विधायिका - एनसीईआरटी प्रश्न-उत्तर

सीबीएसई कक्षा - 11 राजनीति विज्ञान
एनसीईआरटी प्रश्नोत्तर
पाठ - 5 विधायिका

1. आलोक मानता है कि किसी भी देश को कारगर सरकार की ज़रूरत होती है जो जनता की भलाई करे। अतः यदि हम सीधे-सीधे अपना प्रधानमंत्री और मंत्रिगण चुन लें और शासन का काम उन पर छोड़ दें, तो हमें विधायिका की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। क्या आप इससे सहमत हैं? अपने उत्तर का कारण बताएँ।
उत्तर- आलोक का विचार बिलकुल भी मान्य नहीं है, क्योंकि सीधे-सीधे प्रधानमंत्री और मंत्रिमंडल चुनने से शासन का संचालन जनहित की अपेक्षा स्वहित के लिए होगा। इसके कारण तो शासक वर्ग निरंकुश हो जाएगा। इसलिए विधायिका का होना अत्यंत ज़रूरी है। विधायिका ही कार्यपालिका को नियंत्रित करती है। उसके अनुचित कार्यों की भर्त्स्ना करती है और उसे जनकल्याण हेतु कार्य करने के लिए बाध्य करती है।

2. किसी कक्षा में द्वि-सदनीय प्रणाली के गुणों पर बहस चल रही थी। चर्चा में निम्नलिखित बातें उभरकर सामने आयीं। उन तर्कों को पढ़िए और उनसे अपनी सहमति-असहमति के कारण बताइए।
  1. नेहा ने कहा कि द्वि-सदनीय प्रणाली से कोई उद्देश्य नहीं सधता।
  2. शमा का तर्क था कि राज्यसभा में विशेषज्ञों का मनोनयन होना चाहिए।
  3. त्रिदेव ने कहा कि यदि कोई देश संघीय नहीं है, तो फिर दूसरे सदन की ज़रूरत नहीं रह जाती।
उत्तर-
  1. नेहा के तर्कों पर असहमति व्यक्त की जा सकती है, नेहा के अनुसार द्वि-सदनीय व्यवस्था से कोई उद्देश्य नहीं सधता है, लेकिन ऐसा नहीं है। जब हम एक लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था की बात करते है तो द्वितीय सदन की महत्त्वपूर्ण माना जाता है। इसे कई मामलों में विशेषाधिकार प्राप्त होता है जिसके माध्यम से यह शासन को नियंत्रित करती है।
  2. शमा के तर्क पर सहमति व्यक्त करते हुए कहा जा सकता है कि भारत में ऐसी व्यवस्था है। राष्ट्रपति वैसे 12 सदस्यों को राज्य सभा में मनोनीत करते हैं, जिन्हें कला, विज्ञान, साहित्य और समाज सेवा के क्षेत्र में ख्याति प्राप्त होते हैं।
  3. त्रिदेव के अनुसार संघीय शासन में ही द्वितीय सदन की आवश्यकता होती है अन्यथा यह निरर्थक है। यह तर्क उचित प्रतीत होता है। साधारणतः द्वितीय सदन राज्यों का प्रतिनिधित्व करता है। यह प्रथम सदन की अपेक्षा कमज़ोर भी होता है। यह जनहित के लिए कोई काम करता दिखाई नहीं देता। हालाँकि कानून निर्माण में इसकी भी भूमिका होती है। कोई भी विधेयक इसकी स्वीकृति के लिए भेजा जाता है किंतु उस विधेयक पर इसका निर्णय अंतिम नहीं हो सकता। धन विधेयक पर इसकी स्वीकृति औपचारिक मात्र है। साधारण विधेयक को यह 6 माह से ज़्यादा नहीं रोक सकता है। इस प्रकार यह कोई सदन नहीं लगता है।

3. लोकसभा कार्यपालिका को राज्य सभा की तुलना में क्यों कारगर ढंग से नियंत्रण में रख सकती है?
उत्तर- लोकसभा कार्यपालिका को राज्यसभा की तुलना में कारगर ढंग से नियंत्रण में रख सकती है क्योकि कार्यपालिका विधायिका के प्रति उत्तरदायी है और विधायिका जनता के प्रति उत्तरदायी है। जनता का प्रतिनिधि लोकसभा में होता है। लोकसभा में बहुमत दल का नेता प्रधानमंत्री होता है। प्रधानमंत्री मंत्रिपरिषद् नियुक्ति करता है। मंत्रिपरिषद् में भी लोकसभा के ही सदस्य होते हैं। सभी सदस्य एक ही सदन के होते हैं। कोई भी निर्णय लेने में परेशानी नहीं होती है। कार्यपालिका का प्रधान राष्ट्रपति होता है और राष्ट्रपति कोई भी कार्य प्रधानमंत्री और मंत्रिपरिषद् की सलाह पर ही करता है। इसलिए यह कार्यपालिका को राज्यसभा की तुलना में अधिक आसानी से नियंत्रित कर लेता है।

4. लोकसभा कार्यपालिका पर कारगर ढंग से नियंत्रण रखने की नहीं बल्कि जनभावनाओं और जनता की अपेक्षाओं की अभिव्यक्ति का मंच है। क्या आप इससे सहमत हैं? कारण बताइए।
उत्तर- लोकसभा कार्यपालिका पर कारगर ढंग से नियंत्रण रखने की नहीं बल्कि जनभावनाओं और जनता की अपेक्षाओं की अभिव्यक्ति का मंच है।क्योकि निश्चित रूप में लोकसभा एक ऐसा मंच है जहाँ जनभावनाओं की कद्र की जाती है, उसकी इच्छा के अनुरूप कार्य किया जाता है। क्योंकि लोकसभा वास्तविक रूप से जनता की ही सभा है। जनता यहाँ अपने प्रतिनिधियों को निर्वाचित करके भेजती है। ये प्रतिनिधि जनअभिव्यक्ति के साधन होते हैं। अर्थात् यह न केवल कार्यपालिका पर नियंत्रण रखती है बल्कि जनहित के कल्याण एवं विकास के लिए सदैव तत्पर रहती है।

5. नीचे संसद को ज़्यादा कारगर बनाने के कुछ प्रस्ताव लिखे जा रहे हैं। इनमें से प्रत्येक के साथ अपनी सहमति या असहमति का उल्लेख करें। यह भी बताएँ कि इन सुझावों को मानने के क्या प्रभाव होंगे?
  1. संसद को अपेक्षाकृत ज़्यादा समय तक काम करना चाहिए।
  2. संसद के सदस्यों की मौजूदगी अनिवार्य कर दी जानी चाहिए।
  3. अध्यक्ष को यह अधिकार होना चहिए कि सदन की कार्यवाही में बाधा पैदा करने पर सदस्य को दडित कर सकें।
उत्तर-
  1. संसद को अपेक्षाकृत अधिक समय तक काम करना चाहिए। इस कथन पर हमे सहमति देनी चाहिए क्योकि वर्तमान संसद का कार्यकाल पाँच वर्षों का होता है जो काफी है। इससे अधिक होने पर यह निरंकुश हो सकती है। फिर यह जनता की इच्छा के अनुकूल कार्य नहीं करेंगी।
  2. संसद के सदस्यों की मौजूदगी अनिवार्य कर दी जानी चाहिए क्योकि जनता अपना बहुमूल्य मत देकर इन्हें अपने हितों के लिए कार्य करने हेतु शासन में भाग लेने भेजती है, न कि इधर-उधर घूमने के लिए।
  3. तीसरे कथन के आलोक में यह कहने में कोई आपत्ति नहीं कि लोकसभा के स्पीकर को यह अधिकार होना चाहिए कि वह सदन में व्यवधान उत्पन्न करने वाले सदस्य को दंडित करे। क्योंकि स्पीकार का कार्य होता है कि वह शांति स्थापित करे, लेकिन आजकल जिस तरह लोकसभा में सांसद अनुचित व्यवहार करते हैं, सदन की कार्यवाही में बाधा उत्पन्न करते हैं, इससे संसद सत्र का बहुमूल्य समय नष्ट होता है। यदि स्पीकर को यह अधिकार प्रदान कर दिया गया तो निःसंदेह सदस्य अनुचित व्यवहार करने से डरेंगे और सदन में भी अनुशासन बना रहेगा।

6. आरिफ यह जानना चाहता है कि अगर मंत्री ही अधिकांश महत्त्वपूर्ण विधेयक प्रस्तुत करते हैं और बहुसंख्यक दल अकसर सरकारी विधेयक को पारित कर देता है, तो फिर कानून बनाने की प्रक्रिया में संसद की भूमिका क्या है? आप आरिफ को क्या उत्तर देगें?
उत्तर- इस कथन के उत्तर में यह कहा जा सकता है की कानून बनाने की प्रक्रिया में संसद की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। धन विधेयक को मुख्य माना जाता है इसके अंतर्गत इसे छोड़कर शेष विधेयक किसी भी सदन में पेश किए जा सकते हैं। यह एक सदन से पारित होने के उपरांत दूसरे सदन में जाता है। इस संदर्भ में सबसे विशेष बात यह हैं कि प्रत्येक सदन में किसी विधेयक की कई अवस्थाओं से गुज़रना पड़ता है; जैसे-प्रथम वाचन, द्वितीय वाचन, तृतीय वाचन, समिति स्तर, रिपोर्ट स्तर। इन तमाम अवस्थाओं से गुजरने के बाद विधेयक अंतिम स्वीकृति के लिए राष्ट्रपति के पास जाता है। राष्ट्रपति भी संसद का ही अंग होता है। अर्थात् विधि निर्माण में संसद की भूमिका पर अँगुली उठाने का कोई औचित्य नज़र नहीं आता है। उसकी भूमिका अति महत्त्वपूर्ण होती है।

7. आप निम्नलिखित में से किस कथन से सबसे ज़्यादा सहमत हैं? अपने उत्तर का कारण दें।
  1. सांसद/विधेयकों को अपनी पसंद की पार्टी में शामिल होने की छूट होनी चाहिए।
  2. दलबदल विरोधी कानून के कारण पार्टी के नेता का दबदबा पार्टी के सांसद/विधायकों पर बढ़ा है।
  3. दलबदल हमेशा स्वार्थ के लिए होता है और इस कारण जो विधायक/सांसद दूसरे दल में शामिल होना चाहता है उसे आगामी दो वर्षों के लिए मंत्री-पद के अयोग्य करार कर दिया जाना चाहिए।
उत्तर-
  1. प्रथम कथन के द्वारा सांसद/विधेयकों छूट देने से राजनीतिक अस्थिरता बनी रहेगी। जिस विधायक एवं सांसद को जिस दल में अपना भविष्य सुनहरा नज़र आएगा, वे उसी दल में शामिल हो जाएँगे, जैसा कि आजकल हो रहा है। इससे राजनीतिक मूल्यों का ह्रास होता है, और दुर्बल सरकार का निर्माण होता है।
  2. इसके अंतर्गत इन्हें अपने नेता का आदेश मानना पड़ता है अन्यथा दलबदल कानून के अंतर्गत उनकी सदस्यता भी समाप्त हो सकती है।
  3. तीसरे कथन से मैं सबसे अधिक सहमत हूँ, क्योंकि इस कथन के अनुसार दलबदल करने पर किसी सांसद या विधायक को मंत्री-पद के आयोग्य घोषित करने से इस प्रथा पर कुछ हद तक रोक लगेगी, क्योंकि अधिकतर दलबदल सरकार बनाने या सरकार में शामिल होने के लिए होते हैं। दलबदल की प्रक्रिया पूरी करने हेतु सांसद या विधायक को मंत्री पद का ऑफर दिया जाता है या दलबदल करने हेतु सांसद या विधायक द्वारा मंत्री पद देने की शर्त रखी जाती है। अतः इस प्रथा को रोकने हेतु इस प्रकार का प्रावधान कारगर सिद्ध होगा।

8. डॉली और सुधा में इस बात पर चर्चा चल रही थी कि मौजूदा वक्त में संसद कितनी कारगर और प्रभावी है। डॉली का मानना था कि भारतीय संसद के कामकाज में गिरावट आयी है। यह गिरावट एक दम साफ दिखती है, क्योंकि अब बहस-मुबाहिस पर समय कम खर्च होता है और सदन की कार्यवाही में बाधा उत्पन्न करने अथवा वाकआउट (बहिर्गमन) करने में ज़्यादा। सुधा का तर्क था कि लोकसभा में अलग-अलग सरकारों ने मुँह की खाई है, धराशायी हुई हैं। आप सुधा और डॉली के तर्क के पक्ष अथवा विपक्ष में कौन-सा तर्क देंगे?
उत्तर- वर्तमान समय में संसद में अस्थिरता देखि जा सकता है और सांसद जिस तरह का व्यवहार करते हैं, उससे तो यह मालूम पड़ता है कि संसद का समय नष्ट हो रहा है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि हाल के दिनों में संसद की कार्यकुशलता एवं क्षमता पर प्रश्नचिह्न लगा है, परंतु ऐसा कुछ सदस्य ही करते हैं।और इस संदर्भ में डॉली का तर्क उचित नहीं है। संसद के अधिकांश सदस्य सदन में उचित रूप से कार्य करते हैं। सदन तो वाद-विवाद का मंच है। यहाँ सभी सदस्य अपने विचारों एवं तर्कों को रखते हैं, जिस पर ईमानदारीपूर्वक बहस होती है। संसद देश की कानून बनाने की सर्वोच्च संस्था मानी जाती है। यह जनता की इच्छाओं को मूल रूप प्रदान करने वाली संस्था है अर्थात् यहाँ प्रत्येक सांसद को ईमानदारीपूर्वक कार्य करना चाहिए। तभी संसद की गरिमा भी बनी रहेगी और देश का विकास भी होगा।

9. किसी विधेयक को कानून बनने के क्रम में जिन अवस्थाओं से गुजरना पड़ता है उन्हें क्रमवार सजाएँ।
(क) किसी विधेयक पर चर्चा के लिए प्रस्ताव पारित किया जाता हैं।
(ख) विधेयक भारत के राष्ट्रपति के पास भेजा जाता है-बताएँ कि वह अगर इस पर हस्ताक्षर नहीं करती/करता है तो क्या होता है?
(ग) विधेयक दूसरे सदन में भेजा जाता है और वहाँ से इसे पारित कर दिया जाता है।
(घ) विधेयक का प्रस्ताव जिस सदन में हुआ है उसमें यह विधेयक पारित होता है।

(ङ) विधेयक की हर धारा को पढ़ा जाता है और प्रत्येक धारा पर मतदान होता है।
(च) विधेयक उप-समिति के पास भेजा जाता है-समिति उसमें कुछ फेरबदल करती है और चर्चा के लिए सदन में भेज देती है।
(छ) संबद्ध मंत्री विधेयक की ज़रूरत के बारे में प्रस्ताव करता है।
(ज) विधि-मंत्रालय का कानून-विभाग विधेयक तैयार करता है।

उत्तर-
(ज) विधि-मंत्रालय का कानून-विभाग विधेयक तैयार करता है।
(छ) संबद्ध मंत्री विधेयक की ज़रूरत के बारे में प्रस्ताव करता हैं।
(क) किसी विधेयक पर चर्चा के लिए प्रस्ताव पारित किया जाता है।
(च) विधेयक उप-समिति के पास भेजा जाता है-समिति उसमें कुछ फेरबदल करती है और चर्चा के लिए सदन में भेज देती है।
(ङ) विधेयक की हर धारा को पढ़ा जाता है और प्रत्येक धारा पर मतदान होता है।
(घ) विधेयक का प्रस्ताव जिस सदन में हुआ है उसमें यह विधेयक पारित होता है।
(ग) विधेयक दूसरे सदन में भेजा जाता है और वहाँ इसे पारित कर दिया जाता हैं।
(ख) विधेयक भारत के राष्ट्रपति के पास भेजा जाता है। इस पर राष्ट्रपति की स्वीकृति अति आवश्यक है। कोई विधेयक राष्ट्रपति की स्वीकृति मिलने के बाद ही कानून बनता है। परंतु राष्ट्रपति चाहे तो इसे पुनः विचार के लिए वापिस कर सकता है। लेकिन यदि संसद पुनः उसे पारित कर दे तो राष्ट्रपति को हस्ताक्षर करने के लिए बाध्य होना पड़ता है।

10. संसदीय समिति की व्यवस्था से संसद के विधायी कामों के मूल्यांकन और देखरेख पर क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर- संसदीय समिति वर्तमान व्यवस्थापिका का महत्त्वपूर्ण अंग माना जाता है। समिति ही व्यवस्थायिका के संपूर्ण कार्यों का निरीक्षण करती है। संसदीय समिति का गठन विधायी कार्यों को उचित ढंग से निपटाने के लिए किया गया है। क्योंकि संसद केवल अधिवेशन के दौरान ही बैठती है। इसलिए उसके पास समय बहुत कम होता है और काम बहुत अधिक। ऐसे में संसदीय समितियाँ मामलों की जाँच करती हैं। ये विभिन्न मंत्रालयों के अनुदान माँगों का अध्ययन करती हैं। संसद के दोनों सदनों में व्यवस्था ज़्यादातर मामलों में एक जैसी है। ये समितियाँ दो प्रकार की होती हैं-तदर्थ और स्थायी। इसमें स्थायी समितियाँ विभिन्न विभागों के कार्यों, उनके बजट, व्यय तथा संबंधित विधेयक की देखरेख करती है।
संक्षेप में यह कहा जा सकता है की विधायी कायों पर इन समितियों का महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। संसदीय समितियों द्वारा की जाने वाली जाँच और आलोचना के भय से अधिकारी अनुचित निर्णय लेने से घबराते हैं। सरकार द्वारा इसे बहुत प्रोत्साहन दिया जाता है और इसके सुझावों को सरकार मानती है।