संविधान का निर्माण एक नए युग की शुरूआत-प्रश्न-उत्तर

                                                                CBSE Class 12 इतिहास

एनसीईआरटी प्रश्न-उत्तर
पाठ - 15 संविधान का निर्माण
एक नए युग की शुरूआत


उत्तर दीजिए (लगभग 100 से 150 शब्दों में)

1. 'उद्देश्य प्रस्ताव' में किन आदर्शों पर ज़ोर दिया गया था?

उत्तर- 'उद्देश्य प्रस्ताव' में आज़ाद भारत के संविधान के मूल आदर्शों की रूपरेखा पेश की गई थी। इस प्रस्ताव के द्वारा उस फ्रेमवर्क को प्रस्तुत किया गया था, जिसके अनुसार संविधान निर्माण के कार्य को आगे जारी रखना था। यह उद्देश्य प्रस्ताव जवाहरलाल नेहरू ने 13 दिसम्बर, 1946 को संविधान सभा के सामने प्रस्तुत किया। इस प्रस्ताव में भारत की एक स्वतंत्र, सम्प्रभु गणराज्य घोषित किया गया था। नागरिकों को न्याय, समानता एवं स्वतंत्रता का आश्वासन दिया गया था और यह वचन दिया गया था कि अल्पसंख्यकों, पिछड़े एवं जनजातीय क्षेत्रों और दमित एवं अन्य पिछड़े वर्गों के लिए पटप्ति रक्षात्मक प्रबंध किए जाएँगे।


2. विभिन्न समूह 'अल्पसंख्यक' शब्द को किस तरह परिभाषित कर रहे थे?

उत्तर- विभिन्न समूह 'अल्पसख्यक' शब्द को निम्नलिखित तरह से परिभाषित कर रहे थे-

  1. कुछ लोग अल्पसंख्यक मुसलमानों को ही कह रहे थे। उनका तर्क था कि मुसलमानों के धर्म, रीति-रिवाज़ आदि हिंदुओं से बिलकुल अलग हैं और वे संख्या में हिंदुओं से कम हैं।
  2. कुछ लोग दलित वर्ग के लोगों को हिंदुओं से अलग करके देख रहे थे और वह उनके लिए अधिक स्थानों का आरक्षण चाहते थे।
  3. कुछ लोग आदिवासियों को मैदानी लोगों से अलग देखकर आदिवासियों को अलग आरक्षण देना चाहते थे।
  4. लीग के कुछ सदस्य सिख धर्म के अनुयायियों को अल्पसंख्यक का दर्ज़ा देने और अल्पसंख्यक की सुविधाएँ देने की माँग करते थे।
  5. मद्रास के बी. पोकर बहादुर ने अगस्त, 1947 में संविधान सभा में अल्पसंख्यकों को पृथक् निर्वाचिका देने की बजाय संयुक्त निर्वाचिका की वकालत की और कहा-"उसी के भीतर एक ऐसा राजनीतिक ढाँचा बनाया जाए जिसके अंतर्गत अल्पसंख्यक भी जी सकें और अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक समुदायों के बीच मतभेद कम हो।"
  6. गोविंद वल्लभ पंत ने संविधान में अल्पसंख्त्रकों के लिए अलग निर्वाचिका का विरोध करते हुए कहा कि-"मेरा मानना है कि पृथक् निर्वाचिका अल्पसंख्यकों के लिए आत्मघातक साबित होगी।" उन्होंनेफिर  कहा-"निष्ठावान नागरिक बनने के लिए सभी लोगों को समुदाय और खुद को बीच में रखकर सोचने की आदत छोड़नी होगी।"
  7. एन० जी० रंगा ने जवाहर लाल नेहरू द्वारा पेश , उद्देश्य प्रस्ताव का स्वागत करते हुए कहा कि अल्पसंख्यकों के बारे में बहुत बातें हो रही हैं। अल्पसंख्यक कौन हैं? तथाकथित पाकिस्तानी प्रांतों में रहने वाले हिंदू, सिख और यहाँ तक मुसलमान भी अल्पसंख्यक नहीं हैं। जी नहीं, असली अल्पसंख्यक तो इस देश की जनता है। यह जनता इतनी दबी-कुचली और इतनी उत्पीड़ित है कि अभी तक साधारण नागरिक के अधिकारों का लाभ भी नहीं उठा पा रही है।

3. प्रांतों के लिए ज़्यादा शक्तियों के पक्ष में क्या तर्क दिए गए?

उत्तर- केंद्र सरकार एवं राज्य सरकारों अर्थात् प्रांतों के अधिकारों के प्रश्न पर भी संविधान सभा में बहुत बहस हुई। संविधान सभा के कुछ सदस्य शक्तिशाली केन्द्र के समर्थक थे, जबकि कुछ अन्य सदस्य प्रांतों के लिए अधिक शक्तियों के पक्ष में थे। ऐसे सदस्यों द्वारा प्रांतों को अधिक शक्तियाँ दिए जाने के पक्ष में अनेक आवश्यक तर्क दिए गए। संविधान के मसंविदे में तीन सूचियों-केंद्रीय सूची, राज्य सूची और समवर्ती सूची-को बनाया गया था। केन्द्रीय सूची के विषय केवल केंद्र सरकार और राज्य सूची के विषय केवल राज्य सरकारों के अधीन होने थे। समवर्ती सूची के विषय केंद्र और राज्य दोनों की संयुक्त जिम्मेदारी थे। उल्लेखनीय है कि केन्द्रीय सूची में बहुत अधिक विषयों को रखा गया था। मद्रास के सदस्य के० सन्थनम ने राज्य के अधिकारों की पुरजोर वकालत करते थे। उनका तर्क था कि आवश्यकता से अधिक जिम्मेदारियाँ होने पर केन्द्र प्रभावशाली रूप से कार्य करने में समर्थ नहीं हो पाएगा। केंद्र के कुछ दायित्वों में कमी करके उन्हें राज्य सरकारों की सौंप देने से अधिक शक्तिशाली केंद्र का निर्माण किया जा सकता था। सन्थनम ने साफ़ कहा कि यह दलील देना कि "संपूर्ण शक्तियाँ केंद्र को सौंप देने से वह शक्तिशाली हो जाएगा" केवल एक गलतफहमी है।

सन्थनम का तर्क था कि शक्तियों का विद्यमान वितरण विशेष रूप से राजकोषीय प्रावधान, प्रांतों को पंगु बनाने वाला था। इसके अनुसार भू-राजस्व के अतिरिक्त अधिकांश कर केंद्र सरकार के अधिकार में थे। इस प्रकार, धन के अभाव में राज्यों में विकास परियोजनाओं को कार्यान्वित करना संभव नहीं था। शक्तियों के प्रस्तावित वितरण के विषय में सन्थनम ने स्पष्ट शब्दों में कहा, "मैं ऐसा संविधान नहीं चाहता। जिसमें इकाई की आकर केंद्र से यह कहना पड़े कि 'मैं अपने लोगों की शिक्षा की व्यवस्था नहीं कर सकता। मैं उन्हें साफ-सफाई नहीं दे सकता, मुझे सड़कों में सुधार और उद्योगों की स्थापना के लिए खैरात दे दीजिए।"

प्रांतों को अधिक शक्तियाँ दिए जाने के पक्ष में के० सन्थनम का तर्क था कि केन्द्रीय नियंत्रण में बहुत अधिक विषयों को रखे जाने तथा बिना सोचे-समझे शक्तियों के प्रस्तावित वितरण को लागू किए जाने के परिणाम बहुत हानिकारक होंगे, इसके परिणामस्वरूप कुछ ही वर्षों में सारे प्रांत 'केन्द्र के विरुद्ध विद्रोह' पर उतारु हो जाएँगे।

मैसूर के सर ए० रामास्वामी मुदलियार भी प्रांतों को अधिक शक्तियाँ दिए जाने के पक्ष में थे। उनका विचार था कि संविधान में शक्तियों के अत्यधिक केंद्रीयकरण के परिणामस्वरूप 'केंद्र बिखर जाएगा'। ऐसे सदस्यों ने समवर्ती सूची एवं केंद्रीय सूची में कम-से-कम विषयों को रखें जाने पर बल दिया।


4. महात्मा गाँधी को ऐसा क्यों लगता था कि हिंदुस्तानी राष्ट्रीय भाषा होनी चाहिए?

उत्तर- महात्मा गाँधी को ऐसा इसलिए लगता था, क्योंकि उनका मानना था कि हिंदुस्तानी भाषा में हिंदी के साथ-साथ उर्दू भी शामिल है और ये दो भाषाएँ मिलकर हिंदुस्तानी भाषा बनी है तथा यह हिंदू और मुसलमान दोनों के द्वारा प्रयोग में लाई जाती है। दोनों को बोलने वालों की संख्या अन्य सभी भाषाओं की तुलना में बहुत अधिक हैं। यह हिंदू और मुसलमानों के साथ-साथ उत्तर और दक्षिण में भी ज्यादा प्रयोग में लाई जाती है।राष्ट्रीय आंदोलन (1930) के दौरान कांग्रेस ने भी यह मान लिया था कि भारत की राष्ट्रभाषा हिंदुस्तानी ही बन सकती है।

गाँधी जी साम्प्रदायिकता के भी खिलाफ थे। वह हिंदुस्तानी भाषा को देश में हिंदू और मुसलमानों में सद्भावना और प्रेम बढ़ाने वाली भाषा मानते थे। वह मानते थे-"इससे दोनों सम्प्रदायों के लोगों में परस्पर मेल-मिलाप, प्रेम, सद्भावना, ज्ञान का आदान-प्रदान बढेगा और यही भाषा देश की एकता को मज़बूत करने में अधिक आसानी से महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं।"


निम्नलिखित पर एक लघु निबंध लिखिए (लगभग 250 से 300 शब्दों में)

5. वे कौन-सी ऐतिहासिक ताकतें थीं जिन्होंने संविधान का स्वरूप तय किया?

उत्तर- संविधान सभा का स्वरूप निर्धारित करने में अनेक ऐतिहासिक शक्तियों ने योगदान दिया-

  1. संविधान सभा का गठन, कैबिनेट मिशन योजना के अनुसार अक्टूबर 1946 ई० को किया गया था। इसके सदस्यों का चुनाव 1946 ई० के प्रांतीय चुनावों के आधार पर किया गया था। संविधान सभा में ब्रिटिश भारतीय प्रांतों द्वारा भेजे गए सदस्यों के साथ-साथ रियासतों के प्रतिनिधियों को भी सम्मिलत किया गया था। मुस्लिम लीग ने संविधान सभा की प्रारंभिक बैठकों में (अर्थात् 15 अगस्त, 1947 ई० से पहले) भाग नहीं लिया। इस प्रकार संविधान सभा पर विशेष रूप से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सदस्यों का प्रभाव था। इसके 82 प्रतिशत सदस्य कांग्रेस के भी सदस्य थे।
  2. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सदस्य अगल-अलग विचारधाराओं का प्रतिनिधित्व करते थे। यदि उनमें से कुछ 'निरीश्वरवादी' एवं 'धर्मनिरपेक्ष' थे, तो कुछ, जैसा कि ऐ एंग्लो-इंडियन सदस्य फ्रेंक एंथनी का विचार था, "तकनीकी रूप से कांग्रेस के, किन्तु आध्यात्मिक स्तर पर आर०एस०एस० तथा हिंन्दू महासभा के सदस्य थे।"  
  3.  विभिन्न धर्मों एवं जातियों को प्रतिनिधित्व देने के उद्देश्य से संविधान सभा में कुछ स्वतंत्र सदस्यों एवं महिलाओं को भी नामांकित किया गया था। इन सभीं नें संविधान के स्वरूप निर्धारण को अनेक रूपों में प्रभावित किया।
  4. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा विधि-विशेषज्ञों को संविधान सभा में स्थान दिए जाने पर विशेष ध्यान दिया गया था। सुप्रसिद्ध विधिवेत्ता एवं अर्थशास्त्री बी०आर० अम्बेडकर संविधान सभा के सर्वाधिक प्रभावशाली सदस्यों में से एक थे। उन्होंने संविधान की प्रारूप समिति के अध्यक्ष के रूप में सराहनीय कार्य किया।  
  5. संविधान का स्वरूप निर्धारित करने में जनमत का भी महत्त्वपूर्ण स्थान था। संविधान सभा में होने वाली चर्चाओं पर जनमत का भी पर्याप्त प्रभाव होता था। जनसामान्य के सुझावों को भी आमंत्रित किया जाता था, जिसके परिणामस्वरूप सामूहिक सहभागिता का भाव उत्पन्न होता था। जनमत के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए जवाहरलाल नेहरू में कहा था, "सरकारें कागज़ों से नहीं बनतीं। सरकार जनता की इच्छा की अभिव्यक्ति होती है। हम यहाँ इसलिए जुटे हैं, क्योंकि हमारे पास जनता की ताकत है और हम उतनी दूर तक ही जाएँगे, जितनी दूर तक लोग हमें ले जाना चाहेंगे, फिर चाहे वे किसी भीं समुह अथवा पार्टी से संबधित क्यों न हों। इसलिए हमें भारतीय जनता की आकांक्षाओं एवं भावनाओं को हमेशा अपने जेहन में रखना चाहिए और उन्हें पूरा करने का प्रयास करना चाहिए।"
  6. प्रेस में होने वाली आलोचना एवं प्रत्यालोचना ने भी संविधान के स्वरूप निर्धारण में योगदान दिया चाहिए। इस प्रकार, प्रेस में होने वाली आलोचना एवं प्रत्यालोचना किसी भी विषय पर बनने वाली सहमति अथवा असहमति को व्यापक रूप से प्रभावित करती थी।
  7. संविधान सभा को मिलने वाले सैकड़ों सुझावों में से कुछ नमूनों को देखने से ही यह भली-भाँति स्पष्ट हो जाता है कि हमारे विधिनिर्माता परस्पर विरोधी हितों पर गहन विचार-विमर्श करने के बाद ही किसी निष्कर्ष पर पहुँचे थे। उदाहरण के लिए, ऑल इंडिया वर्णाश्रम स्वराज्य संघ (कलकत्ता) का आग्रह था कि संविधान का आधार 'प्राचीन हिन्दू कृतियों में उल्लिखित सिद्धांत' होने चाहिए। विशेष रूप से यह माँग की गई कि गौ-हत्या पर प्रतिबंध लगा दिया जाए तथा सभी बूचड़खानों को बंद कर दिया जाए तथाकथित निचली जातियों के समूहों ने "सवर्णों द्वारा दुर्व्यवहार" पर रोक लगाने तथा "विधायिका, सरकारी विभागों एवं स्थानीय निकायों आदि में जनसंख्या के आधार पर सीटों के आरक्षण की व्यवस्था" की माँग कीं।
  8. भाषायी अल्पसंख्धकों की माँग थी कि "मातृभाषा में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता" प्रदान की जाए तथा "भाषायी आधार पर प्रांतों का पुनर्गठन किया जाए।" इसी प्रकार धार्मिक अल्पसंख्यकों का आग्रह था कि उन्हें विशेष सुरक्षाएँ प्रदान की जाएँ। विजयानगरम् के जिला शिक्षा संघ एवं बम्बई के सेंट्रल ज्यूइश बोर्ड जैसे अनेक संगठनों द्वारा "विधायिका इत्यादि सहित सभी सार्वजनिक संस्थानों में पर्याप्त प्रतिनिधित्व" की माँग की गई। इस प्रकार संविधान के स्वरूप निर्धारण में अनेक ऐतिहासिक ताकतों ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया 

6. दमित समूहों की सुरक्षा के पक्ष में किए गए विभिन्न दावों पर चर्चा कीजिए।

उत्तर- दमित (दलित) समूहों की सुरक्षा के पक्ष में अनेक दावें प्रस्तुत किए गए। उल्लेखनीय है कि राष्ट्रीय आंदोलन के काल में बी०आर० अम्बेडर ने दलित जातियों के लिए पृथक् निर्वाचिकाओं की माँग की थी। किन्तु गाँधी जी ने इसका विरोध किया था, उनका मानना था कि ऐसा करने से ये समुदाय सदा के लिए शेष समाज से पृथक् हो जाएँगे।

दलित जातियों के कुछ सदस्यों का विचार था कि संरक्षण और बचाव के द्वारा 'अस्पृश्यों' (अछूतों) की समस्या का समाधान नहीं किया जा सकता था। जाति-आधारित समाज के कायदे-कानून एवं नैतिक मूल्य उनकी अपंगताओं के प्रमुख कारण थे। तथाकथित सवर्ण समाज उनकी सेवाओं एवं श्रम का तो प्रयोग करता है, किन्तु उनके साथ सामाजिक संबंध स्थापित करने से कतराता है। मद्रास की दक्षायणी वेलायुधान ने दलितों पर थोपी गई सामाजिक अक्षमताओं की हटाने पर बल दिया। उनके शब्दों में, "हमें सब प्रकार की सुरक्षाएँ नहीं चाहिए...। मैं यह नहीं मान सकती कि सात करोड़ हरिजनों को अल्पसंख्यक माना जा सकता है...। जो हम चाहते हैं वह यह है... हमारी सामाजिक अपंगताओं का फौरन खात्मा।"

मद्रास के सदस्य जे० नागप्पा का विचार था कि दलितों की समस्याओं का मूल कारण उन्हें समाज एवं राजनीति के हाशिए पर रखा जाना था। परिणामस्वरूप वे न तो शिक्षा प्राप्त कर सके और न ही शासन में भागीदारी। स्थिति को स्पष्ट करते हुए नागप्पा ने कहा, "हम सदा कष्ट उठाते रहें हैं, किन्तु अब और कष्ट उठाने की तैयार नहीं हैं। हम अपनी जिम्मेदारियों को समझने लगें हैं। हमें मालूम है कि अपनी बात कैसे मनवानी हैं" मध्य प्रांत के श्री के०जे० खांडेलकर ने भी लगभग इसी तरह के विचार व्यक्त किए। सवर्ण बहुमतवाली सभा को संबंधित करते हुए उन्होंने कहा, "हमें हज़ारों वर्षों तक दबाया गया हैं। दबाया गया...। इस हद तक दबायीं गया कि हमारें दिमाग, हमारी देह काम नहीं करती और अब हमारा हृदय भी भाव-शून्य हो चुका है। न ही हम आगे बढ़ने के लायक रह गए हैं। यही हमारी स्थिति हैं।" विभाजन के परिणामस्वरूप होने वाली हिंसा और रक्तपात के कारण अंबेडकर ने पृथक् निर्वाचिका की माँग को छोड़ दिया था।

अंत में संविधान सभा द्वारा थे सुझाव दिए गए कि (1) अस्पृश्यता की उन्मूलित कर दिया जाए, (2) हिन्दू मंदिरों के द्वार बिना किसी भेदभाव के सभी जातियों के लिए खोल दिए जाए तथा (3) विधायिकाओं एवं सरकारी नौकरियों में निचली जातियों को आरक्षण प्रदान किया जाए। लोकतांत्रिक जनता ने इन प्रावधानों का स्वागत किया। यद्यपि अधिकांश लोग इसे समस्याओं का हल नहीं समझते थे। उनका विचार था कि सामजिक भेदभाव को समाप्त करने के लिए संवैधानिक कानून पास करने के साथ-साथ समाज की सोच की परिवर्तित करना भी नितांत आवश्यक हैं।


7. संविधान सभा के कुछ सदस्यों ने उस समय की राजनीतिक परिस्थिति और एक मज़बूत केंद्र सरकार की जरूरत के बीच क्या संबंध देखा?

उत्तर- संविधान सभा के कुछ सदस्य केन्द्र सरकार की अधिकाधिक शक्तिशाली देखना चाहते थे। ऐसे सदस्यों के विचारानुसार तत्कालीन राजनैतिक परिस्थिति में एक शक्तिशाली केंद्र सरकार की नितांत आवश्यकता थी।

बी०आर० अम्बेड़कर के मतानुसार एक मज़बूत केंद्र ही देश में शान्ति और सुव्यवस्था की स्थापना करने में समर्थ हो सकता था। उन्होंने घोषणा की कि वह "एक शक्तिशाली और एकीकृत केंद्र (सुनिए, सुनिए); 1935 के गवर्नमेंट एक्ट में हमने जो केंद्र बनाया था, उससे भी ज्यादा शक्तिशालीं केंद्र" चाहते हैं। केंद्र की शक्तियों में वृद्धि किए जाने के समर्थक सदस्यों का विचार था कि एक शक्तिशाली केंद्र ही सांप्रदायिक हिंसा को रोकने में समर्थ हो सकता था। गोपालस्वामी अय्यर प्रांतों की शक्तियों में वृद्धि किए जाने के स्थान पर केंद्र को ज्यादा शक्तिशाली देखना चाहते थे। उनका विचार था कि "केंद्र अधिक-से-अधिक मज़बूत होना चाहिए।" संयुक्त प्रांत (आधुनिक उत्तर प्रदेश) के एक सदस्य बालकृष्ण शर्मा ने भी एक शक्तिशाली केन्द्र की आवश्यकता पर बल दिया। उनकी दलील थी कि (1) देश के हित में योजना बनाने के लिए, (2) उपलब्ध आर्थिक संसाधनों को जुटाने के लिए, (3) उचित शासन व्यवस्था की स्थापना करने के लिए एवं (4) विदेशी आक्रमण से देश की रक्षा के लिए एक शक्तिशाली केन्द्र नितांत आवश्यक हैं। उल्लेखनीय है कि देश के विभाजन से पहले भारतीय राष्ट्रीय कांग्रस प्रांतों को पर्याप्त स्वायत्तता दिए जाने के पक्ष में थी। हमें याद रखना चाहिए कि कांग्रेस ने कुछ सीमा तक मुस्लिम लीग को भी यह विश्वास दिलाने का प्रयास किया था कि लीग की सरकार वाले प्रांतों में हस्तक्षेप नहीं किया जाएगा। परन्तु विभाजन के परिणामस्वरूप उत्पन्न हुई परिस्थितियों के कारण अधिकांश राष्ट्रवादियों की राय परिवर्तित हो चुकी थी। उनकी दलील थी कि विद्यमान परिस्थितियों में विकेंद्रीकृत संरचना के लिए पहले जैसे राजनैतिक दबाव न होने के कारण प्रांतों को अधिक शक्तियाँ दिए जाने की आवश्यकता नहीं थी।

औपनिवेशिक प्रशासकों द्वारा थोपी गई एकल व्यवस्था देश में पहले से ही अस्तित्व में थी। उस काल में घटित होनेवाली घटनाओं ने केंद्रीकरण को और अधिक प्रोत्साहित किया था। स्वतंत्रता प्राप्ति के तत्काल पश्चात् देश में व्याप्त अराजकता एवं अव्यवस्था पर अंकुश लगाने के लिए तथा देश के आर्थिक विकास की योजना बनाने के लिए शक्तिशाली केंद्र की आवश्यकता और अधिक महत्त्वपूर्ण बन गई थी। अतः संविधान सभा के अनेक सदस्य शक्तिशाली केंद्र की आवश्यकता पर बल दे रहे थे। यही कारण है कि भारतीय संविधान में एक शक्तिशाली केन्द्र की व्यवस्था की ओर स्पष्ट झुकाव दृष्टिगोचर होता है।


8. संविधान सभा ने भाषा के विवाद को हल करने के लिए क्या रास्ता निकला?

उत्तर-भारत में प्रारंभ से ही अनेक भाषाएँ प्रचलन में रही हैं। देश के अलग-अलग  एवं प्रांतों में भिन्न-भिन्न भाषाओं का प्रयोग किया जाता है। अतः जब संविधान सभा के सामने राष्ट्र की भाषा का मुद्दा आया, तो इस पर कई महीनों तक बहस होती रही और कई बार तनाव की स्थिति भी उत्पन्न हुई।

1930 के दशक तक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने यह स्वीकार कर लिया था कि हिंदुस्तानी को राष्ट्रीय भाषा को दर्ज़ा प्रदान किया जाना चाहिए। हिन्दुस्तानी की उत्पत्ति हिंदी और उर्दू के मेल से हुई थी। यह भारतीय जनता के एक विशाल भाग की भाषा थी। विभिन्न संस्कृतियों के आदान प्रदान से समृद्ध हुई यह एक साझी भाषा बन गई थी। समय के साथ-साथ इसमें अनेक स्रोतों से नए-नए शब्दों और अर्थों का समावेश होता गया, जिसके परिणामस्वरूप विभिन्न क्षेत्रों के अनेक लोग इसे समझने में समर्थ हो गए।

गाँधी जी भी हिंदुस्तानी की राष्ट्र भाषा बनाए जाने के पक्ष में थे। गाँधी जी का विचार था कि हिंदुस्तानी ही हिंदुओं और मुसलमानों को तथा उत्तर और दक्षिण के लोगों को समान रूप से एकजुट करने में समर्थ हो सकती थीं। किंतु हमें याद रखना चाहिए कि 19वीं शताब्दी के अंत से एक भाषा के रूप में हिंदुस्तानी के स्वरूप में धीरे-धीरे परिवर्तन होने लगा था। सांप्रदायिक भावनाओं के प्रसार के साथ-साथ हिंदी और उर्दू एक-दूसरे से दूर होने लगी थीं और इस प्रकार भाषा भी धार्मिक पहचान की रणनीति का एक भाग बन गई थी। संविधान सभा के अनेक सदस्य हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्ज़ा दिलवाना चाहते थे। संयुक्त प्रांत के एक कांग्रेसी सदस्य आर०वी० धुलेकर ने संविधान सभा के एक प्रारंभिक सत्र में ही हिन्दी को संविधान निर्माण की भाषा के रूप में प्रयोग किए जाने की माँग की थी। धुलेकर की इस माँग की कुछ अन्य सदस्यों द्वारा विरोध किया गया। उनका तर्क था कि क्योंकि सभा के सभी सदस्य हिन्दी नहीं समझते, इसलिए हिंदी संविधान निर्माण की भाषा नहीं हो सकती थी।

इस प्रकार भाषा का मुद्दा तनाव का कारण बन गया तथा यह आगामी तीन वर्षों तक सदस्यों को उत्तेजित करता रहा। राष्ट्रभाषा के मुद्दे पर 12 सितम्बर, 1947 ई० को धुलेकर के भाषण से एक बार फिर तूफान उत्पन्न हो गया। इस बीच संविधान सभा की भाषा समिति द्वारा अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की जा चुकी थी। समिति ने राष्ट्रभाषा के मुद्दे पर हिन्दी समर्थकों तथा हिंदी विरोधियों के मध्य उत्पन्न हुए गतिरोध को समाप्त करने के लिए एक फार्मूला ढूँढ़ निकाला था। समिति का सुझाव था कि देवनागरी लिपि में लिखीं हिन्दी की भारत की राजकीय भाषा का दर्जा दिया जाए, परन्तु समिति द्वारा इस फार्मूले की घोषणा नहीं की गई, क्योंकि उसका विचार था कि हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए क्रमशः आगे बढ़ना चाहिए। फार्मूलें के अनुसार (1) यह निश्चित किया गया कि पहले 15 वर्षों तक सरकारी कार्यों में अंग्रेज़ी भाषा का प्रयोग जारी रखा जाएगा। (2) हर प्रांत को अपने सरकारी कार्यों के लिए किसी एक क्षेत्रीय भाषा के चुनाव का अधिकार होगा। इस तरह , संविधान सभा की भाषा समिति ने विभिन्न पक्षों की भावनाओं को संतुष्ट करने तथा एक सर्वस्वीकृत समाधान प्रस्तुत करने के उद्देश्य से हिंदी को राष्ट्रभाषा के स्थान पर राजभाषा घोषित किया।