यूरोप में राष्ट्रवाद का उदय - पुनरावृति नोट्स

 CBSE Class 10 सामाजिक विज्ञान

पुनरावृति नोट्स
पाठ-1
यूरोप में राष्ट्रीयवाद का उदय

राष्ट्रवाद: किसी भी राष्ट्र के सदस्यों में एक साझा पहचान को बढ़ावा देने वाली विचारधारा को राष्ट्रवाद कहा जाता है। राष्ट्रवाद की भावना को जड़ जमाने में राष्ट्रीय ध्वज, राष्ट्रीय प्रतीक, राष्ट्रगान, आदि की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।

यूरोप में राष्ट्रवाद का उदय: उन्नीसवीं सदी के मध्य के पहले यूरोपीय देश उस रूप में नहीं थे जिस रूप में उन्हें हम आज जानते हैं। यूरोप के विभिन्न क्षेत्रों पर विभिन्न प्रकार के वंशानुगत साम्राज्यों का राज हुआ करता था। ये सभी राजतांत्रिक शासक थे जिन्हें अपनी प्रजा पर पूरा नियंत्रण हुआ करता था। उस काल में तकनीकी में कई ऐसे बदलाव हुए जिनके कारण समाज में आए बदलाव ने राष्ट्रवाद की भावना को जन्म दिया। सन 1789 में शुरु होने वाली फ्रांस की क्रांति के साथ ही नए राष्ट्रों के निर्माण की प्रक्रिया भी शुरु हो गई थी। लेकिन इस नई विचारधारा को जड़ जमाने में लगभग सौ साल लग गए। इसकी परिणति के रूप में फ्रांस का एक प्रजातांत्रिक देश के रुप में गठन हुआ। यही सिलसिला यूरोप के अन्य भागों में भी चलने लगा और बीसवीं सदी के शुरुआत आते आते विश्व के कई भागों में आधुनिक प्रजातांत्रिक व्यवस्था की स्थापना हुई।

फ्रांसीसी क्रांति

राष्ट्रवाद की पहली अभिव्यक्ति: फ्रांसीसी क्रांति के कारण फ्रांस की राजनीति और संविधान में कई बदलाव आए। सन 1789 में सत्ता का स्थानांतरण राजतंत्र से एक ऐसी संस्था को हुआ जिसका गठन नागरिकों द्वारा हुआ था। उसके बाद ऐसा माना जाने लगा कि फ्रांस के लोग ही आगे से अपने देश का भविष्य तय करेंगे।

राष्ट्र की भावना की रचना:

क्रांतिकारियों लोगों में एक साझा पहचान की भावना स्थापित करने के लिए कई कदम उठाए। उनमें से कुछ निम्नलिखित हैं:

  • एक पितृभूमि और उसके नागरिकों की भावना का प्रचार जिससे एक ऐसे समाज की अवधारणा को बल मिले जिसमें लोगों को संविधान से समान अधिकार प्राप्त थे।
  • राजसी प्रतीक को हटाकर एक नए फ्रांसीसी झंडे का इस्तेमाल किया गया जो कि तिरंगा था।
  • इस्टेट जेनरल को सक्रिय नागरिकों द्वारा चुना गया और उसका नाम बदलकर नेशनल एसेंबली कर दिया गया।
  • राष्ट्र के नाम पर नए स्तुति गीत बनाए गए और शपथ लिए गए।
  • शहीदों को नमन किया गया।
  • एक केंद्रीय प्रशासनिक व्यवस्था बनाई गई जिसने सभी नागरिकों के लिए एक जैसे नियम बनाए।
  • फ्रांस के भूभाग में प्रचलित कस्टम ड्यूटी को समाप्त किया गया।
  • भार और मापन की एक मानक पद्धति अपनाई गई।
  • क्षेत्रीय भाषाओं को नेपथ्य में धकेला गया और फ्रेंच भाषा को राष्ट्र की आम भाषा के रूप में बढ़ावा दिया गया।
  • क्रांतिकारियों ने ये भी घोषणा की कि यूरोप के अन्य भागों से तानाशाही समाप्त करना और वहाँ राष्ट्र की स्थापना करना भी फ्रांस के लोगों का मिशन होगा।

यूरोप के अन्य भागों पर प्रभाव:

फ्रांस में होने वाली गतिविधियों से यूरोप के कई शहरों के लोग पूरी तरह प्रभावित थे और जोश में आ चुके थे। इसके परिणामस्वरूप, शिक्षित मध्यवर्ग के लोगों और छात्रों द्वारा जैकोबिन क्लब बनाए जाने लगे। उनकी गतिविधियों ने फ्रांस की सेना द्वारा अतिक्रमण का रास्ता साफ कर दिया। 1790 के दशक में फ्रांस की सेना ने हॉलैंड, बेल्जियम, स्विट्जरलैड और इटली के एक बड़े भूभाग में घुसपैठ कर ली थी। इस तरह से फ्रांस की सेना ने अन्य देशों में राष्ट्रवाद का प्रचार करने का काम शुरु किया।

नेपोलियन

नेपोलियन 1804 से 1815 के बीच फ्रांस का बादशाह था। नेपोलियन ने फ्रांस में प्रजातंत्र को तहस नहस कर दिया और वहाँ फिर से राजतंत्र की स्थापना कर दी। लेकिन उसने प्रशासन के क्षेत्र में कई क्रांतिकारी बदलाव किए। उसने उस व्यवस्था को बेहतर और कुशल बनाने की कोशिश की। 1804 का सिविल कोड; जिसे नेपोलियन कोड भी कहा जाता है; ने जन्म के आधार पर मिलने वाले हर सुविधाओं को समाप्त कर दिया। इसने कानून में सबको समान हैसियत प्रदान की और संपत्ति के अधिकार को पुख्ता किया। जैसा कि उसने फ्रांस में किया था; अपने नियंत्रण वाले हर इलाकों में उसने नए नए सुधार किए। उसने डच रिपब्लिक, स्विट्जरलैंड, इटली और जर्मनी में प्रशासनिक विभागों को सरल कर दिया। उसने सामंती व्यवस्था को समाप्त कर दिया और किसानों को दासता और जागीर को अदा होने वाले शुल्कों से मुक्त कर दिया। शहरों में प्रचलित शिल्प मंडलियों द्वारा लगाई गई सीमितताओं को भी समाप्त किया गया। यातायात और संचार के साधनों में सुधार किए गए।

जनता की प्रतिक्रिया: इस नई आजादी का किसानों, कारीगरों और कामगारों ने जमकर स्वागत किया। उन्हें समझ आ गया था कि एक समान कानून और मानक मापन पद्धति और एक साझा मुद्रा से देश के विभिन्न क्षेत्रों में सामान और मुद्रा के आदान प्रदान में बड़ी सहूलियत मिलने वाली थी।

लेकिन जिन इलाकों पर फ्रांस ने कब्जा जमाया था, वहाँ के लोगों की फ्रांसीसी शासन के बारे में मिली जुली प्रतिक्रिया थी। शुरु में तो फ्रांस की सेना को आजादी के दूत के रूप में देखा गया। लेकिन जल्दी ही लोगों की समझ में आ गया कि इस नई शासन व्यवस्था से राजनैतिक स्वतंत्रता की उम्मीद नहीं की जा सकती थी। नेपोलियन द्वारा लाए गए प्रशासनिक बदलावों की तुलना में टैक्स में भारी बढ़ोतरी और फ्रांस की सेना में जबरदस्ती भर्ती अधिक भारी लगने लगे। इस तरह से शुरुआती जोश जल्दी ही विरोध में बदलने लगा।

क्रांति के पहले की स्थिति: अठाहरवीं सदी के मध्यकालीन यूरोप में वैसे राष्ट्र नहीं हुआ करते थे जैसा कि हम आज जानते और समझते हैं। आधुनिक जर्मनी, इटली और स्विट्जरलैंड कई सूबों, प्रांतों और साम्राज्यों में बँटे हुए थे। हर शासक का अपना स्वतंत्र इलाका हुआ करता था। पूर्वी और मध्य यूरोप में शक्तिशाली राजाओं के अधीन विभिन्न प्रकार के लोग रहते थे। उन लोगों की कोई साझा पहचान नहीं होती थी। किसी एक खास शासक के प्रति समर्पण ही उनमें कोई समानता की पुष्टि करता था।

राष्ट्रों के उदय के कारण और प्रक्रिया

अभिजात वर्ग : उस महाद्वीप में जमीन से संपन्न कुलीन वर्ग ही सदा से सामाजिक और राजनैतिक तौर पर प्रभावशाली हुआ करता था। उस वर्ग के लोगों की जीवन शैली एक जैसी होती थी चाहे वे किसी भी क्षेत्र में रह रहे हों। शायद यही जीवन शैली उन्हें एक धागे में पिरोकर रखती थी। ग्रामीण इलाकों में उनकी जागीरें हुआ करती थीं और शहरी इलाकों में आलीशान बंगले। अपनी एक खास पहचान बनाए रखने और कूटनीति के उद्देश्य से वे फ्रेंच भाषा बोला करते थे। उनके परिवारों में संबंध बनाए रखने के लिए शादियाँ भी हुआ करती थीं। लेकिन सत्ता से संपन्न यह अभिजात वर्ग संख्या की दृष्टि से बहुत छोटा था। जनसंख्या का अधिकांश हिस्सा किसानों से बना हुआ था। पश्चिम में ज्यादातर जमीन पर काश्तकारों और छोटे किसानों द्वारा खेती की जाती थी। दूसरी ओर, पूर्वी और केंद्रीय यूरोप में बड़ी-बड़ी जागीरें हुआ करती थीं जहाँ दासों से काम लिया जाता था।

मध्यम वर्ग का उदय: पश्चिमी यूरोप और केंद्रीय यूरोप के कुछ भागों में उद्योग धंधे बढ़ने लगे थे। इससे शहरों का विकास होने लगा; जहाँ एक नए व्यावसायिक वर्ग का उदय हुआ। बाजार के लिए उत्पादन की मंशा के कारण इस नए वर्ग का जन्म हुआ था। इससे समाज में नए समूहों और वर्गों का जन्म होने लगा। इस नए सामाजिक वर्ग में एक वर्ग कामगारों का हुआ करता था और दूसरा मध्यम वर्ग का। उद्योगपति, वयवसायी और व्यापारी; उस मध्यम वर्ग का मुख्य हिस्सा थे। इसी वर्ग ने राष्ट्रीय एकता की भावना को एक रूप प्रदान किया।

उदार राष्ट्रवाद की भावना: उन्नीसवीं सदी के शुरुआती दौर के यूरोप में राष्ट्रवाद की भावना का उदारवाद की भावना से गहरा तालमेल था। नए मध्यम वर्ग के लिए उदारवाद के मूल में व्यक्ति की स्वतंत्रता और समान अधिकार की भावनाएँ थीं। राजनैतिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो उदारवाद की भावना से ही आम सहमति से शासन के सिद्धांत को बल मिला होगा। उदारवाद के कारण ही तानाशाही और वंशानुगत विशेषाधिकारों की समाप्ति हुई। इससे एक संविधान की आवश्यकता महसूस होने लगी। साथ में प्रतिधिनित्व पर आधारित सरकार की भी। उन्नीसवीं सदी के उदारवादियों ने संपत्ति की अक्षुण्णता की बात को भी पक्के तौर पर रखना शुरु किया।

मताधिकार : फ्रांस में अभी भी हर नागरिक को मताधिकार नहीं मिला था। क्रांति के पिछले दौर में केवल ऐसे पुरुषों को ही मताधिकार मिले थे जिनके पास संपत्ति होती थी। जैकोबिन क्लबों के दौर में कुछ थोड़े समय के लिए हर वयस्क पुरुष को मताधिकार दिए गए थे। लेकिन नेपोलियन कोड ने फिर से पुरानी व्यवस्था बहाल कर दी थी जिसमें सीमित लोगों के पास ही मताधिकार हुआ करता था। नेपोलियन के शासन काल में महिलाओं को नाबालिगों जैसा दर्जा दिया गया था जिसके कारण वे अपने पिता या पति के नियंत्रण में होती थीं। पूरी उन्नीसवीं सदी और बीसवीं सदी की शुरुआत तक महिलाओं और संपत्तिविहीन पुरुषों के मताधिकार के लिए संघर्ष जारी रहा।

आर्थिक क्षेत्र में उदारीकरण: नेपोलियन कोड की एक और खास बात थी आर्थिक उदारीकरण। मध्यम वर्ग; जिसका अभी अभी जन्म हुआ था; भी आर्थिक उदारीकरण के पक्ष में था। इसे समझने के लिए उन्नीसवीं सदी के पहले आधे हिस्से वाले ऐसे क्षेत्र का उदाहरण लेते हैं जहाँ जर्मन बोलने वाले लोग रहते थे। इस क्षेत्र में 39 प्रांत थे जो कई छोटी-छोटी इकाइयों में बँटे हुए थे। हर इकाई की अपनी अलग मुद्रा होती थी और मापन की अपनी अलग प्रणाली। यदि कोई व्यापारी हैम्बर्ग से न्यूरेम्बर्ग जाता था तो उसे ग्यारह चुंगी नाकाओं से गुजरना होता था और हर नाके पर लगभग 5% चुंगी देनी होती थी। चुंगी का भुगतान भार और माप के अनुसार दिया जाता था। विभिन्न स्थानों के भार और मापन में अत्यधिक अंतर होने के कारण इसमें बड़ी उलझन होती थी। दूसरे शब्दों में ये कहा जा सकता है कि व्यवसाय के लिए बिलकुल प्रतिकूल माहौल थे जिससे आर्थिक गतिविधियों में विघ्न उत्पन्न होते थे। नए व्यावसायिक वर्ग की माँग थी कि एक एकल आर्थिक क्षेत्र बहाल की जाए ताकि सामान, लोगों और पूँजी के आदान प्रदान में कोई बाधा न उत्पन्न हो।

1834 में प्रसिया की पहल करने पर जोवरलिन के कस्टम यूनियन का गठन हुआ जिसमें बाद में अधिकाँश जर्मन राज्य भी शामिल हो गए। चुंगी की सीमाएँ समाप्त की गईं और मुद्राओं के प्रकार को तीस से घटाकर दो कर दिया गया। इस बीच रेलवे के जाल के विकास के कारण आवगमन की सुविधा को और बढ़ावा मिला। इससे एक तरह के आर्थिक राष्ट्रवाद का विकास हुआ जिसने उस समय जड़ ले रही राष्ट्रवाद की भावना को बल प्रदान किया।

1815 के बाद एक नए रुढ़िवाद का जन्म : सन 1815 में ब्रिटेन, रूस, प्रसिया और ऑस्ट्रिया की सम्मिलित ताकतों ने नेपोलियन को पराजित कर दिया। नेपोलियन की पराजय के बाद, यूरोप की सरकारें रुढ़िवाद को अपनाना चाहती थीं। रुढ़िवादियों का मानना था कि समाज और देश की परंपरागत संस्थाओं का संरक्षण जरूरी था। उनका मानना था कि राजतंत्र, चर्च, सामाजिक ढ़ाँचा, संपत्ति और परिवार के पुराने ढ़ाँचे को बचाकर रखा जाए। लेकिन उनमें से ज्यादातर लोग ये भी चाहते थे कि प्रशासन के क्षेत्र में नेपोलियन द्वारा लाए गए आधुनिक व्यवस्था को भी कायम रखा जाए। उनका मानना था कि उस प्रकार के आधुनिकीकरण से परंपरागत संस्थाओं को और बल मिलेगा। उन्हें लगता था कि एक आधुनिक सेना, एक कुशल प्रशासन, एक गतिशील अर्थव्यवस्था और सामंतवाद और दासता की समाप्ति से यूरोप के राजतंत्र को और मजबूती मिलेगी।

वियेना संधि: सन 1815 में ब्रिटेन, रूस, प्रसिया और ऑस्ट्रिया (जो यूरोपियन शक्ति के प्रतिनिधि थे) ने यूरोप की नई रूपरेखा तय करने के लिए वियेना में एक मीटिंग की। इस कॉंग्रेस की मेहमाननवाजी का भार ऑस्ट्रिया के चांसलर ड्यूक मेटर्निक पर था। इस मीटिंग में वियेना संधि का खाका तैयार किया गया। इस संधि का मुख्य लक्ष्य था नेपोलियन के काल में यूरोप में आए हुए अधिकाँश बदलावों को बदल देना। इस संधि के अनुसार कई कदम उठाए गए जिनमे से कुछ निम्नलिखित हैं:

  • फ्रांसीसी क्रांति के दौरान बोर्बोन वंश को सत्ता से हटा दिया गया था। उसे फिर से सत्ता दे दी गई।
  • फ्रांस की सीमा पर कई राज्य बनाए गए ताकि भविष्य में फ्रांस अपना साम्राज्य बढ़ाने की कोशिश न करे। उदाहरण के लिए; उत्तर में नीदरलैंड का राज्य स्थापित किया गया। इसी तरह दक्षिण में पिडमॉंट से जेनोआ को जोड़ा गया। प्रसिया को उसकी पश्चिमी सीमा के पास कई महत्वपूर्ण इलाके दिए गए। ऑस्ट्रिया को उत्तरी इटली का कब्जा दिया गया।
  • नेपोलियन ने 39 राज्यों का एक जर्मन संगठन बनाया था; उसमें कोई बदलाव नहीं किया गया।
  • पूरब में रूस को पोलैंड के कुछ भाग दिए गए, जबकि प्रसिया को सैक्सोनी का एक भाग।

1815 में जो रुढ़िवादी शासन व्यवस्थाएँ आईं वे सब तानाशाही प्रवृत्ति की थी। वे किसी प्रकार की आलोचना या विरोध को बर्दाश्त नहीं करते थे। उनमें से अधिकाँश ने अखबारों, किताबों, नाटकों और गानों में व्यक्त होने वाले विषय वस्तु पर कड़ा सेंसर कानून लगा दिया।

क्रांतिकारी: 1815 की घटनाओं के बाद सजा के डर से कई उदार राष्ट्रवादी जमींदोज हो गए थे।

जियुसेपे मेत्सीनी एक इटालियन क्रांतिकारी था। उसका जन्म 1807 में हुआ था। वह कार्बोनारी के सीक्रेट सोसाइटी का एक सदस्य बन गया। जब वह महज 24 साल का था, तभी लिगुरिया में क्रांति फैलाने की कोशिश में उसे 1831 में देशनिकाला दे दिया गया था। उसके बाद उसने दो अन्य सीक्रेट सोसाइटी का गठन किया। इनमें से पहला था मार्सेय में यंग ईटली और फिर बर्ने में यंग यूरोप। मेत्सीनी का मानना था कि भगवान ने राष्ट्र को मानवता की नैसर्गिक इकाई बनाया है। इसलिए इटली को छोटे छोटे राज्यों के बेमेल संगठन से बदलकर एक लोकतंत्र बनाने की जरूरत थी। मेत्सीनी का अनुसरण करते हुए लोगों ने जर्मनी, फ्रांस, स्विट्जरलैंड और पोलैंड में ऐसी कई सीक्रेट सोसाइटी बनाई। रुढ़िवादियों को मेत्सिनी से डर लगता था।

इस बीच जब रुढ़िवादी ताकतें अपनी शक्ति को और मजबूत करने में जुटी थीं, उदारवादी और राष्ट्रवादी लोग क्रांति की भावना को अधिक से अधिक फैलाने की कोशिश कर रहे थे। इन लोगों में ज्यादातर मध्यम वर्ग के अभिजात लोग थे; जैसे कि प्रोफेसर, स्कूल टीचर, क्लर्क, और व्यवसायी।

फ्रांस में पहला उथल पुथल 1830 की जुलाई में हुआ। उदारवादी क्रांतिकारियों ने बोर्बोन के राजाओं को उखाड़ फेंका। उसके बाद एक संवैधानिक राजतंत्र की स्थापना हुई जिसका मुखिया लुई फिलिप को बनाया गया। जुलाई की उस क्रांति के बाद ब्रसेल्स में भी आक्रोश बढ़ने लगा जिसके फलस्वरूप नीदरलैंड के यूनाइटेड किंगडम से बेल्जियम अलग हो गया।

ग्रीस की आजादी: ग्रीस की आजादी की लड़ाई ने पूरे यूरोप के पढ़े लिखे वर्ग में राष्ट्रवाद की भावना को और मजबूत कर दिया। ग्रीस की आजादी का संघर्ष 1821 में शुरु हुआ था। ग्रीस के राष्ट्रवादियों को ग्रीस के ऐसे लोगों से भारी समर्थन मिला जिन्हे देशनिकाला दे दिया गया था। इसके अलावा उन्हें पश्चिमी यूरोप के अधिकाँश लोगों से भी समर्थन मिला जो प्राचीन ग्रीक संस्कृति का सम्मान करते थे। मुस्लिम साम्राज्य के विरोध करने वाले इस संघर्ष का समर्थन बढ़ाने के लिए कवियों और कलाकारों ने भी जन भावना को इसके पक्ष में लाने की भरपूर कोशिश की। यहाँ पर यह बताना जरूरी है कि ग्रीस उस समय ऑटोमन साम्राज्य का एक हिस्सा हुआ करता था। आखिरकार 1832 में कॉन्स्टैंटिनोपल की ट्रीटी के अनुसार ग्रीस को एक स्वतंत्र देश की मान्यता दे दी गई।

राष्ट्रवादी भावना और रोमाँचक परिकल्पना: रोमांटिसिज्म एक सांस्कृतिक आंदोलन था जिसने राष्ट्रवादी भावना के एक खास स्वरूप को विकसित करने की कोशिश की थी। रोमांटिक कलाकार अक्सर विज्ञान और तर्क के बढ़ावे की आलोचना करते थे। उनका फोकस भावुकता, सहज ज्ञान और रहस्यों पर ज्यादा होता था। उन्होंने एक साझा विरासत, एक साझा सांस्कृतिक इतिहास, को राष्ट्र के आधार के रूप में बनाने की कोशिश की थी।

कई अन्य रोमांटिक ने; जैसे कि जर्मनी के तर्कशास्त्री जोहान गॉटफ्रिड हर्डर (1744 – 1803); का मानना था कि जर्मन संस्कृति के सही स्वरूप को वहाँ के आम लोगों में ढ़ूँढ़ा जा सकता था। इन रोमांटिक विचारकों ने देश की सच्ची भावना को लोकप्रिय बनाने के लिए लोक गीत, लोक कविता और लोक नृत्य का सहारा लिया। ऐसी स्थिति में जब अधिकाँश लोग निरक्षर थे तब आम लोगों की भाषा का इस्तेमाल और भी महत्वपूर्ण हो जाता था। कैरोल करपिंस्की ने पोलैंड में अपने ओपेरा के माध्यम से राष्ट्रवाद के संघर्ष को और उजागर किया था। उन्होंने वहाँ के लोक नृत्यों; जैसे कि पोलोनैज और माजुर्का; को राष्ट्रीय प्रतीक में बदल दिया था।

राष्ट्रवादी भावना को बढ़ावा देने में भाषा ने भी अहम भूमिका निभाई थी। रूस द्वारा सत्ता हड़पने के बाद पोलैंड के स्कूलों से पॉलिस भाषा को हटा दिया गया और हर जगह रूसी भाषा को थोपा जाने लगा। रूसी शासन के खिलाफ 1831 में एक हथियारबंद विद्रोह भी शुरु हुआ था लेकिन उस आंदोलन को कुचल दिया गया। लेकिन इसके बाद पादरी वर्ग के सदस्यों ने पॉलिस भाषा का इस्तेमाल राष्ट्रीय विरोध के शस्त्र के रुप में करना शुरु किया। चर्च के सभी अनुष्ठानों और अन्य धार्मिक गतिविधियों में पॉलिस भाषा का ही इस्तेमाल होता था। रूसी भाषा में प्रवचन देने की मनाही करने पर रूसी अधिकारियों ने कई पादरियों को जेल भेज दिया या फिर साइबेरिया भेज दिया। इस प्रकार से पॉलिस भाषा का इस्तेमाल रूसी प्रभुत्व के खिलाफ विरोध का प्रतीक बन गया।

भूखमरी, कठिनाइयाँ और लोगों का विरोध: 1830 का दशक यूरोप के लिए आर्थिक तंगी का दशक था। उन्नीसवीं सदी के शुरु के आधे वर्षों में जनसंख्या में तेजी से बढ़ोतरी हुई थी। बेरोजगारों की संख्या में कई गुणा इजाफा हुआ था। ग्रामीण क्षेत्रों से शहरी क्षेत्रों की तरफ बड़ी संख्या में पलायन हुआ था। आप्रवासी लोग शहरों में ऐसी झुग्गी झोपड़ियों में रहते थे जहाँ पर बहुत भीड़-भाड़ होती थी। उस काल में यूरोप के अन्य भागों की तुलना में इंग्लैंड में औद्योगिकीकरण ज्यादा तेजी से हुआ था। इसलिए इंग्लैंड की मिलों में बनने वाले सस्ते सामानों से यूरोप के अन्य देशों में छोटे उत्पादकों द्वारा बनाए जाने वाले सामानों को कड़ी प्रतिस्पर्धा मिल रही थी। यूरोप के कुछ क्षेत्रों में अभी भी अभिजात वर्ग का नियंत्रण था और इसके कारण किसानों पर सामंतों के लगान का भारी बोझ था। एक साल के फसल के नुकसान और खाद्यान्नों की बढ़्ती हुई कीमतों के कारण कई गाँवों और शहरों में भूखमरी की स्थिति उत्पन्न हो गई थी।

1848 का साल ऐसा ही एक बुरा साल था। भोजन की कमी और बढ़ती बेरोजगारी के कारण पेरिस के लोग सड़कों पर उतर आए थे। विद्रोह इतना जबरदस्त था कि लुई फिलिप को वहाँ से पलायन करना पड़ा। एक नेशनल एसेंबली ने प्रजातंत्र की घोषणा कर दी। 21 साल से ऊपर की उम्र के सभी वयस्क पुरुषों को मताधिकार दे दिया गया। लोगों को काम के अधिकार की घोषणा भी की गई। रोजगार मुहैया कराने के लिए राष्ट्रीय कार्यशाला बनाई गई।

उदारवादियों की क्रांति: जब गरीबों का विद्रोह 1848 में हो रहा था, तभी एक अन्य क्रांति भी शुरु हो चुकी थी जिसका नेतृत्व पढ़ा लिखा मध्यम वर्ग कर रहा था। यूरोप के कुछ भागों में स्वाधीन राष्ट्र जैसी कोई चीज नहीं थी; जैसे कि जर्मनी, इटली, पोलैंड और ऑस्ट्रो-हंगैरियन साम्राज्य में। इन क्षेत्रों के मध्यम वर्ग के स्त्री और पुरुषों ने राष्ट्रीय एकीकरण और संविधान की मांग शुरु कर दी। उनकी मांग थी कि संसदीय प्रणाली पर आधारित राष्ट्र का निर्माण हो। वे एक संविधान, प्रेस की आजादी और गुटबंदी की आजादी चाहते थे।

फ्रैंकफर्ट पार्लियामेंट: जर्मनी में ऐसे कई राजनैतिक गठबंधन थे जिनके सदस्य मध्यम वर्गीय पेशेवर, व्यापारी और धनी कलाकार हुआ करते थे। वे फ्रैंकफर्ट शहर में एकत्रित हुए और एक सकल जर्मन एसेंबली के लिए वोट करने का फैसला किया। 18 मई 1848 को 831 चुने हुए प्रतिनिधियों ने जश्न मनाते हुए एक जुलूस निकाला और फ्रैंकफर्ट पार्लियामेंट को चल पड़े जिसका आयोजन सेंट पॉल के चर्च में किया गया था। उन्होंने एक जर्मन राष्ट्र का संविधान तैयार किया। उस राष्ट्र की कमान कोई राजपरिवार का आदमी करता जो पार्लियामेंट को जवाब देने के लिए उत्तरदायी होता। इन शर्तों पर प्रसिया के राजा फ्रेडरिक विलहेम (चतुर्थ) को वहाँ का शासन सौंपने की पेशकश की गई। लेकिन उसने इस अनुरोध को ठुकरा दिया और उस चुनी हुई संसद का विरोध करने के लिए अन्य राजाओं से हाथ मिला लिया।

अभिजात वर्ग और सेना द्वारा पार्लियामेंट का विरोध बढ़ता ही गया। इस बीच पार्लियामेंट का सामाजिक आधार कमजोर पड़ने लगा क्योंकि उसमें मध्यम वर्ग का दबदबा था। मध्यम वर्ग मजदूरों और कारीगरों की माँग का विरोध करता था और इसलिए उसे उनके समर्थन से हाथ धोना पड़ा। आखिरकार सेना बुलाई गई और इस तरह से एसेंबली को समाप्त कर दिया गया।

उदारवादी आंदोलन में महिलाओं ने भी भारी संख्या में हिस्सा लिया। इसके बावजूद, एसेंबली के चुनाव में उन्हें मताधिकार से मरहूम किया गया। जब सेंट पॉल के चर्च में फ्रैंकफर्ट पार्लियामेंट बुलाई गई तो महिलाओं को केवल दर्शक दीर्घा में बैठने की अनुमति मिली।

हालाँकि रुढ़िवादी ताकतों द्वारा उदारवादी आंदोलन को कुचल दिया गया लेकिन पुरानी व्यवस्था को दोबारा बहाल नहीं किया जा सका। 1848 के कई वर्षों के बाद राजा को यह अहसास होने लगा कि आंदोलन और दमन के उस कुचक्र को समाप्त करने का अगर कोई तरीका था तो वह था राष्ट्रवादी आंदोलनकारियों की मांगों को मान लेना। इसलिए मध्य और पूर्वी यूरोप के राजाओं ने उन बदलावों को अपनाना शुरु कर दिया जो पश्चिमी यूरोप में 1815 से पहले ही हो चुके थे।

हैब्सबर्ग के उपनिवेशों और रूस में दास प्रथा और बंधुआ मजदूरी को समाप्त किया गया। 1867 में हैब्सबर्ग के शासकों ने हंगरी को अधिक स्वायत्तता प्रदान की।

जर्मनी: क्या सेना किसी राष्ट्र का निर्माण कर सकती है?

1848 के बाद यूरोप में राष्ट्रवाद प्रजातंत्र और क्रांति से दूर हो चुका था। रुढ़िवादी ताकतें राष्ट्रवाद की भावना को इसलिए हवा देने लगे थे ताकि शासक की शक्ति बढ़ाई जा सके और यूरोप में राजनैतिक प्रभुता हासिल की जा सके।

पहले आपने देखा कि किस तरह से राजा और सेना की मिली जुली ताकतों ने जर्मनी में मध्यम वर्ग के आंदोलन को कुचल दिया था। प्रसिया के बड़े भूस्वामी (जिन्हें जंकर कहा जाता था) भी उन दमनकारी नीतियों का समर्थन करते थे। उसके बाद प्रसिया ने राष्ट्रीय एकीकरण के आंदोलन की कमान संभाल ली।

ओटो वॉन बिस्मार्क: ये प्रसिया के मुख्य मंत्री थे जिन्होंने जर्मनी के एकीकरण की बुनियाद रखी थी। इस काम में बिस्मार्क ने प्रसिया की सेना और प्रशासन तंत्र का सहारा लिया था। सात सालों में तीन युद्ध हुए; ऑस्ट्रिया, डेनमार्क और फ्रांस के खिलाफ्। प्रसिया की जीत के साथ युद्ध समाप्त हुए और इस तरह से जर्मनी एकीकरण का काम पूरा हुआ। प्रसिया के राजा विलियम प्रथम को जर्मन का बादशाह घोषित किया गया। इसके लिए वार्सा में 1871 की जनवरी में एक समारोह का आयोजन हुआ था।

नए राष्ट्र ने जर्मनी में मुद्रा, बैंकिंग, और न्याय व्यवस्था के आधुनिकीकरण पर खास ध्यान दिया। अधिकतर मामलों में प्रसिया के कायदे कानून ही जर्मनी के लिए आदर्श का काम करते थे।

यूरोप में राष्ट्रवाद का उदय

इटली का एकीकरण: इटली का भी राजनैतिक अलगाव और विघटन का एक लंबा इतिहास रहा है। इटली में एक तरफ तो बहुराष्ट्रीय हैब्सबर्ग साम्राज्य का शासन था तो दूसरी ओर कुछ हिस्सों में कई छोटे-छोटे राज्य थे। उन्नीसवीं सदी के मध्य में इटली सात प्रांतों में बँटा हुआ था। उनमें से एक; सार्डिनिया-पिडमॉंट पर किसी इटालियन राजपरिवार का शासन था। उत्तरी भाग ऑस्ट्रिया के हैब्सबर्ग साम्राज्य के नियंत्रण में था, मध्य भाग पोप के शासन में और दक्षिणी भाग स्पेन के बोर्बोन राजाओं के नियंत्रण में था। इटालियन भाषा का कोई एक स्वरूप अभी तक नहीं बन पाया था और इस भाषा के कई क्षेत्रीय और स्थानीय प्रारूप थे।

1830 के दशक में जिउसेपे मेत्सीनी ने एक समग्र इटालियन गणराज्य की स्थापना के लिए एक योजना बनाई। लेकिन 1831 और 1848 के विद्रोहों की विफलता के बाद अब इसकी जिम्मेदारी सार्डिनिया पिडमॉंट और इसके शासक विक्टर इमैन्युएल द्वितीय पर आ गई थी। उस क्षेत्र के शासक वर्ग को लगने लगा था कि इटली के एकीकरण से आर्थिक विकास तेजी से होगा।

इटली के विभिन्न क्षेत्रों को एक करने के आंदोलन की अगुवाई मुख्यमंत्री कैवर ने की थी। वह ना तो कोई क्रांतिकारी था ना ही कोई प्रजातांत्रिक व्यक्ति। वह तो इटली के उन धनी और पढ़े लिखे लोगों में से था जिनकी संख्या काफी थी। उसे भी इटालियन से ज्यादा फ्रेंच भाषा पर महारत थी। उसने फ्रांस से एक कूटनीतिक गठबंधन किया और इसलिए 1859 में ऑस्ट्रिया की सेना को हराने में कामयाब हो गया। उस लड़ाई में सेना के जवानों के अलावा, कई सशस्त्र स्वयंसेवकों ने भी भाग लिया था जिनकी अगुवाई जिउसेपे गैरीबाल्डी कर रहा था। 1860 के मार्च महीने में वे दक्षिण इटली और टू सिसली के राज्य की ओर बढ़ चले। उन्होंने स्थानीय किसानों का समर्थन जीत लिया और फिर स्पैनिश शासकों को उखाड़ फेंकने में कामयाब हो गए। 1861 में विक्टर इमैंयुएल (द्वितीय) को एक समग्र इटली का राजा घोषित किया गया। लेकिन इटली के आम जन का एक बहुत बड़ा भाग इस उदारवादी-राष्ट्रवादी विचारधारा से बिल्कुल अनभिज्ञ था। ऐसा शायद उनमें फैली हुई अशिक्षा के कारण था।

ब्रिटेन की अजीबोगरीब कहानी: ब्रिटेन में राष्ट्र का निर्माण किसी अचानक से हुई क्राँति के कारण नहीं हुआ था। बल्कि यह एक लंबी और सतत चलने वाली प्रक्रिया के कारण हुआ था। अठारहवीं से सदी से पहले ब्रिटिश देश नाम की कोई चीज नहीं हुआ करती थी। ब्रिटिश द्वीप विभिन्न नस्लों के हिसाब से बँटे हुए थे; जैसे कि इंगलिश, वेल्श, स्कॉट या आइरिस। हर नस्ली ग्रुप की अपनी अलग सांस्कृतिक और राजनैतिक परंपरा थी।

इंगलिश राष्ट्र धीरे-धीरे धन, संपदा, महत्व और ताकत में बढ़ रहा था। इस तरह से इसका प्रभुत्व उस द्वीपसमूह के अन्य राष्ट्रों पर पड़ना स्वाभाविक था। एक लंबे झगड़े के बाद 1688 में इंगलिश पार्लियामेंट ने राजपरिवार से सत्ता ले ली। इस इंगलिश पार्लियामेंट ने ब्रिटेन के राष्ट्रों के निर्माण में अहम भूमिका निभाई। 1707 में इंगलैंड और स्कॉटलैंड के बीच यूनियन ऐक्ट बना जिससे “यूनाइटेड किंगडम ऑफ ग्रेट ब्रिटेन” की स्थापना हुई। इस यूनियन में इंगलैंड एक प्रधान भागीदार था और इसलिए ब्रिटिश पार्लियामेंट में इंगलिश सदस्यों की बहुतायत थी।

ब्रिटिश पहचान बढ़ने लगी लेकिन इसका खामियाजा स्कॉटिश संस्कृति और राजनैतिक संस्थानों की बढ़ती कमजोरी के रूप में हुआ। स्कॉटिश हाइलैंड में कैथोलिक लोग रहा करते थे। जब भी वे अपनी स्वतंत्रता को उजागर करने की कोशिश करते थे तो उन्हें भारी दमन का सामना करना पड़ता था। उन्हें अपनी गैलिक भाषा बोलने और पारंपरिक परिधान पहनने की भी मनाही थी। उनमें से कई को तो उस जगह से जबरदस्ती निकाल दिया गया जहाँ वे कई पीढ़ियों से रह रहे थे।

आयरलैंड की भी कुछ कुछ ऐसी ही स्थिति हुई। यह एक ऐसा देश था जहाँ कैथोलिक और प्रोटेस्टैंट के बीच गहरी खाई थी। हालाँकि कैथोलिक अधिक संख्या में थे लेकिन इंगलैंड की मदद से प्रोटेस्टैंट ने अपना दबदबा बना लिया था। वोल्फ टोन और उसके यूनाइटेड आइरिसमैन द्वारा 1798 में एक विद्रोह हुआ था लेकिन वह विफल रहा। उसके बाद 1801 में आयरलैंड को जबरदस्ती यूनाइटेड किंगडम में शामिल कर लिया गया। एक नए ‘ब्रिटिश राष्ट्र’ के निर्माण के लिए इंगलिश संस्कृति को जबरदस्ती थोपा जाने लगा। इस तरह से पुराने देश इस नए यूनियन में बस मूक दर्शक बन कर ही रह गए।

राष्ट्र की कल्पना: कलाकारों ने एक राष्ट्र को दर्शाने के लिए महिला की तस्वीर का इस्तेमाल किया। फ्रांसीसी क्रांति के दौरान कलाकारों ने उदारवाद, न्याय और प्रजातंत्र जैसी अमूर्त भावनाओं को दर्शाने के लिए औरत को एक रूपक के तौर पर इस्तेमाल किया।

फ्रांस में राष्ट्र को मैरियेन का नाम दिया गया; जो कि इसाइओं में एक लोकप्रिय नाम हुआ करता है। उसके चरित्र चित्रण में उदारवाद और प्रजातंत्र के रुपकों की मदद ली गई; जैसे कि लाल टोपी, तिरंगा, कलगी, आदि। मैरियेन की मूर्तियों को चौराहों पर लगाया गया। उसकी तस्वीरों को सिक्कों और टिकटों पर छापा गया; ताकि लोगों में इसकी पहचान घर कर जाए।

जर्मन राष्ट्र का प्रतीक जर्मेनिया को बनाया गया। जर्मेनिया के सिर पर जैतून के पत्तों का ताज हुआ करता है। जर्मनी में जैतून बहादुरी का प्रतीक माना जाता है।

राष्ट्रवाद और साम्राज्यवाद: उन्नीसवीं सदी के अंत आते आते राष्ट्रवाद में उदारवादी और प्रजातांत्रिक भावनाओं की कमी होने लगी। यह एक हथियार बन गया जिससे क्षणिक लक्ष्यों को साधा जाने लगा। यूरोप की मुख्य ताकतों ने लोगों की राष्ट्रवादी भावना का इस्तेमाल अपने साम्राज्यवादी महात्वाकांछाओं को साधने के लिए शुरु कर दिया।

बाल्कन में संकट: बाल्कन ऐसा क्षेत्र था जहाँ भौगोलिक और नस्ली विविधता भरपूर थी। आज के रोमानिया, बुल्गेरिया, अल्बेनिया, ग्रीस, मैकेडोनिया, क्रोशिया, बोस्निया-हर्जेगोविना, स्लोवेनिया, सर्बिया और मॉन्टेनीग्रो इसी क्षेत्र में आते थे। इस क्षेत्र में रहने वाले लोगों को मोटे तौर पर स्लाव कहा जाता था।

बाल्कन का एक बड़ा हिस्सा ओटोमन साम्राज्य के नियंत्रण में था। यह वह दौर था जब ओटोमन साम्राज्य बिखर रहा था और बाल्कन में रोमांटिक राष्ट्रवादी भावना बढ़ रही थी। इसलिए यह क्षेत्र ऐसा था जैसे किसी बारूद की ढ़ेर पर बैठा हो। पूरी उन्नीसवीं सदी में ओटोमन साम्राज्य ने आधुनिकीकरण और आंतरिक सुधारों से अपनी ताकत बढ़ाने की कोशिश की थी। लेकिन इसमे उसे अधिक सफलता नहीं मिली। इसके नियंत्रण में आने वाले यूरोपीय देश एक एक करके इससे अलग होते गए और अपनी आजादी घोषित करते गए। बाल्कन के देशों ने अपने इतिहास और राष्ट्रीय पहचान का हवाला देते हुए अलग होने की घोषणा की। लेकिन जब ये देश अपनी पहचान बनाने और आजादी पाने के लिए संघर्ष कर रहे थे तब यह क्षेत्र कई गंभीर झगड़ों का अखाड़ा बन चुका था। इस प्रक्रिया में बाल्कन के क्षेत्र में ताकत हथियाने के लिए भी जबरदस्त लड़ाई जारी थी।

उसी दौरान विभिन्न यूरोपियन ताकतों के बीच उपनिवेशों और व्यापार को लेकर कशमकश चल रही थी; और वह झगड़ा नौसेना और सेना की ताकत बनाने लिए भी जारी था। रूस, जर्मनी, इंगलैंड, ऑस्ट्रो-हंगरी; हर शक्ति का लक्ष्य था कि किस तरह से बाल्कन पर नियंत्रण पाया जाए और फिर अन्य क्षेत्रों पर्। इसके कारण कई लड़ाइयाँ हुईं; जिसकी परिणति प्रथम विश्व युद्ध के रूप में हुई।

इस बीच उन्नीसवीं सदी में यूरोपियन शक्तियों के उपनिवेश बने कई देश अब उपनिवेशी ताकतों का विरोध शुरु कर चुके थे। अलग-अलग उपनिवेशों के लोगों ने राष्ट्रवाद की अपनी नई परिभाषा बनाई। इस तरह से ‘राष्ट्र’ का आइडिया एक विश्वव्यापी आइडिया बन गया।

राष्ट्रवाद और साम्राज्यवाद:-
आदर्शवादी राष्ट्रवाद, एक दूसरे के अनुसार, लडने के लिए तैयार रहते थे।
1. 1857 केबाद यूरोप के बाल्कन क्षेत्र में तनाव आपसी भौगोलिक और जातीय भिन्नता स्लाव का नाम दिया गया। आटोमन साम्राज्य के नियंत्रण में राष्ट्रवाद के विचारों के फैसले से आटोमन साम्राज्य के विघटन का विस्फोट।
2. विभिन्न स्लाव राष्ट्रीय समूहों की पहचान, आपसी टकराव।
3. इसी समय यूरोपीय शक्तियों बीच व्यापार और उपनिवेशों के लिए प्रतिस्पर्धी और प्रथम विश्व युद्ध।
4. राष्ट्रवादी देशों में साम्राज्य विरोधी आंदोलन विकसित हुए समाजों का राष्ट्र राज्यों में गठित किया जाना।

1815 के बाद एक नया रूढ़िवाद:-
1. 
1815 में नेपोलियन की हार के बाद यूरोपीय सरकारें रूढ़िवाद की भावना। राज्य और समाज की स्थापित पारंपरिक संस्थाए - राजतंत्र, चर्च। सामाजिक ऊंच नीच सपेन्ति और परिवार को बनाए रखना।
2. 1815 में बिट्रेन, रूस प्रशा और आस्ट्रिया यूरोपीय शक्तियों ने नेपोलियन को हराया। 1815 की वियना संधि बूर्बो वंश को सत्ता ने बहाल किया।
3. 1815 में स्थापित रूढ़िवाद शासन व्यवस्थाएँ की निरकुंशता को खत्म किया। ज्यादातर सरकारों ने सेंसरशिप के नियम बनाए, फ्रांसीसी क्रांति से जुडे सिद्धांतों को अपनाया।