अपठित गद्यांश - अभ्यास प्रश्नोत्तर

 CBSE कक्षा 11 हिंदी (केन्द्रिक)

अध्ययन सामग्री


खण्ड-क (अपठित गद्यांश)

निम्नलिखित गद्यांशों को पढ़कर उस पर आधारित प्रश्नों के उत्तर लिखिए-(10 अंक)

  1. हर मनुष्य की अपनी कुछ कल्पनाएँ होती हैं। कल्पना करने और सपने देखने में फर्क है। कल्पना में उत्सुकता जुड़ने के साथ यदि मनुष्य अपनी इन्द्रियों पर संयम न रखे तो यहीं से प्रलोभन आरम्भ होता है। जीवन में प्रलोभन आया और नैतिक दृष्टि से आप ज़रा भी कमज़ोर हुए तो पतन की पूरी सम्भावना बन जाती है। देखते ही देखते आदमी विलासी, नशा करने वाला, आलसी, भोगी हो जाता है। प्रलोभन इन्द्रियों को खींचते हैं। इनका कोई स्थायी आकार नहीं होता, न ही कोई स्पष्ट स्वरूप होता है। इनके इशारे चलते हैं और इन्द्रियाँ स्वतंत्र होकर दौड़ भाग करने लगती हैं। गुलामी इन्द्रियों को भी पसंद नहीं। वे भी स्वतंत्र होना चाहती हैं। दुनिया में हरेक को स्वतंत्रता पसंद है और उसका अधिकार है, लेकिन जिस दिन इन्द्रियों का स्वतंत्रता दिवस शुरू होता है, उसी दिन से मनुष्य की गुलामी के दिन शुरू हो जाते हैं। इन्द्रियाँ सक्रिय हुई और मनुष्य की चिंतनशील सहप्रवृत्तियाँ विकलांग होने लगती हैं। देखा जाए तो बाहरी संसार की वस्तुओं में आकर्षण नहीं होता, लेकिन जब हमारी कल्पना और उत्सुकता उस वस्तु से जुड़ती हैं, तब उसमें आकर्षण पैदा हो जाता है। विवेक का नियंत्रण ढीला पड़ने लगता है, इन्द्रियों के प्रति हमारी सतर्कता गायब होने लगती है और वे दौड़ पड़ती हैं। इन्द्रियों को रोकने के लिए दबाव न बनाएँ। रुचि से उनका सदुपयोग करें। इसमें सत्संग बहुत काम आता है। सत्संग में मनुष्य की इन्द्रियाँ डायबर्ट होनी शुरू होती हैं। उनके आकर्षण के केन्द्र बदलने लगते हैं। उसमें एक ऐसी सुगंध होती है कि इन्द्रियाँ फिर उसी के आसपास मँडराने लगती हैं और यह हमारी कमज़ोरी की जगह ताकत बन जाती है।
    1.  उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए। (2)
    2. इन्द्रियों के स्वतंत्र होने पर उसका परिणाम क्या होता है(2)
    3. इन्द्रियों के उपयोग की बात किस रूप में की गई है(2)
    4. सहप्रवृत्ति से क्या तात्पर्य है(2)
    5. 'आकर्षण' और 'स्वतंत्र' का विलोम शब्द लिखिए। (2)
  2. फिजूलखर्ची एक बुराई है, लेकिन ज्यादातर मौकों पर हम इसे भोग, अय्याशी से जोड़ लेते हैं। फिजूलखर्ची के पीछे बारीकी से नज़र डालें तो अहंकार नज़र आएगा। अहं को प्रदर्शन से तृप्ति मिलती है। अहं की पूर्ति के लिए कई बार बुराइयों से रिश्ता भी जोड़ना पड़ता है। अहंकारी लोग बाहर से भले ही गम्भीरता का आवरण ओढ़ लें, लेकिन भीतर से वे उथलेपन और छिछोरेपन से भरे रहते हैं। जब कभी समुद्र तट पर जाने का मौका मिले, तो देखिएगा लहरें आती हैं, जाती हैं और यदि चट्टानों से टकराती हैं तो पत्थर वहीं रहते हैं, लहरें उन्हें भिगोकर लौट जाती हैं। हमारे भीतर हमारे आवेगों की लहरें हमें ऐसे ही टक्कर देती हैं। इन आवेगों, आवेशों के प्रति अडिग रहने का अभ्यास करना होगा, क्योंकि अहंकार यदि लम्बे समय टिकने की तैयारी में आ जाए तो वह नए-नए तरीके ढूँढे़गा। स्वयं को महत्त्व मिले अथवा स्वेच्छाचारिता के प्रति आग्रह, ये सब फिर सामान्य जीवनशैली बन जाती है। ईसा मसीह ने कहा है - मैं उन्हें धन्य कहूँगा, जो अंतिम हैं। आज के भौतिक युग में यह टिप्पणी कौन स्वीकारेगा, जब नम्बर वन होने की होड़ लगी है। ईसा मसीह ने इसी में आगे जोड़ा है कि ईश्वर के राज्य में वही प्रथम होंगे, जो अंतिम हैं और जो प्रथम होने की दौड़ में रहेंगे, वे अभागे रहेंगे। यहाँ अंतिम होने का संबंध लक्ष्य और सफलता से नहीं है। जीसस ने विनम्रता, निरहंकारिता को शब्द दिया है 'अंतिम'। आपके प्रयास व परिणाम प्रथम हों, अग्रणी रहें, पर आप भीतर से अंतिम हों यानि विनम्र, निरहंकारी रहें। वरना अहं अकारण ही जीवन के आनंद को खा जाता है।
    1. उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए। (2)
    2. 'अंतिम' शब्द का अभिप्राय स्पष्ट करें। (2)
    3. फिजूलखर्ची को सूक्ष्म दृष्टि से क्या कहा गया है(2)
    4. अहंकारी व्यक्तियों की किन कमियों की ओर संकेत किया गया है(2)
    5. 'निरहंकारिता' शब्द में उपसर्ग और प्रत्यय छाँटिए। (2)
  3. जब हम परेशान होते हैं या अपनी किसी गलती के कारण किसी को जिम्मेदार बनाने पर उतारू होते हैं, तब काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार जैसे शब्दों को कोसने लगते हैं। हमें लगता है सारी झंझटें इन्हीं के कारण हैं। इन्हें बुरा कहा जाता है और इनके परिणामों पर खूब प्रवचन होते हैं, लेकिन आधा सच पूरे झूठ से भी खतरनाक है। गुरुनानक देव ने एक जगह कहा है - अंधा-अंधा ठेलिया। अंधे लोग अंधों को ही धक्का दे रहे हैं। ये हमारी मनोवृत्तियाँ हैं और इन्हें ठीक से नहीं समझ पाने के कारण हम अंधों की तरह व्यवहार करने लगते हैं। अपने काम-क्रोध को दूसरे के काम-क्रोध से जोड़ लेते हैं। यही अंधा-अंधा ठेलिया वाला व्यवहार होता है। इन मनोवृत्तियों से काम लिए बिना जिंदगी चल भी नहीं सकती। परमात्मा ने जन्म से हमें इन्हें दे रखा है। इसका मतलब ही है कि इनका कोई न कोई उपयोग जरूर होगा। इसलिए दिमाग ठीक जगह लगाया जाए। क्रोध में जो उत्तेजना होती है, यदि उसे समझ लिया जाए तो उसे उत्साह में बदलना आसान हो जाएगा। उत्साह एक ताकत है। यह एक तरह की सामर्थ्य है। खाली क्रोध कमज़ोरी और नियन्त्रित क्रोध ताकत बन जाता है। लोभ मनुष्य को उन्नति, प्रगति और विकास की ओर ले जाता है। लोभ क्रियाशील भी बनाता है। मोह न हो तो लोभ एक दूसरे के प्रति घातक हो जाए। निर्मोही भाव यदि ठीक से न समझा जाए तो निर्ममता में बदल जाता है। इसलिए इन मनोवृत्तियों को समझना बहुत जरूरी है। इनका सदुपयोग इनकी ताकत से हमें जोड़ता है।
    1. उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए। (2)
    2. मनुष्य अपनी किस अवस्था में किन शब्दों को कोसने लगता है(2)
    3. मनुष्य अंधों की तरह व्यवहार किन स्थितियों में करता है(2)
    4. क्रोध को सकारात्मक स्वरूप देने पर वह किस रूप में परिवर्तित हो जाता है(2)
    5. 'क्रियाशील' और 'उत्साह' का विलोम शब्द लिखिए। (2)
  4. जीवन में जब भी कोई उपलब्धि होती है तो उसे दो दृष्टि से देखें। सांसारिक उपलब्धि में परिश्रम और समर्पण के साथ क्रमिक स्थितियाँ बनती हैं और तब एक दिन सफलता मिलती है। अध्यात्म में प्रेम और प्रार्थना के साथ स्थितियाँ आरम्भ होती हैं, लेकिन जो उपलब्धि होती है, तब अचानक छलांग-सी लग जाती है। ऐसा लगता है जैसे कोई विस्फोट हो गया हो। यहाँ की सफलता एक हार्दिक दशा है। संसार की सफलता भौतिक स्थिति है। सुंदरकाण्ड में हनुमान जी माता सीता से मिलकर लंका से लौटे और जिन वानरों को समुद्र तट पर छोड़ कर गए थे, उनसे फिर मिले। यहाँ तुलसीदास जी ने लिखा-हरषे सब बिलोक हनुमाना। नूतन जन्म कपिन्ह तब जाना।। मुख प्रसन्न तन तेज बिराजा। कीन्हेसि रामचंद्र कर काजा।। हनुमान जी को देखकर सब हर्षित हो गए। और वानरों ने अपना नया जन्म समझा। हनुमान जी का मुख प्रसन्न है और शरीर में तेज विराजमान है। ये श्रीरामचन्द्र जी का कार्य कर आए हैं। मिले सकल अति भए सुखारी। तलफत मीन पाव जिमि बारी।। सब हनुमान जी से मिले और बहुत ही सुखी हुये, जैसे तड़पती हुई मछली को जल मिल गया हो। इस समय हनुमान जी के मुख पर प्रसन्नता और तेज था। हनुमान जी बताते हैं कि कितना ही बड़ा काम करके लौटें, अपनी प्रसन्नता को समाप्त न करें। हमारे साथ उल्टा होता है। हम बड़ा और अधिक काम कर लें तो अपनी थकान व चिड़चिड़ाहट दूसरों पर उतारने लगते हैं। इसलिए खुश रहना आसान है, लेकिन दूसरों को खुश रखना कठिन है। हनुमान जी से सीखा जाए - खुश रहें और खुश रखें।
    1. उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए। (2)
    2. जीवन की उपलब्धियों को किन-किन दृष्टियों से देखने की जरूरत है(2)
    3. आध्यात्मिक और सांसारिक सफलताओं में क्या अन्तर है(2)
    4. प्रस्तुत गद्यांश में निहित संदेश बताइए। (2)
    5. गद्यांश में निहित उद्देश्य और सामान्य मनुष्य की सोच में क्या अन्तर होता है(2)
  5. घर, घर नहीं हैं; वरन् गृहिणी ही घर कही जाती है। यह बात महाभारत के शांति पर्व में व्यक्त की गई है। आज भारत के परिवारों में जिन-जिन बातों ने तेजी से प्रवेश किया है, उनमें से एक अशांति भी है। जो लोग चाहते हों कि हमारे गृहस्थ जीवन में शांति बनी रहे, उन्हें घर की स्त्रियों को समझना और सम्मान देना होगा। माता संबोधन में भारतीय घरों का अमृत भण्डार भरा हुआ है। जिस घर के केन्द्र में माँ प्रतिष्ठित है समझ लीजिए परमात्मा स्थापित है। दरअसल, जब-जब नारी स्वतंत्रता की बात की गई, हमने उसकी बाहरी प्रतिष्ठा पर ही ध्यान दिया है। स्त्रियों ने भी इसे इसी रूप में लिया और इसीलिए घर से बाहर निकलने को ही नारी का विकास मान लिया गया, लेकिन घरों में स्त्री के आंतरिक विकास की जरूरत हैं, क्योंकि जीवन के कुछ महत्त्वपूर्ण सूत्र उन्हीं के हाथ में हैं और उनमे से एक है संतान को जन्म देना। शास्त्रों में स्पष्ट व्यक्त किया गया है कि भार्या पुरुष का आधा भाग व उसकी श्रेष्ठतम मित्र है। हमने स्त्रियों के बाहरी विकास को लेकर जागरूकता दिखाई, संघर्ष किए, लेकिन स्त्री अपने जीवन का महत्त्वपूर्ण हिस्सा संवेदनाओं के साथ भीतर से जीती है। जीवन जिस रस का नाम है, उसे क्रम से प्राप्त करना पड़ता है। प्रेमपूर्ण जीवन नारियों का सहज स्वभाव हो जाता है। इसको प्रेरित करने और बचाने के लिए स्त्रियों को ध्यान योग के माध्यम से पहले शरीर की आवश्यकताएँ पूरी करनी चाहिए, उसके बाद मन की ओर बढ़े, फिर आत्मा तक चलें। चौथी अवस्था आती है आनंद की। देखा गया है माताएँ-बहनें ध्यान-योग से कम जुड़ती हैं, लेकिन उनके आंतरिक विकास के लिए यही एक राजपथ है।
    1. उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए। (2)
    2. गृहस्थ जीवन में शांति का उपाय क्या है(2)
    3. परमात्मा की स्थापना को किस रूप में देखा गया है(2)
    4. प्रेमपूर्ण जीवन को प्राप्त करने के लिए नारियों को क्या करना चाहिए। (2)
    5. 'स्वतंत्रता' और 'जागरूकता' में उपसर्ग-प्रत्यय अलग-अलग कीजिए। (2)