औद्योगिक समाज में परिवर्तन और विकास - पुनरावृति नोट्स

CBSE कक्षा 12 समाजशास्त्र
[खण्ड-2] पाठ - 5 औद्योगिक समाज में परिवर्तन तथा विकास
पुनरावृत्ति नोट्स

मुख्य बिन्दु-
  1. औद्योगिक समाज की कल्पना
    • प्रौद्योगिकी में होने वाले परिवर्तन सामाजिक संबंधों में भी परिवर्तन लाते हैं तथा समाजिक संस्थाएँ (जाति, नातेदारी, लिंग) को भी प्रभावित करते है। औद्योगिकरण से बहुत अधिक श्रम विभाजन होता है। लोग अधिकतर अपने कार्यों का अंतिम रूप नहीं देख पाते क्योंकि उन्हें उत्पादन के एक छोटे से पुर्जे को बनाना होता है। अक्सर यह कार्य दोहराने और थकाने वाला होता है, लेकिन फिर भी बेरोजगार होने से यह स्थिति अच्छी है। माक्र्स ने इसे अलगाव कहा है जिसमें लोग अपने कार्य से प्रसन्न नहीं होते उनकी उत्तरजीविका भी इस बात पर निर्भर करती है कि मशीनें मानवीय श्रम के लिए किना स्थान छोड़ती है।
    • औद्योगीकरण कुछ स्थानों पर जबरदस्त समानता लाता है जैसे- रेलगाड़ियाँ, बस आदि में जातीय भेदभाव न होना। तो दूसरी तरफ कारखानों और कार्यस्थलों में भेदभाव अभी भी देखा जा सकता है।
  2. भारत में औद्योगीकरण
    • 1999-2000 में भारत में लगभग 60 प्रतिशत लोग तृतीयक क्षेत्र, 17 प्रतिशत द्वितीयक क्षेत्र, 23 प्रतिशत तृतीयक क्षेत्र में कार्यरत थे। कुषि कार्यों में तेजी से ह्रास हुआ और सरकार उन्हें अधिक आमदानी देने में सक्षम नहीं है।
    • संगठित/ औपचारिक क्षेत्र की इकाई में 10 और अधिक लोगों के पूरे वर्ष रोजगार में रहने से इन क्षेत्रों का गठन होता है। पेंशन व अन्य सुविधाएँ मिलती है। कुषि, उद्योग असंगठित/औपचारिक क्षत्र की इकाई में 10 और अधिक लोगों के पूरे वर्ष रोजगार में रहने से इन असंगठित/ अनौपचारिक क्षेत्र में आते है। असंगठित क्षेत्र में रोजगार स्थाई नहीं होता है। पेंशन व बीमा का समुचित प्रावधान नहीं होता है।
  3. भारत के प्रारम्भिक वर्षों में औद्योगीकरण- रूई, जूट, रेलवें तथा कोयला खाने भारत के प्रथम उद्योग थे। स्वतंत्रता के बाद भारत ने परिवहन संचार, ऊर्जा, खान आदि को महत्व दिया गया। भारत की मिश्रित आर्थिक नीति में (निजी एवं सार्वजनिक उद्योग) दोनों प्रकार शामिल थे।
  4. भूमंडलीकरण, उदारीकरण एवं भारतीय उद्योग में परिवर्तन
    • 1990 से सरकार ने उदारीकरणा नीति को अपनाया है तथा दूर संचार, नागरिक उड्डयन ऊर्जा आदि क्षेत्रों में निजी कपनियाँ विशेषकर विदेशी फर्मों को प्रोत्साहित किया जा रहा है। बहुत-सी भारतीय कपंनियों को विदेशियों ने खरीद लिया है। तथा कुछ भारतीय कपंनियाँ बहुराष्ट्रीय कपंनियाँ बन गई है। इसके कारण आमदनी की असमानताएँ बढ़ रही है। बड़े उद्योग में सुरक्षित रोजगार कम हो रहे हैं। किसान तथा आदिवासी लोग विस्थापित हो रहे है।
    • सरकार सार्वजनिक कपनियों के अपने शेयर्स को निजी क्षेत्र की कपनियों की बेचने का प्रयास कर रही है जिसे विनिर्वेश कहा जाता है। इससे कर्मचारियों को नौकरी जाने का खतरा रहता है।
  5. लोग किस तरह काम पाते हैं- रोजगारों के विज्ञापन द्वारा बहुत कम लोग रोजगार पाते हैं, जबकि निजी सम्पकों द्वारा स्वनियोजित लोग काम के आधार पर व्यवसाय करत है। एक फैक्ट्री के कामगार ठेकेदार द्वारा काम पाते है। जो पहले स्वयं कामगार थे।
  6. काम को किस तरह किया जाता है- मैनेजर कामगारों को नियंत्रित करके अधिक काम कराते हैं। कामगारों से अधिक कार्य करवाने के दो तरीके होते हैं-
    • कार्य के घंटों में वृद्धि तथा निर्धारित समय में उत्पादित वस्तु की मात्रा को बढ़ा देना। उत्पादन बढ़ाने के अन्य तरीका है कार्य को संगठित रूप से करना। इसे टेलरिज्म या औद्योगिक इंजीनियरिंग भी कहते है। एक अमेरिकन फैडरिक विनस्लो टेलर ने वैज्ञानिक प्रबंधन के नाम से इस व्यवस्था का आविष्कार किया। इस व्यवस्था में स्टापवाच की सहायता से छोटे-छोटे पुर्जों को तोडर कामगारों में बांटना, कार्य को समय के साथ पूरा करना कार्य को तेज करने के लिए एसेंबली लाइन का प्रयोग करना कार्य, करने की गति को कन्वेयर बेल्ट के साथ गति रखना आदि। कारखाने में सभी कार्य ब्राह्म स्त्रोतों से करवाते है। इस प्रकार का कार्य कम्पनी को सस्ता पड़ता है।
    • अधिक मशीनों वाले उद्योगों में, कम लोगों को काम दिया जाता है, लेकिन जो होते है उन्हें भी मशीनी गति से काम करना होता है जैसे मारूति गति से काम करना होता है जैसे मारूति उद्योग लिमिटेड। इसमें प्रत्येक मिनट में दो कारें तैयार होकर आ जाती है। प्रत्येक कामगार 40 वर्ष का होने तक पूरी तरह थक जाता है ओर स्वैच्छिक अवकाश ले लेता है। यह कामगारों में अधिक तनाव की वहज से होता है।
    • साफ्टवेयर, आई.टी. क्षेत्रों में काम करने वाले शिक्षित होते है। उनका कार्य भी टायलरिज्म लेबर प्रक्रिया के अनुरूप ही होता है। आई.टी. क्षेत्र में ‘सयम की चाकरी' -औसतन 10-12 घंटे का कार्यदिवस और रातभर कार्य करने वाले कर्मचारी भी असामान्य बात नहीं है, जिसे नाइट आउट कहते है। जब उनकी परियोजना की अंतिम सीमा आ जाती है। लंबे कार्य घंटों का होना एक उद्योग की कद्रिय 'कार्य संस्कृति' होती है। एक आठ घंटे काम करने वाले इंजीनियर के श्रम के आधार पर काम को अंतिम सीमा तक पहुँचाने के लिए उसे अतिरिक्त घंटों और दिनों तक काम करना पड़ता है। ऑफिस में देर तक रूक जाते है जो कि या तो साथियों के दबाव के कारण होता है अथवा वे अपने अधिकारियों को दिखाना चाहते हैं कि वे कड़ी मेहनत कर रहे हो।
    • संयुक्त परिवार जो कि लुप्त हो गए थे औद्योगीकरण के कारण फिर से बनने लग गए हैं।
  7. कार्यावस्थाएँ
    • सरकार ने कार्य की दशाओं को बेहतर करने के लिए बहुत से कानून बना दिए है।
    • खदान एक्ट 1952 ने मजदूरों के विभिन्न कार्यों को स्पष्टकिया है। भूमिगत खदानों में मजदूरों को आग, बाढ़, ऊपरी सतह के धँसने, क्षय रोग आदि का खतरा रहता है।
  8. घरों में होने वाला काम- घरों में आज अनेक काम किए जाते हैं लेस बनाना, बीड़ी बनाना, जरी, अगरबत्ती, गलीचे, एवं अन्य कार्य अधिकतर महिलाएँ व बच्चे करते है। एक एजेन्ट इन्हें कच्चा माल दे जाता है। तथा पूरा करवा कर ले जाता है। इन्हें कितना पैसा मिल पाता है बीड़ी उद्योग में पाई डायाग्राम को देखे कि कैसे बीड़ी मूल्य को बांटा गया है।
  9. हड़ताले एवं मजदूर संघ- फैक्ट्री तथा अन्य उद्योगों में कामगारों के संघ है। जिनमें जातिवाद तथा क्षेत्रीयवाद पाया जाता है।
    • मजदूर संघ- किसी भी मिल, कारखाने में मजदूरों के हितों की रक्षा करने के लिए मजदूर संघ का गठन किया जाता है। सभी मजदूर इसके सदस्य होते है।
    • हड़ताल- अपनी मांगों को मनवाने के लिए कर्मचारी हड़ताल करते है।
    • तालाबंदी- मिल मालिकों द्वारा मिल के मुख्य द्वारा पर ताला लगाना। (1982 की बम्बई टैक्सटाइल मिल की हडताल जो व्यापार संघ के नेता दत्ता सामंत के नेतृत्व में हुई थी, जिसमें लगभग ढाई लाख कामगारों के परिवार पीड़ित हुए। उनकी मांग बेहतर मजदूरी तथा संघ बनाने की अनुमति प्रदान करता था। कामगार किसी अन्य मजदूरी या कार्य करने को मजबूर हो जाते हैं इनका भविष्य कौन तय करेगा? मिल मालिक सम्पदा व्यापारी, सरकार या स्वयं ये जटिल प्रश्न है?