अंतरा - कबीर - पुनरावृति नोट्स
CBSE कक्षा 11 हिंदी (ऐच्छिक)
अंतरा काव्य खण्ड
पाठ-1 कबीर
पुनरावृत्ति नोट्स
परिचय-
- कबीर का जन्म सन् 1398 में काशी में हुआ था। नीरु और नीमा नामक जुलाहा दम्पति ने इनका लालन-पालन किया। ये गुरु रामानन्द के शिष्य थे। कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे यह उन्होंने स्वयं स्वीकार किया है वे कहते हैं:-
मसि कागद छुयो नहीं, कलम गही नहि हाथ।
सन् 1518 में मगहर में उनका देहावसान हो गया।
रचनाएँ-
- बीजक (साखी, सबद, रमैनी) कबीर की कुछ रचनाएँ गुरु ग्रन्थ साहब में संकलित है।
काव्यगत विशेषताएँ-
- भक्तिकाल की निर्गुण (निराकार रूप के उपासक) काव्यधारा के संत कवि कबीर का आविर्भाव ऐसे समय में हुआ जब राजनीतिक, धार्मिक एवंम् सामाजिक क्रान्तियाँ अपने चरम पर थी। कबीर क्रान्तिकारी कवि थे। एक ओर कबीर ने समाज में फैली कुरीतियों एवम् आडम्बरों पर प्रहार किया दूसरी ओर उनका भक्तरूप देखने को मिला।
- कबीर की रचनाओं की भाषा सधुक्कड़ी है। सधुक्कड़ी में बोलचाल की अवधी, भोजपुरी, पंजाबी अत्यादि बोलचाल की भाषाओं के शब्दों का प्रचुर मात्रा में प्रयोग है। इसलिए सधुक्कड़ी को पंचमेल खिचड़ी भाषा कहा जाता है। कबीर का काव्य तुकात्मकता एवम् लयबद्धता के कारण गेय है। अर्थात् इसे गाया जा सकता है। उन्होंने साखी, सबद एवम् रमैनी के माध्यम से अपनी भावनाओं को जनमानस तक पहुँचाया। कबीर के काव्य में अलंकारों का स्वाभाविक प्रयोग है।
पद 1. अरे इन दोउन .................... राह ह्वै जाई।
प्रसंग / मूलभाव-
- प्रस्तुत पद कबीर के ‘बीजक’ संग्रह से उद्धृत है। हिन्दू एवम् मुसलमान दोनों धर्मों में व्याप्त कर्मकाण्ड एवम् आडम्बरों का विरोध करते हुए कबीर कहते हैं कि ये दोनों अज्ञानतावश बाह्य कर्मकाण्डों को वास्तविक धर्म मान बैठे हैं इन्हें धर्म के मर्म का ज्ञान नहीं है धर्म का वास्तविक अर्थ है उचित कर्मों से व्यक्ति एवम् समाज का मार्गदर्शन करना, परन्तु ये केवल दिखावा करते हैं। वास्तव में ये दोनों ही पथभ्रष्ट हो चुके है। इनका यह अज्ञान परमात्मा की प्राप्ति में बाधक है।
व्याख्या बिंदु-
- हिंदुओं के विषय में कबीर का कहना है कि ये वर्ण-भेद में विश्वास करते हैं उच्च वर्ग का व्यक्ति निम्न-वर्ण के व्यक्ति को अस्पृश्य मानता है उसे अपने पात्रों (बर्तनों) को छूने नहीं देता परन्तु स्वयं वैश्यागमन जैसे निम्न कर्म में लिप्त है। तात्पर्य यह है कि हीन कर्मों में लीन है केवल श्रेष्ठ होने का दिखावा करते है।
- मुसलमानों की दशा भी कुछ भिन्न नहीं है। ये दिखावा करते हैं कि पीर औलिया बनकर माया-मोह से दूर हैं दूसरी ओर अपनी रसना के आगे विवश है। केवल स्वाद के लिए मांसाहार करते हैं, जीव-हत्या करते हैं। जीव हिंसा करने वाले खुदा के बंदे कैसे हो सकते हैं? समाज की नीतियों के प्रतिकूल रक्त-संबंधों में विवाह करते हैं। दोनों ही सत्य की राह से भटके हैं।
इस प्रकार इन दोनों को ही ईश्वर-प्राप्ति नहीं हो सकती।
काव्य-सौन्दर्य-
भाव-पक्ष-
- कबीर का समाज सुधारक रूप द्रष्टव्य है।
- हिन्दुओं एवम् मुसलमानों दोनों के आडम्बरों पर तीखा प्रहार किया गया है।
- आडम्बरों को ईश्वर प्राप्ति के मार्ग में बाधक माना है।
- ईश्वर एक है। राम-रहीम में कोई भेद नहीं है। ईश्वर सर्वदा है। ईश्वर सर्वव्यापक है एवं सभी प्राणियों के हृदय में विद्य मान है। दोनों को ही मानवता अपनाने को कहा है।
कला-पक्ष-
- सधुक्कड़ी भाषा में भावों की सहज, सरल अभिव्यक्ति है।
- शब्द-चयन, भावपूर्ण व भावानुकूल है।
- ‘सब सखियाँ’ ‘कहै कबीर’ अनुप्रास अलंकार।
- गेय पद शैली।
- मुक्तक शैली।
- सहज और सरलभाषा।
पद-2. “बालम आवो ................ जिव जाय रे”
प्रसंग/मूलभाव-
- प्रस्तुत पद ‘बीजक’ संग्रह से उद्धृत है। यहाँ कबीर का भक्तरूप द्रष्टव्य है। इस पद में कबीर ने स्वयं (जीवात्मा) को पत्नी और परमात्मा को पति मानकर परमात्मा रूपी पति से वियुक्त जीवात्मा की विरहावस्था का चित्रण किया गया है।
व्याख्या बिंदु-
- परमात्मा से मिलन न हो पाने के कारण कबीर को एक वियोगिनी की भाँति न अन्न भाता है न नींद आती है। निर्गुणमार्गी संत कवियों ने साधक को नायिका तथा परमात्मा को नायक के रूप में चित्रित किया है। यहाँ पति (परमात्मा) निराकार परन्तु पत्नी (साधक) साकार रूप में विद्यमान है। यहाँ कबीर निर्गुण और सगुण-दो भिन्न मतों के बीच एक साम्य स्थापित करते दिखाई देते हैं।
काव्य-सौन्दर्य-
भाव-पक्ष-
- कबीर का भक्त रूप द्रष्टव्य है।
- ज्ञान चक्षु खुलने पर साधक ईश्वर प्राप्ति के लिए आतुर हो उठा है।
- रस-विप्रलंभ (वियोग) श्रृंगार, भक्ति रस।
कला-पक्ष-
- भाषा-सधुक्कड़ी
- ‘दुखिया देह’, ‘कोई कहे’, ‘जिव जाय’ अनुप्रास अलंकार।
- कामिन को है ............ प्यासे को नीर दृष्टान्त अलंकार।
- लय एवम् तुकबद्ध गेय पद शैली।