्य आधारित टैक्स (VAT) या अन्य स्थानीय करों से भी कुछ समय के लिए छूट मिलती है।