प्रबन्ध की प्रकृति एवं महत्त्व-पुनरावृति नोट्स

                                                            CBSE कक्षा 12 व्यवसाय अध्ययन

(भाग-1) पाठ-1 प्रबन्ध की प्रकृति एवं महत्त्व
पुनरावृति नोट्स


पाठ एक नज़र में-
अन्य लोगो से कार्य कराने की कला को प्रबन्ध कहा जाता है। यह निर्धारित उद्देश्यों को प्रभावी ढंग से एवं दक्षतापूर्ण प्राप्त के लिए किये गए कार्यो की प्रकिया है।
अतः प्रबन्ध को प्रभावशीलता एवं कार्यक्षमता से लक्ष्यों को प्राप्त करने हेतु कार्य कराने की प्रक्रिया के रूप में परिभाषित किया जा सकता है इसका उद्देश्य सर्वमान्य लक्ष्यों / उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु किए जाने वाले प्रयासों के सम्बन्ध में मार्गदर्शन करना होता है।

  • प्रभावपूर्णता बनाम् कुशलता
    अंतर का आधारप्रभावपूर्णता (Effectiveness)कुशलता (Efficiency)
     अर्थइसका अभिप्राय काम को समय पर पूरा करने से है चाहे कितनी ही लागत क्यों न आए।इसका अभिप्राय काम को न्यूनतम लागत पर पूरा करने से है।
     उद्देश्यअंतिम परिणामो को समय पर प्राप्त करना।लागत-लाभ विश्लेषण करना।
     मुख्य केंद्रसमयलागत
  • प्रबन्ध की विशेषताएँँ / लक्षण
    1. उद्देश्यपूर्ण प्रक्रिया:- प्रबन्ध लक्ष्य प्रधान प्रकिया है जो संगठनात्मक उद्देश्यों को प्राप्त करने में सहायता करती है।
    2. सर्वव्यापी:- प्रबन्ध सर्वव्यापी है जो सभी प्रकारों के संगठनो जसे सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक आदि के लिए आवश्यक है।
    3. बहुआयामी गतिविधियों:- प्रबन्ध एक बहुयामी गतिविधि है जो कार्य, व्यक्तियों तथा परिचालनो के प्रबन्ध से संबंधित होती है। प्रत्येक संगठन कुछ कार्य के लिए स्थापित किया जाता है। प्रबन्ध लोगों से कार्य करवाने की कला है। प्रबन्ध संगठन में विभिन्न क्रियाओं को पूर्ण करने में भी सक्षम है।
    4. निरंतर चलने वाली प्रकिया:- प्रबन्ध कोई ऐसी प्रकिया नही है जिसे हमेशा के लिए एक ही बार में कर लिया जाए बल्कि या एक सतत् तनरन्त प्रक्रिया है। प्रबन्ध के कार्य जैसे नियोजन, संगठन, नियुक्तिकरण, निर्देशन व नियंत्रण की आवश्यकता लगातार होती है।
    5. सामूहिक क्रिया:- प्रबन्ध एक सामूहिक गतिविधि है। एक संगठन में अनेक व्यक्ति संगठनात्मक लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए कार्य करते है। कोई भी प्रबंधकीय निर्णय अकेले में नही लिये जा सकते है। उदाहरण के लिए विपणन प्रबंधक, वित्तीय प्रबंधक से परामर्श करके ही साख सुविधा को बढ़ा सकता है। माल की आपूर्ति देने से पहले उत्पादन प्रबन्धक से परामर्श करना पड़ता है।
    6. गत्यात्मक कार्य:- प्रबन्ध एक गत्यात्मक कार्य है जिसे परिवर्तित वातावरण के अनुरूप कार्य करना पड़ता है। प्रबन्ध की आवश्यकता, समय एवं परिस्थित के अनुसार स्वयं व अपने लक्ष्यों में बदलाव करना पड़ता है। उदाहरण के लिए-MC Donalds ने भारतीय लोगों की पसंद के अनुसार अपनी सूची (Menu) में कई बदलाव है।
    7. उद्देश्य शक्ति: - प्रबन्ध एक शक्ति है जिसे देखा नि जा सकता केवल उसकी उपस्थिति को महसूस किया जा सकता है। जब एक संगठन में उद्देश्यों को योजनाओं के अनुरूप प्राप्त किया जा रहा हो तो कहा जाएगा कि यहाँ का प्रबंध अच्छा है।
  • प्रबन्ध के उद्देश्य:-
    1. संगठनात्मक उद्देश्य:- इसका अभिप्राय संगठन में उपलब्ध मानवीय व भौतिक संसाधनो को उपयोग सभी हितार्थियों के हित में करने से है।
      1. जीवित रहना प्रबन्ध द्वारा विभिन्न व्यावसायिक क्रियाओं से संबधित सकरात्मक। निर्णय लेकर यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए की व्यवसाय लम्बे समय तक जीवित रहे।
      2. लाभ अर्जित करना ताकि लागतों एवं जोखिमों को सहन किया जा सके।
      3. विकास करना ताकि भविष्य में संगठन और अच्छे प्रकार के कार्य कर सके। विकास को ‘बिक्री, कर्मचारी की संख्या, पूंजी विनियोग एवं उत्पादों की संख्या’ से मापा जा सकता है।
    2. सामाजिक उद्देश्य:- इसका अभिप्राय प्रबंधकीय क्रियाओं के दौरान सामाजिक हित का ध्यान रखने से है।
      1. उचित कीमत पर गुणवत्तापूर्ण वस्तुओं की आपर्ति करना।
      2. करो का ईमानदारी से भुगतान करना।
      3. उत्पादन की पर्यावरण मित्र विधियों को अपनाना आदि।
    3. वैयक्तिक उद्देश्य:- ये उद्देश्य संगठन के कर्मचारियों से सम्बधित होते है। प्रबन्ध को कर्मचारियों की भिन्न-भिन्न आवश्यकताओ को पूर्ण करना पड़ता है जैसे:- उचित पारिश्रमिक, सामाजिक आवश्यकता, व्यक्तिगत वृद्धि एवं विकास सम्बन्धी आवश्यकताएँँ। प्रबंध को वैयक्तिक एवंं संगठनात्मक उद्देश्यों में समन्वय रखना चाहिए।
  • प्रबन्ध का महत्त्व:-
    • सामूहिक लक्ष्यों की प्रप्ति:- प्रबन्ध समहू के कर्मचारियों में टीम भावना एवं समन्वय का निर्माण करता है, जिससे संस्थागत लक्ष्यों की प्रप्ति की जो सके।
    • कार्यक्षमता में वृद्धि:- प्रबन्ध कार्यक्षमता बढ़ता है। इसके माध्यम से संसाधनो का उचित उपयोग सम्भव हो पाता है, जिससे लागते कम होती है तथा उत्पादकता बढती है।
    • गतिशील संगठन का निर्माण:- प्रबन्ध, परिवर्तन से होने वाले लाभों से कर्मचारियों को अवगत कराकर विरोध को समाप्त करते है।  इस संगठन पयार्वरण की चुनौतियो का सामना आसानी से कर सकता है।
    • व्यक्तिगत उद्देश्य प्रबन्ध वैयक्तिक उद्देश्यों को पाने में सहायता करता है। यह अभिप्रेरणा एवं नेतृत्व के माध्यम से कर्मचारियों में समूह भावना का विकास करता है तथा व्यक्ति लक्ष्यों एवं संगठनात्मक लक्ष्यों में तालमेल बैठाता है।
    • समाज के विकास में सहायक:- प्रबन्ध समाज के विकास में सहयता करता है। यह गुणात्मक माल एवं सेवाओ का प्रदान करके, रोजगार के अवसर सृजित करके उत्पादन की नई तकनीके बनाकर समाज के विकास के लिए कार्य करता है।
  • प्रबन्ध की प्रकृति:- प्रबन्ध विज्ञान है या कला अथवा पेशा। कुछ विद्वान प्रबन्ध को कला बताते है, क्योंकि प्रबन्धक ज्ञान एवं कौशल के व्यावहारिक प्रयोग से समबन्ध रखता है। जबकि कुछ विद्वान इसे विज्ञान मानते है क्योंकि यह उचित रूप से जांचे गये सिद्धान्तो का प्रतिनिधि करता है। कुछ इसे पेशा भी मानते है।
  1. प्रबन्ध एक कला के रूप में:- कला की कुछ विशेषताएँँ होती है जो की निम्नलिखित है:-
    1. सैद्धान्तिक ज्ञान:- जिसके लिए क्रमबद्ध एवं संगठन अध्ययन सामग्री उपलब्ध होनी आवश्क है।
    2. वैयक्तिक प्रयोग:- एक व्यक्ति दूसरे से भिन्न प्रकार से कार्य करता है, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति के कार्य करने की शैली भिन्न होती है।
    3. अभ्यास एवं सृजनशीलता:- कला में विद्यमान सैणन्तिक ज्ञान, सृजनशीलता तथा अभ्यास समाहित होता है। एक कलाकर की क्षमता इस बात पर निर्भर करती है की उसने कितना अभ्यास किया है तथा वह कितना सृजनशील है।
      प्रबन्ध के भी विभिन्न क्षेत्रों से सबंधित बहुत साहित्य उपलब्ध है। सभी प्रबन्धक अपने ज्ञान के स्तर के आधार पर अलग-अलग ढंग से व्यवसाय को चलाते है तथा हर प्रबन्धक अभ्यास, सृजनशीलता, नवीकरण के संयोग आदि के माध्यम से आगे बढ़ता है।
      प्रबन्ध में कला की सभी विशेषताएँ समाहित होती है अतः इसे कला कहा जा सकता है।
  2. प्रबन्ध एक विज्ञान के रूप में:- विज्ञान किसी विषय का क्रमबद्ध ज्ञान होता है जो सही निष्कर्ष वाले निश्चित सिद्धांतों पर आधारित होता है, जिसकी जाँच की जा सकती है।
    विज्ञान की निम्नलिखित विशेषताएँ होती है:-
    1. ज्ञान का क्रम क्रमबद्ध रूप जो सिद्धांतों, अभ्यासों एवं प्रयोगों पर आधारित होता है।
    2. प्रयोग एवं अवलोकन पर आधारित सिद्धांत।
    3. सार्वभौमिक रूप से स्वीकृत सिद्धांत जिन्हें कही भी तथा कभी भी सिद्ध किया जा सकता है।
    4. कारण एवं प्रभाव सम्बन्ध-विज्ञान में सभी चरो का कारण एवं प्रभाव सबंध होता है। प्रबन्ध में भी सिद्धांतो एवं नियमों का क्रमबद्ध रूप विद्यमान होता है जो संगठनात्मक अभ्यासों को समझने में सहायक होते है। प्रबन्ध के अपने सिद्धान्त है जो कारण एवं प्रभाव से सम्बन्ध स्थापित करते है, परन्तु विज्ञान की तरह ये सिद्धान्त सटीक नही होते, इनमे परिस्थिति के अनुसार सुधार किया जा सकता है।
      मनुष्य की प्रकृति परिवर्तनशील है, इसलिए मानव तत्व के विद्यमान होने की वजह से प्रबन्ध विशुद्ध विज्ञान न होकर सामाजिक विज्ञान है।
  3. पेशे के रूप प्रबन्ध:- पेशा वह जीविक का साधन है जो विशिष्ट ज्ञान और प्रशिक्षण द्वारा समाज के विभिन्न वर्गो की सेवा के लिए किया जाता है। जिसमे प्रवेश प्रतिबन्धित होता है।
    इसकी मुख्य विशेषताएँ इस प्रकार है:-
    1. ज्ञान का सुभाषित निकाय:- सभी पेशे परिभाषित ज्ञान के समूह पर आधारित होते है जिसे शिक्षा से अर्जित किया जाता है।
    2. प्रतिबन्धित प्रवेश:- प्रत्येक पेशे में परीशा अथवा शैक्षणिक योग्यता के आधार पर प्रवेश होता है।
    3. सेवा उद्देश्य:- प्रत्येक पेशे का मुख्य उद्देश्य अपने ग्राहकों की सेवा करना होता है।
    4. नैतिक आचार संहिता:- सभी पेशे किसी न किसी पेशेवर संघ से जुड़े होते है जो इनमे प्रवेश का नियमन करते है।
      प्रबन्धक के लिए किसी विशिष्ट डिग्री या लाइसेंस का होना अनिवार्य नहीं है और न ही किसी आचार संहिता का पालन करना पड़ता है।
      प्रबन्ध पेशे की सभी विशेषताओं को संतुष्ट नही करता, अतः इसे एक पूर्ण पेशा नही कहा जा सकता।
  • प्रबन्ध का स्तर
    1. उच्चस्तरीय प्रबन्ध के प्रमुख कार्य:- इसके अर्न्तगत CEO, चीफ ऑपरेटिंग ऑफिसर निदेशक कार्य मंडल आदि आते है। इनके मुख्य उद्देश्य निर्धारित करना, योजनाओ और नीतियों का ढांचा तैयार करना, एवं दूसरे लोगों के प्रयासों को निर्देशन और नेतृत्व करना, वित्त एकत्रित करना व व्यवसाहिक गतिविधियों का समाज पर पड़ने वाले प्रभाव के विषय में उत्तरदेयता का वहन आता है।
    2. मध्य स्तरीय प्रबन्ध के प्रमुख कार्य:- इस स्तर के अर्न्तगत विभागीय प्रमुख, प्लांट सुपरिटेंदेट व परिचालन प्रबन्धक आते है। इनके मुख्य कार्य उच्च स्तर द्वारा बनाई गई योजनाओ और नीतियों का निष्पादन करना। उच्च एवं निम्न स्तरीय प्रबन्ध के बीच कड़ी का कार्य करना। यह संसाधनों को एकत्रित एवं संगठित करते है। कर्मचारियो को प्रेरित करना, सम्बन्धित विभागों को विस्तृत निर्देशन देना।
    3. निम्न स्तरीय प्रबन्ध के प्रमुख कार्य:- इस स्तर के प्रबन्धक फोरमैन, पर्यवेक्षक होते है इस समूह के प्रबन्धक वास्तव में उच्च और मध्य स्तरीय प्रबन्ध की योजनाओं के अनुसार क्रियाओ को निष्पादन करते है। ये उपकरणों की व्यस्था, श्रमिको का चयन, प्रशिक्षण श्रमिको के बीच अनुशासन बनाना, उनका मनोबल बढ़ाने तथा उन्हें उचित कार्यदशाएँ उपलब्ध करने का कार्य करते है।
  • प्रबन्ध के कार्य:-
    1. नियोज़न:- "क्या करना है, कैसे करना है और किसके द्वारा किया जाएगा, इसके बारे में पहले से निर्णय करना।
    2. संगठन:- क्रियाओ को संगठित करना योजनाओं के निष्पादन के लिए संगठन के ढाँचे को स्थापित करना। इसका अभिप्राय सामूहिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए विभिन्न अंगो में मैत्रीपूण समायोजन करना है।
    3. नियुक्तिकरण:- इसका अभिप्राय भर्ती करने, प्रवर्तन, वृद्धि इत्यादि का निर्णय करने, कार्य का निष्पादन, मूल्यांकन एवंं कर्मचारियों का व्यक्तिगत रिकॉर्ड बनाए रखने से है। जिसमे प्रशिक्षण भी शामिल है।
    4. निर्देशन:- नियुक्ति के पश्चात कर्मचारियों को सूचना, मार्गदर्शन देना, प्रेरित करना, पर्यवेक्षण करना तथा उनके साथ सम्प्रेषण करना।
    5. नियन्त्रण:- वास्तविक कार्य निष्पादन को नियोजित कार्य निष्पादन के साथ मेल करना तथा अंतर (यदि है तो) के कारणों का पता लगाकर शोधक मापों का सुझाव देना। इसका उद्देश्य वास्तविक परिणामों को इच्छित परिणामो के नजदीक लाना है।
  • समन्वय
    समन्वय को शाब्दिक अर्थ है तालमेल अर्थात किसी व्यस्था के विभिन्न लोगो गतिविधियों में सामजस्य स्थापित करना समन्वय कहलाता है। एक व्यवसायिक उपक्रम के संदर्भ में, समन्वय का अर्थ व्यासाय की विभिन्न क्रियाओं (क्रय, विक्रय, उत्पादन, वित्त, सेविवर्गीय आदि) को संतुलित करना है ताकि व्यवसाय के उद्देश्य को आसानी से प्राप्त किया ज सके।
    प्रबन्ध के तीनों स्तरों को एक नज़र से देखा जाए तो अपने आप में एक समूह बन जाता है और समूह का नाम आते ही पुनः समन्वय की जरूरत महसूस होती है। इसलिए समन्वय प्रबन्ध का सार है।
  • समन्वय की प्रकृति एवं विशेषताएँ:-
    1. समन्वय सामूहिक प्रयासों  को एकत्रित रखता है:- समन्वय विभिन्न व्यावसायिक गतिविधि में एकता लाकर उन्हें उद्देश्यपूर्ण गतिविधि के रूप में सामान्य लक्ष्य की ओर अग्रसर करता है।
    2. प्रयासों की एकात्मकता को सुनिश्चित करता है:- समन्वय व्यक्तियों के प्रयासों में एकता लाता है तथा विभिन्न विभागों को जोड़ने की शक्ति का कार्य करता है।
    3. सतत्् प्रक्रिया है:- समन्वय एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया।
    4. सभी प्रबंधकों का उत्तरदायित्व है:- समन्वय प्रत्येक प्रबंधक का कार्य है। सभी स्तर के प्रबंधकों को समन्वय कार्य करना पड़ता है।
    5. एक व्यापक कार्य है:- विभिन्न विभागों की क्रियाएँ प्रकृति से एक दूसरे पर निर्भर करती है, इसलिए समन्वय की आवश्यता प्रबंध के सभी स्तरों पर होती है।
    6. एक ऐच्छिक कार्य है:- एक संगठन में सदस्य स्वेच्छा से एक दूसरे से सहयोग करता है, जबकि समन्वय प्रबन्धको की ओर से किए जाने वाले प्रयासों को समाहित करता है, अतः यह सोचा समझा कार्य है।
  • समन्वय प्रबन्ध का सार है
    समन्वय प्रबन्ध को कोई अन्य नही है। बल्कि यह प्रबन्ध के अर्थ अन्य सभी कार्यो का एक मुख्य हिस्सा है। अर्थात जब एक प्रबन्धक प्रबन्ध के सभी कार्यों को पूरा करता है तो वह संवय की स्थापना में ही व्यस्त रहता है।
    1. नियोजन:- सभी विभागों को ध्यान में रखकर की नियोजन किया जाता है।
    2. संगठनत:- अधिकार, उत्तरदायित्व तथा जवाबदेही में समाजस्य।
    3. नियुक्तिकरण:- सभी पदों को योग्य तथा अनुभवी व्यक्तियों से भरा जाए ताकि संस्था की सभी क्रियाएं बिना रुकावट से चलती रहे।
    4. निर्देशन:- पर्थवेक्षण, अभिप्रेरणा तथा नेतृत्व में सामजस्य।
    5. नियन्त्रण:- नियन्त्रण द्वारा संस्था के उद्देश्यों, उन्हें प्राप्त करने के लिए उपलब्ध साधनों, एक मानवीय प्रयासों में सतुलन स्थापित किया जाता है।
  • समन्वय की आवश्यकता
    1. संगठन का आकार: संगठन के अनुसार में व्रद्धि होने से, विभिन्न महत्त्वाकांक्षाकों वाले कई व्यक्ति उससे जुड़ जाते है। समन्वय की सहायता से व्यक्तिगत उद्देश्यों को संगठन के उद्देश्यों से जोड़ा जा सकता है।
    2. कार्यात्मक विभेदीकरण:- संस्था के विभिन्न विभाग अपने अपने हितो को साधने को आधिक महत्त्व दे सकते है। जिससे मतभेद उत्पन्न हो जाते है ऐसे में समन्वय द्वारा हो संस्था के हितो को प्राप्त किया जा सकता है।
    3. विशिष्टिकरण:- विशिष्टिकरण श्रेष्ठता की भवता को जन्म देता है। इसलिए यह संभव है की केवल अपने विभाग क्रियाओं पर है हो अधिक बल दिया जाए। समन्यवय पूर्ण रुपेण कार्य के लिए सभी विशिष्ट क्रियाओ को समन्वित प्रयास में बांधता है।
  • समन्वय की आवश्यकता प्रबन्ध के सभी स्तरों पर होती है।
    1. उच्चस्तर – संगठनात्मक उद्देश्यों की प्राप्ति
    2. मध्यस्तर – विभिन्न विभागों का समन्वय
    3. निम्नस्तर – कार्यो तथा योजनाओ का समन्वय