भूमंडलीकृत विश्व का बनना - पुनरावृति नोट्स

 CBSE Class 10 सामाजिक विज्ञान

पुनरावृति नोट्स
पाठ - 4
भूमंडलीयकृत विश्व का बनना


एक ग्लोबल विश्व: दुनिया के विभिन्न देश व्यापार और विचारों तथा संस्कृति के आदान प्रदान के कारण एक दूसरे से आपस में जुड़े हुए हैं। आधुनिक युग में आपसी संपर्क तेजी से बढ़ा है लेकिन सिंधु घाटी की सभ्यता के युग में भी विभिन्न देशों के बीच आपसी संपर्क हुआ करता था।

सिल्क रूट : चीन को पश्चिमी देशों और अन्य देशों से जोड़ने वाला व्यापार मार्ग सिल्क रूट कहलाता है। उस जमाने में कई सिल्क रूट थे। सिल्क रूट ईसा युग की शुरुआत के पहले से ही अस्तित्व में था और पंद्रहवीं सदी तक बरकरार था।

इस सिल्क रूट से होकर चीन के बर्तन दूसरे देशों तक जाते थे। इसी प्रकार यूरोप से एशिया तक सोना और चाँदी इसी सिल्क रूट से आते थे।

सिल्क रूट के रास्ते ही ईसाई, इस्लाम और बौद्ध धर्म दुनिया के विभिन्न भागों में पहुँच पाए थे।

भोजन की यात्रा : नूडल चीन की देन है जो वहाँ से दुनिया के दूसरे भागों तक पहुँचा। भारत में हम इसके देशी संस्करण सेवियों को वर्षों से इस्तेमाल करते हैं। इसी नूडल का इटैलियन रूप है स्पैगेटी।

आज के कई आम खाद्य पदार्थ; जैसे आलू, मिर्च टमाटर, मक्का, सोया, मूँगफली और शकरकंद यूरोप में तब आए जब क्रिस्टोफर कोलंबस ने गलती से अमेरिकी महाद्वीपों को खोज निकाला।

आलू के आने से यूरोप के लोगों की जिंदगी में भारी बदलाव आए। आलू के आने के बाद ही यूरोप के लोग इस स्थिति में आ पाए कि बेहतर खाना खा सकें और अधिक दिन तक जी सकें। आयरलैंड के किसान आलू पर इतने निर्भर हो चुके थे कि 1840 के दशक के मध्य में किसी बीमारी से आलू की फसल तबाह हो गई तो कई लाख लोग भूख से मर गए। उस अकाल को आइरिस अकाल के नाम से जाना जाता है।

बीमारी, व्यापार और फतह: सोलहवीं सदी में यूरोप के नाविकों ने एशिया और अमेरिका के देशों के लिए समुद्री मार्ग खोज लिया था। नए समुद्री मार्ग की खोज ने न सिर्फ व्यापार को फैलाने में मदद की बल्कि विश्व के अन्य भागों में यूरोप की फतह की नींव भी रखी।

अमेरिका के पास खनिजों का अकूत भंडार था और इस महाद्वीप में अनाज भी प्रचुर मात्रा में था। अमेरिका के अनाज और खनिजों ने दुनिया के अन्य भाग के लोगों का जीवन पूरी तरह से बदल दिया।

सोलहवीं सदी के मध्य तक पुर्तगाल और स्पेन द्वारा अमेरिकी उपनिवेशों की अहम शुरुआत हो चुकी थी। लेकिन यूरोपियन की यह जीत किसी हथियार के कारण नहीं बल्कि एक बीमारी के कारण संभव हो पाई थी। यूरोप के लोगों पर चेचक का आक्रमण पहले ही हो चुका था इसलिए उन्होंने इस बीमारी के खिलाफ प्रतिरोधन क्षमता विकसित कर ली थी। लेकिन अमेरिका तब तक दुनिया के अन्य भागों से अलग थलग था इसलिए अमेरिकियों के शरीर में इस बीमारी से लड़ने के लिए प्रतिरोधन क्षमता नहीं थी। जब यूरोप के लोग वहाँ पहुँचे तो वे अपने साथ चेचक के जीवाणु भी ले गए। इस का परिणाम यह हुआ कि चेचक ने अमेरिका के कुछ भागों की पूरी आबादी साफ कर दी। इस तरह यूरोपियन आसानी से अमेरिका पर जीत हासिल कर पाए।

उन्नीसवीं सदी तक यूरोप में कई समस्याएँ थीं; जैसे गरीबी, बीमारी और धार्मिक टकराव। धर्म के खिलाफ बोलने वाले कई लोग सजा के डर से अमेरिका भाग गए थे। उन्होंने अमेरिका में मिलने वाले अवसरों का भरपूर इस्तेमाल किया और इससे उनकी काफी तरक्की हुई।

अठारहवीं सदी तक भारत और चीन दुनिया के सबसे धनी देश हुआ करते थे। लेकिन पंद्रहवीं सदी से ही चीन ने बाहरी संपर्क पर अंकुश लगाना शुरु किया था और दुनिया के बाकी हिस्सों से अलग थलग हो गया था। चीन के घटते प्रभाव और अमेरिका के बढ़ते प्रभाव के कारण विश्व के व्यापार का केंद्रबिंदु यूरोप की तरफ शिफ्ट कर रहा था।

उन्नीसवीं शताब्दी (1815 – 1914)

उन्नीसवीं सदी में दुनिया तेजी से बदल रही थी। इस अवधि में सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और तकनीकी के क्षेत्र में बड़े जटिल बदलाव हुए। उन बदलावों की वजह से विभिन्न देशों के रिश्तों के समीकरण में अभूतपूर्व बदलाव आए।

अर्थशास्त्री मानते हैं कि आर्थिक आदान प्रदान तीन प्रकार के होते हैं जो निम्नलिखित हैं:

  • व्यापार का आदान प्रदान
  • श्रम का आदान प्रदान
  • पूँजी का आदान प्रदान

वैश्विक अर्थव्यवस्था का निर्माण: यूरोप में भोजन के उत्पादन और उपभोग का बदलता स्वरूप: पारंपरिक तौर से हर देश भोजन के मामले में आत्मनिर्भर बनना चाहता है। लेकिन यूरोप में आत्मनिर्भर होने का मतलब था लोगों के लिए घटिया क्वालिटी का भोजन मिलना।

अठाहरवीं सदी में यूरोप की जनसंख्या में भारी वृद्धि हुई। इसके कारण भोजन की माँग में भी भारी इजाफा हुआ। जमींदारों के दबाव के कारण सरकार ने मक्के के आयात पर कड़े नियंत्रण लगा दिए थे। इससे ब्रिटेन में भोजन की कीमतें और बढ़ गईं। इसके बाद उद्योगपतियों और शहरी लोगों ने सरकार को कॉर्न लॉ समाप्त करने के लिए बाधित कर दिया।

कॉर्न लॉ हटने के प्रभाव: कॉर्न लॉ के हटने का मतलब था कि ब्रिटेन में जिस भाव पर भोजन का उत्पादन होता था उससे कहीं सस्ते दर पर उसे आयात किया जा सकता था। ब्रिटेन के किसानों द्वारा उगाए जाने वाले अनाज इस स्थिति में नहीं थे कि सस्ते आयात के आगे टिक सकें।

खेती की जमीन का एक बड़ा हिस्सा खाली छोड़ दिया गया और लोग भारी संख्या में बेरोजगार हो गए। लोग एक बड़ी संख्या में काम कि तलाश में शहरों की ओर पलायन करने लगे। कई लोग विदेशों की तरफ भी पलायन कर गए।

गिरते दामों की वजह से ब्रिटेन में खाने पीने की चीजों की माँग बढ़ने लगी। साथ में औद्योगीकरण से लोगों की आमदनी भी बढ़ने लगी। इसके परिणामस्वरूप ब्रिटेन को और भोजन आयात करने की जरूरत पड़ने लगी। इस माँग को पूरा करने के लिए पूर्वी यूरोप, अमेरिका, रूस और ऑस्ट्रेलिया में जमीन का एक बड़ा भाग साफ किया जाने लगा।

अनाज को बंदरगाहों तक सही समय पर पहुँचाना भी जरूरी हो गया था। इसके लिए रेल लाइनें बिछाई गईं ताकि खेत से अनाज को सीधा बंदरगाहों तक पहुँचाया जा सके। खेत पर काम करने के लिए आसपास नई आबादी बसाने की जरूरत भी महसूस हुई। इन सब जरूरतों को पूरा करने के लिए लंदन जैसे वित्तीय केंद्रों से इन भागों तक पूँजी भी आने लगी।

अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया में मजदूरों की कमी पड़ रही थी। इस कमी को पूरा करने के लिए भारी संख्या में लोग पलायन करके वहाँ पहुँचने लगे। उन्नीसवीं सदी में लगभग पाँच करोड़ लोग यूरोप से अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया पहुँच चुके थे। इस दौरान पूरी दुनिया के विभिन्न भागों से लगभग 15 करोड़ लोगों का पलायन हुआ। 1890 का दशक आते-आते कृषी क्षेत्र में एक वैश्विक अर्थव्यवस्था का निर्माण हो चुका था। इसके साथ श्रम के प्रवाह, पूँजी के प्रवाह और तकनीकी बदलाव के क्षेत्र में बड़े ही जटिल परिवर्तन हुए।

तकनीक की भूमिका : इस दौरान विश्व की अर्थव्यवस्था के भूमंडलीकरण में टेकनॉलोजी ने एक अहम भूमिका निभाई। इस युग के कुछ मुख्य तकनीकी खोज हैं रेलवे, स्टीम शिप और टेलिग्राफ। रेलवे ने बंदरगाहों और आंतरिक भूभागों को आपस में जोड़ दिया। स्टीम शिप के कारण माल को भारी मात्रा में अतलांतिक के पार ले जाना आसान हो गया। टेलीग्राफ की मदद से संचार व्यवस्था में तेजी आई और इससे आर्थिक लेन देन बेहतर रूप से होने लगे।

मीट का व्यापार: मीट का व्यापार इस बात का बहुत अच्छा उदाहरण है कि नई टेक्नॉलोजी से किस तरह आम आदमी का जीवन बेहतर हो जाता है। 1870 के दशक तक जानवरों को जिंदा ही अमेरिका से यूरोप ले जाया जाता था। जिंदा जानवरों को जहाज से ले जाने में कई परेशानियाँ होती थीं। वे ज्यादा जगह लेते थे और कई जानवर रास्ते में बीमार हो जाते थे या मर भी जाते थे। इसके कारण यूरोप के ज्यादातर लोगों के लिए मीट एक विलासिता की वस्तु ही थी।

रेफ्रिजरेशन टेक्नॉलोजी ने तस्वीर बदल दी। अब जानवरों को अमेरिका में हलाल किया जा सकता था और प्रोसेस्ड मीट को यूरोप ले जाया जा सकता था। इससे शिप में उपलब्ध जगह का बेहतर इस्तेमाल संभव हो पाया। इससे यूरोप में मीट अधिक मात्रा में उपलब्ध होने लगा और कीमतें गिर गईं। अब आम आदमी भी नियमित रूप से मीट खा सकता था।

लोगों का पेट भरा होने के कारण देश में सामाजिक शाँति आ गई। अब ब्रिटेन के लोग देश की उपनिवेशी महात्वाकाँछा को गले उतारने को तैयार लगने लगे।

उन्नीसवीं सदी का उत्तरार्ध और उपनिवेशवाद : एक तरफ व्यापार के फैलने से यूरोप के लोगों की जिंदगी बेहतर हो गई तो दूसरी तरफ उपनिवेशों के लोगों पर इसका बुरा प्रभाव पड़ा।

जब अफ्रिका के आधुनिक नक्शे को गौर से देखेंगे तो आपको पता चलेगा कि ज्यादातर देशों की सीमाएँ सीधी रेखा में हैं। ऐसा लगता है जैसे किसी छात्र ने सीधी रेखाएँ खींच दी हो। 1885 में यूरोप की बड़ी शक्तियाँ बर्लिन में मिलीं और अफ्रिकी महादेश को आपस में बाँट लिया। इस तरह से अफ्रिका के ज्यादातर देशों की सीमाएँ सीधी रेखाओं में बन गईं।

रिंडरपेस्ट या मवेशियों का प्लेग: रिंडरपेस्ट मवेशियों में होने वाली एक बीमारी है। अफ्रिका में रिंडरपेस्ट के उदाहरण से पता चलता है कि किस तरह से एक बीमारी किसी भूभाग में शक्ति के समीकरण को भारी तौर पर प्रभावित कर सकती है।

अफ्रिका वैसा महादेश था जहाँ पर जमीन और खनिजों का अकूत भंडार था। यूरोपीय लोग खनिज और बागानों से धन कमाने के लिए अफ्रिका पहुँचे थे। लेकिन उन्हें वहाँ मजदूरों की भारी कमी झेलनी पड़ी। वहाँ एक और बड़ी समस्या ये थी कि स्थानीय लोग मेहनताना देने के बावजूद काम नहीं करना चाहते थे। दरअसल अफ्रीका की आबादी बहुत कम थी और वहाँ उपलब्ध संसाधनों की वजह से लोगों की जरूरतें आसानी से पूरी हो जाती थी। उन्हें इस बात की कोई जरूरत ही नहीं थी कि पैसे कमाने के लिए काम करें।

यूरोपीय लोगों ने अफ्रिका के लोगों को रास्ते पर लाने के लिए कई तरीके अपनाए। उनमें से कुछ नीचे दिये गये हैं।

  • लोगों पर इतना अधिक टैक्स लगाया गया कि उसे केवल वो ही अदा कर पाते थे जो खानों और बागानों में काम करते थे।
  • उत्तराधिकार के कानून को बदल दिया गया। अब किसी भी परिवार का एक ही सदस्य जमीन का उत्तराधिकारी बन सकता था। इससे अन्य लोगों को मजदूरी करने पर बाध्य होना पड़ा।
  • खान में काम करने वाले मजदूरों को कैंपस के भीतर ही रखा जाता था और उन्हें खुला घूमने की छूट नहीं थी।

रिंडरपेस्ट का प्रकोप: रिंडरपेस्ट का अफ्रिका में आगमन 1880 के दशक के आखिर में हुआ था। यह बीमारी उन घो‌ड़ों के साथ आई थी जो ब्रिटिश एशिया से लाए गए थे। ऐसा उन इटैलियन सैनिकों की मदद के लिए किया गया था जो पूर्वी अफ्रिका में एरिट्रिया पर आक्रमण कर रहे थे। रिंडरपेस्ट पूरे अफ्रिका में किसी जंगल की आग की तरह फैल गई। 1892 आते आते यह बीमारी अफ्रिका के पश्चिमी तट तक पहुँच चुकी थी। इस दौरान रिंडरपेस्ट ने अफ्रिका के मवेशियों की आबादी का 90% हिस्सा साफ कर दिया।

अफ्रिकियों के लिए मवेशियों का नुकसान होने का मतलब था रोजी रोटी पर खतरा। अब उनके पास खानों और बागानों में मजदूरी करने के अलावा और कोई चारा नहीं था। इस तरह से मवेशियों की एक बीमारी ने यूरोपियन को अफ्रिका में अपना उपनिवेश फैलाने में मदद की।

भारत से बंधुआ मजदूरों का पलायन : वैसे मजदूर जो किसी खास मालिक के लिए किसी खास अवधि के लिए काम करने को प्रतिबद्ध होते हैं बंधुआ मजदूर कहलाते हैं। आधुनिक बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य भारत और तामिल नाडु के सूखाग्रस्त इलाकों से कई गरीब लोग बंधुआ मजदूर बन गए। इन लोगों को मुख्य रूप से कैरेबियन आइलैंड, मॉरिशस और फिजी भेजा गया। कई को सीलोन और मलाया भी भेजा गया। भारत में कई बंधुआ मजदूरों को असम के चाय बागानों में भी काम पर लगाया गया।

एजेंट अक्सर झूठे वादे करते थे और इन मजदूरों को ये भी पता नहीं होता था कि वे कहाँ जा रहे हैं। इन मजदूरों के लिए नई जगह पर बड़ी भयावह स्थिति हुआ करती थी। उनके पास कोई कानूनी अधिकार नहीं होते थे और उन्हें कठिन परिस्थितियों में काम करना पड़ता था।

1900 के दशक से भारत के राष्ट्रवादी लोग बंधुआ मजदूर के सिस्टम का विरोध करने लगे थे। इस सिस्टम को 1921 में समाप्त कर दिया गया।

विदेशों में भारतीय व्यवसायी : भारत के नामी बैंकर और व्यवसायियों में शिकारीपुरी श्रौफ और नट्टुकोट्टई चेट्टियार का नाम आता है। वे दक्षिणी और केंद्रीय एशिया में कृषि निर्यात में पूँजी लगाते थे। भारत में और विश्व के विभिन्न भागों में पैसा भेजने के लिए उनका अपना ही एक परिष्कृत सिस्टम हुआ करता था।

भारत के व्यवसायी और महाजन उपनिवेशी शासकों के साथ अफ्रिका भी पहुँच चुके थे। हैदराबाद के सिंधी व्यवसायी तो यूरोपियन उपनिवेशों से भी आगे निकल गये थे। 1860 के दशक तक उन्होंने पूरी दुनिया के महत्वपूर्ण बंदरगाहों फलते फूलते इंपोरियम भी बना लिये थे।

भारतीय व्यापार, उपनिवेश और वैश्विक सिस्टम: भारत से उम्दा कॉटन के कपड़े वर्षों से यूरोप निर्यात होता रहे थे। लेकिन इंडस्ट्रियलाइजेशन के बाद स्थानीय उत्पादकों ने ब्रिटिश सरकार को भारत से आने वाले कॉटन के कपड़ों पर प्रतिबंध लगाने के लिए बाध्य किया। इससे ब्रिटेन में बने कपड़े भारत के बाजारों में भारी मात्रा में आने लगे। 1800 में भारत के निर्यात में 30% हिस्सा कॉटन के कपड़ों का था। 1815 में यह गिरकर 15% हो गया और 1870 आते आते यह 3% ही रह गया। लेकिन 1812 से 1871 तक कच्चे कॉटन का निर्यात 5% से बढ़कर 35% हो गया। इस दौरान निर्यात किए गए सामानों में नील (इंडिगो) में तेजी से बढ़ोतरी हुई। भारत से सबसे ज्यादा निर्यात होने वाला सामान था अफीम जो मुख्य रूप से चीन जाता था।

भारत से ब्रिटेन को कच्चे माल और अनाज का निर्यात बढ़ने लगा और ब्रिटेन से तैयार माल का आयात बढ़ने लगा। इससे एक ऐसी स्थिति आ गई जब ट्रेड सरप्लस ब्रिटेन के हित में हो गया। इस तरह से बैलेंस ऑफ पेमेंट ब्रिटेन के फेवर में था। भारत के बाजार से जो आमदनी होती थी उसका इस्तेमाल ब्रिटेन अन्य उपनिवेशों की देखरेख करने के लिए करता था और भारत में रहने वाले अपने ऑफिसर को ‘होम चार्ज’ देने के लिए करता था। भारत के बाहरी कर्जे की भरपाई और रिटायर ब्रिटिश ऑफिसर (जो भारत में थे‌) का पेंशन का खर्चा भी होम चार्ज के अंदर ही आता था।

युद्ध काल की अर्थव्यवस्था : पहले विश्व युद्ध ने पूरी दुनिया को कई मायनों में झकझोर कर रख दिया था। लगभग 90 लाख लोग मारे गए और 2 करोड़ लोग घायल हो गये।

मरने वाले या अपाहिज होने वालों में ज्यादातर लोग उस उम्र के थे जब आदमी आर्थिक उत्पादन करता है। इससे यूरोप में सक्षम शरीर वाले कामगारों की भारी कमी हो गई। परिवारों में कमाने वालों की संख्या कम हो जाने के कारण पूरे यूरोप में लोगों की आमदनी घट गई।

ज्यादातर पुरुषों को युद्ध में शामिल होने के लिए बाध्य होना पड़ा लिहाजा कारखानों में महिलाएँ काम करने लगीं। जो काम पारंपरिक रूप से पुरुषों के काम माने जाते थे उन्हें अब महिलाएँ कर रहीं थीं।

इस युद्ध के बाद दुनिया की कई बड़ी आर्थिक शक्तियों के बीच के संबंध टूट गये। ब्रिटेन को युद्ध के खर्चे उठाने के लिए अमेरिका से कर्ज लेना पड़ा। इस युद्ध ने अमेरिका को एक अंतर्राष्ट्रीय कर्जदार से अंतर्राष्ट्रीय साहूकार बना दिया। अब विदेशी सरकारों और लोगों की अमेरिका में संपत्ति की तुलना मंअ अमेरिकी सरकार और उसके नागरिकों की विदेशों में ज्यादा संपत्ति थी।

युद्ध के बाद के सुधार : जब ब्रिटेन युद्ध में व्यस्त था तब जापान और भारत में उद्योग का विकास हुआ। युद्ध के बाद ब्रिटेन को अपना पुराना दबदबा कायम करने में परेशानी होने लगी। साथ ही ब्रिटेन अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जापान से टक्कर लेने में अक्षम पड़ रहा था। युद्ध के बाद ब्रिटेन पर अमेरिका का भारी कर्जा लद चुका था।

युद्ध के समय ब्रिटेन में चीजों की माँग में तेजी आई थी जिससे वहाँ की अर्थव्यवस्था फल फूल रही थी। लेकिन युद्ध समाप्त होने के बाद माँग में गिरावट आई। युद्ध के बाद ब्रिटेन के 20% कामगारों को अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा।

युद्ध के पहले पूर्वी यूरोप गेहूँ का मुख्य निर्यातक था। लेकिन युद्ध के दौरान पूर्वी यूरोप के युद्ध में शामिल होने की वजह से कनाडा, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया गेहूँ के मुख्य निर्यातक के रूप में उभरे थे। जैसे ही युद्ध खत्म हुआ पूर्वी यूरोप ने फिर से गेहूँ की सप्लाई शुरु कर दी। इसके कारण बाजार में गेहूँ की अधिक खेप आ गई और कीमतों में भारी गिरावट हुई। इससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था में तबाही आ गई।


बड़े पैमाने पर उत्पादन और उपभोग की शुरुआत : अमेरिका की अर्थव्यवस्था में युद्ध के बाद के झटकों से तेजी से निजात मिलने लगी। 1920 के दशक में बड़े पैमाने पर उत्पादन अमेरिकी अर्थव्यवस्था की मुख्य पहचान बन गई। फोर्ड मोटर के संस्थापक हेनरी फोर्ड मास प्रोडक्शन के जनक माने जाते हैं। बड़े पैमाने पर उत्पादन करने से उत्पादन क्षमता बढ़ी और कीमतें घटीं। अमेरिका के कामगार बेहतर कमाने लगे इसलिए उनके पास खर्च करने के लिए ज्यादा पैसे थे। इससे विभिन्न उत्पादों की माँग तेजी से बढ़ी।

कार का उत्पादन 1919 में 20 लाख से बढ़कर 1929 में 50 लाख हो गया। इसी तरह से बजाजी सामानों; जैसे रेफ्रिजरेटर, वाशिंग मशीन, रेडियो, ग्रामोफोन, आदि की माँग भी तेजी से बढ़ने लगी। अमेरिका में घरों की माँग में जबरदस्त बढ़ोतरी हुई। आसान किस्तों पर कर्ज की सुविधा के कारण इस माँग को और हवा मिली।

इस तरह से अमेरिकी अर्थव्यवस्था खुशहाल हो गई। 1923 में अमेरिका ने दुनिया के अन्य हिस्सों को पूँजी निर्यात करना शुरु किया और सबसे बड़ा विदेशी साहूकार बन गया। इससे यूरोप की अर्थव्यवस्था को भी सुधरने का मौका मिला और पूरी दुनिया का व्यापार अगले छ: वर्षों तक वृद्धि दिखाता रहा।