राष्ट्रवाद - पुनरावृति नोट्स

CBSE कक्षा 11 राजनीति विज्ञान
पाठ - 7 राष्ट्रवाद
पुनरावृति नोटस

राष्ट्रवाद क्या है:-
  • सामान्यतः यदि जनता की राय ले तो इस विषय में राष्ट्रीय ध्वज, देश भक्ति देश के लिए बलिदान जैसी बाते सुनेंगे। दिल्ली में गणतंत्र दिवस की परेड़ भारतीय राष्ट्रवाद का विचित्र प्रतीक है।
  • राष्ट्रवाद पिछली दो शताब्दियों के दौरान एक ऐसे सम्मोहक राजनीतिक सिद्धांत के रूप में उभरकर समाने आया है कि जिसने इतिहास रचने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। इसने अत्याचारी शासन से आजादी दिलाने में सहायता की है तो इसके साथ ही यह विरोध, कटुता और युद्धों की वजह भी रहा है।
  • राष्ट्रवाद बड़े-बडे साम्राज्यों के पतन में भागीदार रहा है। बीसवीं शताब्दी की शुरूआत में यूरोप में आस्ट्रेयाई-हंगेरियाई और रूसी साम्राज्य तथा इसके साथ एशिया और अफ्रीका में फ्रांसीसी, ब्रिटिश, डच और पुर्तगाली साम्राज्य के बंटवारे के मूल में राष्ट्रवाद ही था।
  • इसी के साथ राष्ट्रवाद ने उन्नीसवीं शताब्दी के यूरोप में कई छोटी-छोटी रियासतों के एकीकरण से वृहदतर राष्ट्र राज्यों की स्थापना का मार्ग दिखाया है।
  • राष्ट्रवाद एक ऐसी भावना है जो मन में देश या राष्ट्र के प्रति भक्ति और निष्ठा का उफान लाती है।
  • राष्ट्र किसी सीमा तक एक काल्पनिक समुदाय होता है, जो अपने नागरिकों के सामूहिक विश्वास, आकांक्षाओं, कल्पनाओं की सहायता से एक सूत्र से जुड़ा होता है।
  • राष्ट्रवाद जहां एक और विकास ओर एकीकरण का कारक रहा है वहीं उसके कारण महान साम्राज्यों को विघटन व पतन भी झेलना पड़ा।
  • राष्ट्रवाद के कारण उन्नीसवीं शताब्दी के यूरोप में अनेक छोटी-छोटी रियासतों के एकीकरण से बड़े राष्ट्र-राज्यों की स्थापना हुई। आज के जर्मनी और इटली का गठन इसी प्रकार हुआ।
  • बीसवीं शताब्दी में एशिया और अफ्रीका में ब्रिटिश, फ्रांसीसी, उच और पुर्तगाली साम्राज्य के विघटन का मुख्य कारक राष्ट्रवाद ही था।
  • वर्तमान समय में भी अनेक राष्ट्रवादी संघर्ष चल रहे हैं जो मौजूदा राष्ट्रों के अस्तित्व के लिए खतरे की घंटी बजा रहे है। कनाड़ा के क्यूबेकवासियों, उत्तरी स्पेन के बास्कवासियाें, तुर्की और इराक के कुर्दो तथा श्रीलंका के तमिलों इत्यादि द्वारा पृथक राष्ट्र के मांग को लेकर आंदोलन चलाए जा रहे है।
  • आमतौर पर राष्ट्र को सांझी भाषा, कुल, धर्म या सांझी जातीयता जैसी पहचान पर आधारित मानते है। लेकिन ऐसी सांझी पहचान सभी राष्ट्रो में समान रूप से नहीं पायी जाती। जैसे कनाड़ा और भारत में एक सामान्य भाषा नही है। भारत में सांझा धर्म, नस्ल और कुल जैसी पहचान भी मौजूद नही है। यहां विभिन्न धर्मो के लोग रहते है।
राष्ट्र तथा राष्ट्रवाद:-
  • राष्ट्र: राष्ट्र के सदस्य के रूप में हम राष्ट्र के अधिकतर सदस्यों को प्रत्यक्ष तौर पर न कभी जान पाते है और न ही उनके साथ वंशानुगत संबंध जोड़ने की जरूरत पड़ती है। फिर भी राष्ट्रों का वजूद है, लोग उनमें रहते हैं और उनका सम्मान करते हैं।
  • राष्ट्रवादः राष्ट्र काफी हद तक एक 'काल्पनिक समुदाय है जो अपने एक धागे में गठित होता है। यह कुछ विशेष मान्यताओं पर आधारित होता है जिन्हें लोग उस पूर्ण समुदाय के लिए बनाते हें जिससे वह अपनी पहचान बनाए रखते हैं।
राष्ट्र के बारे में कुछ मान्यताएं:-
  1. साझे विश्वास: एक राष्ट्र का आस्तित्व तभी बना रहता है जब उसके सदस्यों को यह विश्वास हो कि वे एक-दूसरे के साथ है।
  2. इतिहास: व्यक्ति अपने आपको एक राष्ट्र मानते हैं उनके अंदर अधिकतर स्थाई ऐतिहासिक पहचान की भावना होती है देश की स्थायी पहचान का ढांचा पेश करने हेतु वे किवंदतियों, स्मृतियों तथा ऐतिहासिक इमारतों तथा अभिलेखों की रचना के जरिए स्वयं राष्ट्र के इतिहास के बोध की रचना करते हैं।
  3. भू-क्षेत्रः किसी भू क्षेत्र पर काफी हद तक साथ-साथ रहना एवं सामूहिक पहचान का अनुभाव कराती है। जैसे कोई इसे मातृभूमि या पितृभूमि कहता है तो कोई पवित्र भूमि।
  4. सांझे राजनीतिक विश्वास: जब राष्ट्र के सदस्यों की इस विषय पर एक सांझा दृष्टि होती है कि वे कैसे राज्य बनाना चाहते हैं शेष तथ्यों के अतिरिक्त वे धर्म निरपेक्षता, लोकतंत्र और उदारवाद जैसे मूल्यों और सिद्धांतों को स्वीकार करते हैं तब यह विचार राष्ट्र के रूप में उनकी राजनीतिक पहचान को स्पष्ट करता है।
  5. साझी राजनीतिक पहचान: व्यक्तियों को एक राष्ट्र में बांधने के भी आवश्यक है। ऐसे हमारे विचार, धार्मिक विश्वास, सामाजिक परंपराए सांझे हो जाते हैं। वास्तव में लोकतंत्र में किसी खास नस्ल, धर्म या भाषा से संबद्धता की जगह एक मूल्य समूह के प्रति निष्ठा की आवश्यकता होती है।
  • राष्ट्र एक टीम की तरह होता है। उसका अस्तित्व तभी कायम रहता है जब उसके सदस्यों को यह विश्वास हो कि वे एक-दूसरे के साथ है।
  • संक्षेप में राष्ट्र निर्माण के लिए अपना भूक्षेत्र, ऐतिहासिक, समानता, भावनात्मक एकता के साथ- साथ साझे राजनीतिक आदर्श और साझी राजनीतिक पहचान की आकांक्षा महत्वपूर्ण होती है। अपना स्वतंत्र राजनीतिक अस्तित्व बनाने की सामूहिक चाहत ही वह मूल बात है, जो राष्ट्र को बाकी समूहों से अलग करती है।
राष्ट्रीय आत्म निर्णय:-
  • बीसवीं शताब्दी में यह सिद्धान्त काफी प्रचलित हुआ। इसके अंतर्गत कोई राष्ट्र आत्म-निर्णय के अपने दावे में अंतर्राष्ट्रीय समुदाय से मांग करते है कि उसके पृथक राजनीतिक इकाई या राज्य के दर्जे को मान्यता और स्वीकार्यता दी जाए।
  • एक संस्कृति एक राज्य:- पहले विश्वयुद्ध के बाद वर्साय संधि से राज्यों की पुनर्व्यवस्था में इस विचार को अपनाने का प्रयास किया। इसके अंतर्गत एक संस्कृति के लोगों को एक राज्य का दर्जा देने का विचार स्वीकारा जाता है।
  • राष्ट्रवाद और बहुलवाद - इसके अंतर्गत एक ही देश में विभिन्न संस्कृतियां और समुदाय फलते-फूलते है। किसी भी देश में मौजूद प्रत्येक राष्ट्रीय समूह को स्वतंत्र राज्य प्रदान करने की अव्यवहारिता को देखते हुए सांस्कृतिक रूप से अल्पसंख्यक समुदायों की पहचान को स्वीकार करने और संरक्षित करने के उपायों को अपनाया जाता है।
  • सामाजिक समूहों से राष्ट्र अपना शासन स्वंय करने और अपने भविष्य को तय करने का अधिकार चाहते हैं दूसरे शब्दों मे वे आत्म निर्णय का अधिकार चाहते हैं।
  • इस अधिकार के तहत राष्ट्र अंतर्राष्ट्रीय समुदाय से मांग करता है कि भिन्न राजनीतिक इकाई या राज्य के दर्जे को मान्यता एंव स्वीकृति दी जाएं।
  • उन्नीसवीं सदी में यूरोप में एक संस्कृतिः एक राज्य की मान्यता ने जोर पकड़ा। फलस्वरूप वसाय की संधि के बाद विभिन्न छोटे एवं नव स्वतंत्र राज्यों का गठन हुआ। इस के कारण राज्यों की सीमाओं में भी परिवर्तन हुए, शिकार हुए।
  • इसलिए यह निश्चित करना मुमकिन नहीं हो पाया कि नव निर्मित राज्यों में मात्र एक ही जाति के लोग रहें क्योंकि वही एक से ज्यादा नस्ल और संस्कृति के लोग रहते थे।
  • आश्चर्य की बात यह है कि उन राष्ट्र राज्यों ने जिन्होंने संघर्षों के बाद स्वाधीनता प्राप्त की, किंतु अब वे अपने भू-क्षेत्रों में राष्ट्रीय आत्म निर्णय के अधिकार की मांग करने वाले अल्पसंख्यक समूहों का खंडन करते है।
आत्मनिर्णय के आदोलनों से कैसे निपटे:-
  • समाधान नए राज्यों के गठन में नहीं बल्कि वर्तमान राज्यों को ज्यादा लोकतांत्रिक और समतामूलक बनाने में है। समाधान है कि भिन्न-भिन्न सांस्कृतिक और नस्लीय पहचानों के लोग देश में समान नागरिक तथा मित्रों की तरह सहअस्तित्व पूर्वक रह सकें।
राष्ट्रवाद तथा बहुलवाद
  • "एक संस्कृति-एक राज्य" के विचार को त्यागने के बाद लोकतांत्रिक देशों ने सांस्कृतिक रूप से अल्पसंख्यक समुदायों की पहचान को स्वीकार करने तथा सुरक्षित करने के तरीकों की शुरूआत की है। भारतीय संविधान में भाषायी, धार्मिक एंव सांस्कृतिक अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के लिए व्यापक प्रावधान हैं।
  • यद्यपि अल्पसंख्यक समूहों को मान्यता एवं सरंक्षण प्रदान करने के बावजूद कुछ समूह पृथक राज्य की मांग पर अड़े रहें, ऐसा हो सकता है। यह विरोधाभासी तथ्य होगा कि जहां वैश्विक ग्राम की बातें चल रही हैं वहां अभी भी राष्ट्रीय आकांक्षाएं विभिन्न वर्गों और समुदायों को उद्वेलित कर रही है। इसके समाधान के लिए संबंधित देश को विभिन्न वर्गों के साथ उदारता एवं दक्षता का परिचय देना होगा साथ ही असहिष्णु एक जातीय स्वरूपों के साथ कठोरता से पेश आना होगा |