संविधान क्यों और कैसे - एनसीईआरटी प्रश्न-उत्तर

सीबीएसई कक्षा - 11 राजनीति विज्ञान
एनसीईआरटी प्रश्नोत्तर
पाठ - 1 संविधान क्यों और कैसे

1. इनमें से कौन-सा संविधान का कार्य नहीं है?
  1. यह नागरिकों के अधिकार की गारंटी देता है।
  2. यह शासन की विभिन्न शाखाओं की शक्तियों के अलग-अलग क्षेत्र का रेखांकन करता है।
  3. यह सुनिश्चित करता है कि सत्ता में अच्छे लोग आयें।
  4. यह कुछ साझे मूल्यों की अभिव्यक्ति करता है।
उत्तर-
  1. यह सुनिश्चित करता है कि सत्ता में अच्छे लोग आयें।

2. निम्नलिखित में कौन-सा कथन इस बात की एक बेहतर दलील है कि संविधान की प्रमाणिकता संसद से ज्यादा है?
  1. संसद के अस्तित्व में आने से कहीं पहले संविधान बनाया जा चुका था।
  2. संविधान के निर्माता संसद के सदस्यों से कहीं ज्यादा बड़े नेता थे।
  3. संविधान ही यह बताता है कि संसद कैसे बनाई जाए और इसे कौन-कौन सी शक्तियाँ प्राप्त होंगी।
  4. संसद, संविधान का संशोधन नहीं कर सकती।
उत्तर-
  1. संविधान ही यह बताता है कि संसद कैसे बनाई जाए और इसे कौन-कौन सी शक्तियाँ प्राप्त होंगी।

3. बताएँ कि संविधान के बारे में निम्नलिखित कथन सही हैं या गलत?
  1. सरकार के गठन और उसकी शक्तियों के बारे में संविधान एक लिखित दस्तावेज़ है।
  2. संविधान सिर्फ लोकतांत्रिक देशों में होता है और उसकी ज़रूरत ऐसे ही देशों में होती है।
  3. संविधान एक कानूनी दस्तावेज़ है और आदर्शों तथा मूल्यों से इसका कोई सरोकार नहीं है।
  4. संविधान एक नागरिक को नई पहचान देता है।
उत्तर-
  1. सही,
  2. गलत,
  3. गलत,
  4. सही।

4. बतायें कि भारतीय संविधान के निर्माण के बारे में निम्नलिखित अनुमान सही हैं या नहीं? अपने उत्तर का कारण बतायें।
  1. संविधान-सभा में भारतीय जनता की नुमाइंदगी नहीं हुई। इसका निर्वाचन सभी नागरिकों द्वारा नहीं हुआ था।
  2. संविधान बनाने की प्रक्रिया में कोई बड़ा फ़ैसला नहीं लिया गया क्योंकि उस समय नेताओं के बीच संविधान की बुनियादी रूपरेखा के बारे में आम सहमति थी।
  3. संविधान में कोई मौलिकता नहीं हैं, क्योंकि इसका अधिकांश हिस्सा दूसरे देशों से लिया गया है।
उत्तर-
  1. कैबिनेट मिशन योजना के द्वारा भारत में संविधान बनाने वाली एक संविधान-सभा का गठन किया गया। मताधिकार के आधार पर नहीं हुआ था तथापि इसे अधिकाधिक प्रतिनिध्यात्मक बनाने के लिए सांप्रदायिक आधार पर इसमें सदस्यों को प्रतिनिधित्व दिया गया। इसमें समाज के सभी वर्गों और हितों का प्रतिनिधित्व करने वाले सदस्य थे। इसमें तत्कालीन 'अनुसूचित वर्ग' के 26 सदस्य थे। जहाँ तक राजनीतिक दलों का सवाल है, तो कांग्रेस का संविधान सभा में वर्चस्व था, क्योंकि 296 स्थानों पर हुए चुनावों में कांग्रेस को 212 स्थान मिले और मुस्लिम लीग को केवल 73 स्थान मिले अर्थात् संविधान सभा में कांग्रेस को 82 प्रतिशत सीटे प्राप्त थीं।यह भी आवशयक है की कांग्रेस स्वयं विविधताओं से भरी पार्टी थी। इसमें राज्य के सभी वर्गो को शामिल किया गया था। इसके अलावा संविधान सभा में देशी रियासतों को भी पर्याप्त प्रतिनिधित्व दिया गया था। रियासतों के प्रतिनिधि प्रायः राजाओं द्वारा मनोनीत किए गए थे। अतः यह कहना सही नहीं है कि इसमें भारतीय जनता की नुमाइंदगी नहीं हुई।
  2. किसी भी विविधतापूर्ण एवं व्यापक प्रतिनिध्यात्मक संस्था में सदस्यों के बीच मतभेद का होना अस्वाभाविक नहीं है। संविधान सभा में भी सदस्यों के बीच वैचारिक मतभेद थे। वे मतभेद वास्तव में वैध सैद्धान्तिक आधार पर थे। लेकिन इस व्यापक मतभेद के बावजूद संविधान का केवल एक ही प्रावधान ऐसा है, जो बिना किसी वाद-विवाद के पास हो गया। यह प्रावधान सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार था। यह सदस्यों के लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति निष्ठा का ही परिचायक था। यह कहना सही नहीं है कि संविधान बनाने की प्रक्रिया में कोई बड़ा फैसला नहीं लिया गया, क्योंकि उस समय नेताओं के बीच संविधान की बुनियादी रूपरेखा के बारे में आम सहमति थी।
  3. यह कहना सही नहीं है कि भारतीय संविधान में हिस्सा विश्व के दूसरे देशों से लिया गया है। हमारे संविधान निर्माताओं ने विभिन्न देशों के संविधान से अनुकूल आदर्शों, मूल्यों एवं परंपराओं से बहुत कुछ सीखने अथवा ग्रहण करने का प्रयास जिसमें संविधान द्वारा निर्मित संस्थाएँ अस्त-व्यस्त या काम-चलाऊ संस्थाएँ मात्र न रहें बल्कि लोगों की आकांक्षाओं और अपेक्षाओं को भी पूरा कर सकें।

5. भारतीय संविधान के बारे में निम्नलिखित प्रत्येक निष्कर्ष की पुष्टि में दो उदाहरण दें।
  1. संविधान का निर्माण विश्वसनीय नेताओं द्वारा हुआ। इसके लिए जनता के मन में आदर था।
  2. संविधान ने शक्तियों का बँटवारा इस तरह किया कि उसमें उलटफेर मुश्किल है।
  3. संविधान जनता की आशाओं और आकांक्षाओं का केन्द्र है।
उत्तर-
  1. भारतीय संविधान का निर्माण भारतीय जनता के निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा हुआ था। ये प्रतिनिधि समाज के सभी जाति, धर्म, वर्ग और समुदायों का प्रतिनिधित्व करते थे। ये प्रतिनिधि सक्रिय रूप से भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन से भी जुड़े हुए थे। अतः स्वाभाविक रूप से उन्हें जनता की अपेक्षाओं, आशाओं, आकांक्षाओं और समस्याओं का पूर्ण ज्ञान था। संविधान निर्माण के क्रम में इन नेताओं द्वारा समस्त तथ्यों का गहन विश्लेषणात्मक अध्ययन कर देश के व्यापक हितों को ध्यान में रखते हुए संविधान का निर्माण किया गया। इन नेताओं के प्रति जनता के मन में आदर होना बिल्कुल स्वाभाविक है।
  2. संविधान में अनेक संस्थाओं और अंगों की शक्तियों और दायित्वों का स्पष्ट रूप से विभाजन सतरीकरण के आधार पर किया गया। संविधान के द्वारा कार्यपालिका,विधायका ,न्यायपालिया का गठन किया गया , शक्ति-वितरण में नियंत्रण एवं संतुलन (Check and Balance) के सिद्धांत को अपनाया गया और जन-कल्याण के लिए प्रतिबद्धता को भी दर्शाया गया। संविधान सभा ने शक्ति के समुचित और संतुलित वितरण के लिए संसदीय शासन व्यवस्था और संघात्मक व्यवस्था की स्वीकार किया तथा न्यायपालिका को स्वतंत्र रखा और उसे संसद तथा मंत्रिमंडल के कार्यों की समीक्षा का अधिकार दिया। इस प्रकार किसी प्रकार के टकराहट और उलटफेर को रोकने का पर्याप्त प्रावधान संविधान में किया गया।
  3. भारत का संविधान अत्यंत संतुलित एवं न्यायपूर्ण है। इसमें समाज के विभिन्न वर्गों के व्यापक हितों के अनुरूप अनेक प्रावधान किए गए हैं। इसमें उपेक्षित, दलित, शोषित और कमजोर वर्गों के लिए अलग से विशेष व्यवस्था की गई हैं। संविधान में जन-कल्याण को पर्याप्त महत्त्व दिया गया है। संविधान निर्माण में न्याय के बुनियादी सिद्धांत का पालन किया गया है। वयस्क मताधिकार, मौलिक अधिकार एवं राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धांतों के माध्यम से जनता की अपेक्षाओं और आकांक्षाओं को साकार करने की व्यवस्था की गई है। निस्संदेह, संविधान जनता की आशाओं और अपेक्षाओं के अनुरूप है और उनका केंद्र भी है।

6. किसी देश के लिए संविधान में शक्तियों और जिम्मेदारियों का साफ-साफ निर्धारण क्यों ज़रूरी है? इस तरह का निर्धारण न हो तो क्या होगा?
उत्तर- किसी भी संवैधानिक व्यवस्था के द्वारा सरकार के अनेक अंगों के बीच शक्तियों और कायों का स्पष्ट और संतुलित वितरण नितांत आवश्यक है क्योकि इन संस्थाओं के बीच परस्पर टकराहट की स्थिति उत्पन्न हो सकती है। संविधान में सरकार के तीनों अंगों के बीच शक्ति का निर्धारण इस प्रकार किया गया है कि उनमें शक्ति संतुलन बना रहे और उनका आचरण संविधान की मर्यादाओं के विरुद्ध न हो। इसके मूल में संविधान के मूल्य, आदर्श सुरक्षित रखने की भावना भी विद्यमान है। यदि इन अंगों के बीच टकराहट उत्पन्न हो जाए, तो संविधान ही नष्ट हो सकता है। शक्ति-वितरण के माध्यम से यह सुनिश्चित करने का प्रयास किया गया है कि यदि कोई एक संस्था संविधान को नष्ट करना चाहे तो अन्य संस्थाएँ उसके अतिक्रमण को नियंत्रित कर संविधान की सुरक्षा कर सकती हैं। उदाहरणार्थ-भारतीय संविधान एक समान धरातल पर विधायिका, कार्यपालिका और को बाँट देता है। इसके अतिरिक्त संवैधानिक प्रावधानों के अधीन संघ और राज्यों के बीच भी विभिन्न सूचियों के माध्यम से शक्ति का वितरण किया गया है ताकि इनके बीच अधिकारों के उपयोग के विषय में किसी प्रकार की कड़वाहट और टकराहट न हो। विभिन्न संस्थाओं के बीच शक्ति-वितरण के केंद्र में नियंत्रण एवं संतुलन के सिद्धांत का पालन किया गया है। यदि विधायिका द्वारा अपने अधिकार का दुरुपयोग किया जाता है तो न्यायपालिका को यह अधिकार प्राप्त है कि वह इसके द्वारा निर्मित कानून को ही असंवैधानिक घोषित कर सकती है। उसी प्रकार, विधायिका कार्यपालिका के कार्यों को विभिन्न संवैधानिक प्रावधानों, जैसे-काम रोको प्रस्ताव, अविश्वास प्रस्ताव तथा संसद में इन मुद्दों को उठाकर उस पर नियंत्रण रख सकती है।
संविधान निर्माताओं ने अत्यंत सूझबूझ एवं दूरदर्शिता के साथ विभिन्न संस्थाओं की जिम्मेदारियों का निर्धारण किया है। यदि ऐसा नहीं किया जाता, तो इन संस्थाओं द्वारा परस्पर अतिक्रमण की घटनाएँ होती रहतीं जिससे अराजकता एवं अव्यवस्था की स्थिति उत्पन्न हो जाती। संस्थाएँ तानाशाही एवं निरंकुश भी हो सकती हैं। इसके परिणामस्वरूप जनता के अधिकार एवं स्वतंत्रताएँ भी सीमित हो सकती हैं। अंततः इससे देश का संवैधानिक ढाँचा ही चरमरा सकता है।

7. शासकों की सीमा का निर्धारण संविधान के लिए क्यों ज़रूरी है? क्या कोई ऐसा भी संविधान हो सकता है जो नागरिकों को कोई अधिकार न दे?
उत्तर- प्रत्येक संविधान द्वारा शासकों की सीमाओं का निर्धारण किया जाता है। इसके मूल में प्रमुख उद्देश्य शासकों की निरंकुश तथा असीमित शक्ति पर नियंत्रण लगाकर जनता के हितों को प्राथमिकता देना होता है। उनके अधिकारों को सुरक्षित रखना संविधान का एक महत्त्वपूर्ण कार्य है। संसद नागरिकों के कल्याण के लिए कानून बनाती है। कई बार संसद या मंत्रिमंडल के सदस्यों द्वारा ही इस प्रकार के कानून बनाने का प्रयास किया जाता है, जिसके माध्यम से जनता की स्वतंत्रता को सीमित करने का प्रयास किया जाता है। ऐसी स्थिति में संसद अथवा मंत्रिमंडल की इस शक्ति पर अंकुश लगाना आवश्यक होता है।
संविधान में शासकों की शक्तियों पर अंकुश के व्यापक प्रावधान मौजूद हैं। किसी भी प्रजातांत्रिक व्यवस्था में इस शक्ति का उपयोग जनता द्वारा मताधिकार के रूप में किया जाता है। इसके अतिरिक्त अविश्वास प्रस्ताव, काम रोको प्रस्ताव, स्थगन प्रस्ताव, प्रश्न पूछकर भी जनता द्वारा शासक वर्गों के निरंकुश और असंवैधानिक व्यवहार पर नियंत्रण रखा जाता है। संविधान शासकों की सीमाओं को अन्य तरीके से भी नियंत्रित करती है। संविधान में नागरिकों के मौलिक अधिकारों की स्पष्ट व्याख्या की गई है जिसका उल्लंघन कोई भी सरकार नहीं कर सकती हैं। नागरिकों को अकारण मनमाने ढंग से गिरफ्तार नहीं किया जा सकता है। सामान्य परिस्थिति में सरकार नागरिकों को प्राप्त मूल अधिकार पर किसी प्रकार का प्रतिबंध नहीं लगा सकती है, इस प्रकार शासकों की शक्ति पर सीमाएँ लगाई जाती हैं।
विश्व में कोई ऐसी संवैधानिक व्यवस्था नहीं है जिसमें नागरिकों को अधिकारविहीन करने का प्रावधान हो। यद्यपि तानाशाही शासकों द्वारा संवैधानिक प्रावधानों से परे आचरण किए जाने के कारण नागरिक स्वतंत्रताओं का अवश्य हनन किया जाता है। परंतु संविधान में नागरिकों के अधिकार एवं शक्तियों का पर्याप्त प्रावधान होता है।

8. जब जापान का संविधान बना तब दूसरे विश्वयुद्ध में पराजित होने के बाद जापान अमेरिकी सेना के कब्जे में था। जापान के संविधान में ऐसा कोई प्रावधान होना असंभव था, जो अमेरिकी सेना को पसंद न हो। क्या आपको लगता है कि संविधान को इस तरह बनाने में कोई कठिनाई है? भारत में संविधान बनाने का अनुभव किस तरह इससे अलग है?
उत्तर- दूसरे विश्वयुद्ध में पराजित होने के बाद जापान के समय जापान का संविधान बना, उस समय जापान पर अमेरिकी सेना का नियंत्रण था। इसके साथ ही संवैधानिक प्रावधानों पर अमेरिकी प्रभाव का होना स्वाभाविक है। जापान के संविधान का अमेरिकी नियंत्रण में निर्मित होने के कारण इसका कोई भी प्रावधान अमेरिका की सरकार की आकांक्षाओं के विरुद्ध नहीं था। इसमें अमेरिका के हितों एवं प्राथमिकताओं को पर्याप्त स्थान दिया गया है। देश के संविधान का निर्माण किसी दूसरे देश के प्रभाव में करना निश्चित रूप से बड़ा ही कठिन कार्य है। संविधान निर्माण की प्रक्रिया पर अन्य देश का नियंत्रण होने के कारण स्वयं उस देश की जनता की अपेक्षाएँ एवं आशाएँ उपेक्षित रह जाती हैं। इस प्रकार का संविधान जनता द्वारा नकार दिये जाने की स्थिति में होता है।
भारतीय संविधान का निर्माण सर्वथा भिन्न परिस्थितियों में हुआ था। संविधान का निर्माण एक प्रतिनिध्यात्मक संविधान सभा द्वारा किया गया था। इसके सदस्यों का निर्वाचन जनता द्वारा किया गया था। विभिन्न विषयों के लिए संविधान सभा में अलग-अलग समितियाँ थीं। सदस्यों द्वारा विभिन्न विषयों पर व्यापक तर्क-वितर्क एवं गहन विचार-विमर्श के बाद ही अंतिम निर्णय लिया गया। अतः संविधान का निर्माण लोकतांत्रिक आधार पर किया गया। यद्यपि सदस्यों के बीच मत-भिन्नता थी, तथापि देश के व्यापक हितों के मद्देनजर फैसले लिए गए। भारतीय संविधान का निर्माण एक लंबी प्रक्रिया का परिणाम है। संविधान निर्माण में लगभग 3 वर्ष का समय लगा। संविधान निर्माण में जनता की इच्छाओं और अपेक्षाओं को भी प्राथमिकता दी गई। भारतीय संविधान में समाज के सभी वर्गों के व्यापक हितों का ध्यान रखा गया है। अतः संविधान में समाज के सभी वर्गों को साथ लेकर चलने की विलक्षण क्षमता है। भारतीय संविधान को व्यापक जन-समर्थन मिलने का एक प्रमुख कारण यह भी है कि इसका निर्माण समाज के लोकप्रिय एवं सम्मानित नेताओं द्वारा किया गया। अतः संविधान निर्माण का भारतीय अनुभव दूसरे देशों से सर्वथा भिन्न था।

9. रजत ने अपने शिक्षक से पूछा-‘संविधान एक पचास साल पुराना दस्तावेज़ है और इस कारण पुराना पड़ चुका है। किसी ने इसको लागू करते समय मुझसे राय नहीं माँगी। यह इतनी कठिन भाषा में लिखा हुआ है कि मैं इसे समझ नहीं सकता। आप मुझे बताएँ कि मैं इस दस्तावेज़ की बातों का पालन क्यों करूं?" अगर आप शिक्षक होते तो आप रजत को क्या उत्तर देते?
उत्तर- रजत द्वारा पूछा गए प्रश्न का उत्तर यह हो सकता है की, संविधान पचास साल कानूनों का एक ऐसा संकलन है जिसका पालन समाज के व्यापक हितों के लिए बहुत आवश्यक है। क्योंकि कानूनों के कारण ही समाज में शांति और व्यवस्था कायम रहती है। इसके द्वारा लोगो के जीवन और सम्पत्ति का संरक्ष्ण सम्भव है साथ की लोग विकासशीलता के लिए स्वतंत्र भी है।
इसके अतिरिक्त संविधान सामान्य कानूनों से उच्च है। यह सरकार के तीनों अंगों-कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका से भी उच्च है, क्योंकि संविधान द्वारा निर्धारित प्रावधानों के आधार पर ही इन तीन अंगों का गठन होता है तथा इनकी शक्तियों का विभाजन होता है। इसके द्वारा ही जनता के अधिकार निर्धारित एवं सुरक्षित किए जाने का प्रावधान सुनिश्चित करता है। यह सरकार के निरंकुश स्वच्छेचारी आचरण पर अंकुश लगाता है। यह कहना गलत है कि संविधान पचास वर्ष पुराना पड़ चुका है और इसकी उपयोगिता समाप्त हो गई है। वास्तविकता तो यह है कि भारतीय संविधान की एक प्रमुख विशेषता यह है कि यह कठोर और लचीले संविधानों का मिश्रण है। इसमें समय, परिस्थितियों एवं आवश्यकताओं के अनुरूप परिवर्तन लाया जा सकता है। संशोधन की यह प्रक्रिया ही संविधान को लचीला बना देती है। हालाँकि विषयानुरूप संशोधन की अलग-अलग प्रक्रियाओं का प्रावधान है। कुछ विषयों में संसद के स्पष्ट बहुमत तथा उपस्थित एवं मतदान करने वाले सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत से पारित प्रस्ताव के आधार पर संशोधन किया जा सकता है। परंतु कुछ विषयों में संशोधन की प्रक्रिया जटिल है। इसके लिए कम से कम आधे राज्यों के विधानमंडलों से प्रस्ताव का अनुमोदित होना आवश्यक है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि मात्र आधे दशक में ही संविधान में 94 संशोधन किए जा चुके हैं। इस प्रकार समय की चुनौतियों का सामना करने के लिए संविधान में पर्याप्त प्रावधान मौजूद हैं।

10. संविधान के क्रिया-कलाप से जुड़े अनुभवों को लेकर एक चर्चा में तीन वक्ताओं ने तीन अलग-अलग पक्ष लिए-
  1. हरबंस-भारतीय संविधान एक लोकतांत्रिक ढाँचा प्रदान करने में सफल रहा है।
  2. नेहा-संविधान में स्वतंत्रता, समता और भाईचारा सुनिश्चित करने का विधिवत् वादा है। चूँकि ऐसा नहीं हुआ इसलिए संविधान असफल है।
  3. नाजिमा-संविधान असफल नहीं हुआ, हमने इसे असफल बनाया।
क्या आप इनमें से किसी पक्ष से सहमत हैं। यदि हाँ, तो क्यों? यदि नहीं तो आप अपना पक्ष बताएँ।
उत्तर- वाद-विवाद के माध्यम से इन वक्ताओं ने संविधान की सार्थकता, उपयोगिता और सफलता पर प्रश्न उठाने का प्रयास किया है। हरबंस के अनुसार भारतीय संविधान लोकतांत्रिक शासन का ढाँचा तैयार करने में संविधान में स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के वायदे किए गए, परंतु ये पूरे नहीं हुए। इस कारण संविधान असफल रहा, जबकि तीसरे वक्ता का दृष्टिकोण है कि संविधान स्वयं असफल नहीं हुआ, बल्कि हमने ही उसे असफल बनाया।
यह एक निर्विवाद तथ्य है कि भारतीय संविधान का निर्माण तत्कालीन समय के योग्यतम अनुभवी नेताओं द्वारा व्यापक विचार-विमर्श एवं गहन तर्क-विर्तक के आधार पर ही किया गया था। इसमें जनता की अपेक्षाओं, आशाओं का भरपूर ध्यान रखा गया। उनके व्यापक हितों को ध्यान में रखते हुए इसमें मौलिक अधिकारों का प्रावधान किया गया तथा न्यायपालिका को इन अधिकारों का संरक्षक और अभिभावक बनाया गया। एक ऐसा संविधान बनाया गया जो भारत जैसे विविधतापूर्ण राज्य में सभी वर्ग, समुदाय के लोगों को सर्वमान्य हो। व्यक्ति की गरिमा और स्वतंत्रता को मौलिक अधिकारों के माध्यम से सुनिश्चित किया गया। सत्ता का केंद्र जनता के हाथों में सौंपा गया जिसका प्रयोग जनता द्वारा मताधिकार के माध्यम से किया जाता है, क्योंकि जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों के माध्यम से ही सरकार का गठन किया जाता है। संविधान के प्रस्ताव में भारत को एक संप्रभु, किया गया है। इन सबके मूल में एक प्रमुख कारण यह था कि भारत में लोकतांत्रिक ढाँचा सुदृढ़ बने। जिसमें इसे काफी हद तक सफलता भी मिली है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि यहाँ सदैव एक निर्वाचित सरकार कार्यरत रही है। जनता द्वारा मताधिकार का प्रयोग किया जाता रहा है, यह अलग बात है कि चुनाव के समय धन का प्रयास किया जाता है जिससे संविधान की मूल भावना को आघात पहुँचता है।
नेहा के अनुसार संविधान असफल रहा, क्योंकि संविधान में स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के किए गए वायदे सफल नहीं हुए। लेकिन वास्तविक स्थिति इससे बिल्कुल भिन्न है। जनता द्वारा विभिन्न स्तरों पर व्यापक स्वतत्रता का उपयोग किया जाता है। कुछ विशेष स्थितियों में ही
सरकार द्वारा नागरिक स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाया जा सकता है। समाज के सभी वर्गों को शिक्षा, रोजगार तथा अन्य प्रकार की समानता प्राप्त है। छुआछूत और शत्-प्रतिशत सफलता नहीं मिली है तथापि स्थिति में सुधार सकारात्मक संकेत ही है।
तीसरी वक्ता नाजिमा का विश्वास है कि संविधान असफल नहीं हुआ बल्कि हमने इसे असफल बनाया। इस तर्क से सहमत होने के पर्याप्त कारण हैं। अपने हितों के मद्देनजर हम संविधान के मूल ढाँचे से भी समान कार्य के लिए समान वेतन इत्यादि अनेक प्रावधानों के होते हुए भी व्यवहार में ऐसा न होना यही दर्शाता है कि हमने संवैधानिक व्यवस्थाओं और प्रावधानों को पूरी सच्चाई और ईमानदारी से लागू नहीं किया है। संविधान में समाजवादी ढाँचे को अपनाया गया है, लेकिन आजादी की आधी शताब्दी के बाद भी देश की जनसंख्या का 26 प्रतिशत भाग गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन कर रहा है। आज भी देश के विभिन्न प्रांतों में लोग भूख से मर रहे हैं। ये सारे तथ्य इस बात की पुष्टि करते हैं कि कहीं न कहीं हमारा दोष है। फिर भी देश में हो रहे चहुँमुखी विकास, साक्षरता की बढ़ती दर, लोक-स्वास्थ्य की बेहतर स्थिति, गिरती मृत्यु दर, बढ़ती ओर इशारा करते हैं।