अंतरा - निर्मल वर्मा - पुनरावृति नोट्स
CBSE Class 12 हिंदी ऐच्छिक
पुनरावृति नोट्स
पाठ-18 जहाँ कोई वापसी नहीं
पाठ परिचय
‘जहां कोई वापसी नहीं ‘यात्रा वृतांत निर्मल वर्मा द्वारा रचित ‘धुंध में उठती धुन’ संग्रह से लिया गया है। लेखक का मत है कि अंधाधुंध विकास तथा पर्यावरण संबंधी सुरक्षा के बीच संतुलन होना चाहिए अन्यथा विकास हमेशा विस्थापन तथा पर्यावरण सुम्बन्धी समस्याओं को जन्म देता रहेगा। औद्योगिक विकास के इस दौर में प्राकृतिक सौन्दर्य नष्ट होता को जन्म देता रहेगा। औद्योगिक विकास के इस दौर में प्राकृतिक सौन्दर्य नष्ट होता रहेगा तथा मनुष्य अपनी संस्कृति तथा परिवेश से विस्थापित होकर जीने को मजबूर होगा।
स्मरणीय बिंदु
- लेखक सन् 1983 में दिल्ली की ‘लोकायन’ संस्था की ओर से सिंगरौली के नवा गाँव गए थे जहाँ लगभग अठारह छोटे-छोटे गाँव थे। यही एक गाँव या ‘अमझर’। जहाँ आम झरते थे (अत्याध्कि पैदावर) पर जब से अमरौली प्रो जेक्ट के अन्तर्गत यह घोषणा हुई कि कई गाँव उजाड़ दिए जाऐगें तब से न जाने क्यों आम के पेड़ सूखने लगे। लेखक को लगा कि उसे आज विस्थापन के विरोध् में प्रकृति का (पेड़ो का) सामूहिक मूक सत्याग्रह देखाने का अनुभव हुआ। लेखाक को लगा सत्य ही है कि आदमी उजड़ेगा तो पेड़ जीवित रहकर क्या करेगा? लेखाक ने टिहरी गढ़वाल में पेड़ों की रक्षा के लिए मनुष्य का सत्याग्रह तो सुना था पर व्यक्ति के लिए पेड़ों के सत्याग्रह को पहली बार महसूस किया था।
- लेखक के लिए यह भी अनूठा अनुभव किया था कि स्वच्छ, पवित्रा और प्राकृतिक खुले वातावरण में जिन्दगी बिताने वाले लोग किस प्रकार विस्थापन के पश्चात् अनाथ, अपने मूल आधर से कटे होने के अहसास के साथ दम घुटती, भयावह बस्ती में रहने के लिए मजबूर हो जाते है।
- लेखक ने उन्हें आधुनिक भारत का नया शरणार्थी माना है जिन्हें औद्योगिक विकास के नाम पर हमेशा-हमेशा के लिए उनके मूल स्थान से हटा दिया गया। प्राकृतिक आपदा के कारण जिन लोगों को अपना घर छोड़ना पड़ता है वे कुछ अरसे बाद आफत टलते ही दोबारा अपने जाने-पहचाने परिवेश में लौट भी आते हैं, किंतु इतिहास जब विकास और प्रगति के नाम पर लोगों को विस्थापित करता है, तो वे फिर अपने घर वापस नही लौट सकते। औद्योगीकरण की आँधी में सिर्फ मनुष्य ही नहीं उखड़ता बल्कि उसका परिवेश और आवास स्थल हमेशा के लिए समाप्त हो जाते है। सिंगरौली की उर्वरा भूमि और समृद्ध जंगलों को देखकर लेखक को अहसास होता है कि विकास के नाम पर किस प्रकार एक भरे पूरे ग्रामीण अंचल को कितनी नासमझी और निर्दयता से उजाड़ा जा सकता है।
- कभी-कभी इलाके की संपदा ही उसका अभिशाप बन जाती है। अपनी अपार खनिज संपदा के अभिशाप के कारण ‘बैकुंठ और कालापानी’ के नाम से सुशोभित सिंगरौली गाँव औद्योगीकरण की भेंट चढ़ गया।
- लेखक को लगता था कि औद्योगीकरण का चक्का, जो स्वतंत्राता के बाद चलाया गया, उसे रोका जा सकता था, उसके विकल्प तलाशे जा सकते थे, पश्चिम जिस विकल्प को खो चुका था भारत में उसकी संभावनाएँ खुली थी पर पश्चिमी देशों का अंध अनुकरण करने के कारण सारी संभावनाएँ हाथ से निकल गई।
- भारत की सांस्कृतिक विरासत यूरोप की तरह म्यूजियम्स और संग्रहालयों में जमा नहीं थी अपितु आदमी और प्राकृतिक के अटूट रिश्तों में जीवित थी जो उसे पूरे परिवेश के साथ जोड़ती थी।
- यूरोप और भारत की पर्यावरण संबंधी चिंताएँ बिल्कुल भिन्न है। यूरोप में पर्यावरण का प्रश्न मनुष्य और भूगोल के बीच संतुलन बनाए रखने का है, भारत में यही प्रश्न मनुष्य और उसकी संस्कृति के बीच पारंपरिक संबंध बनाए रखने का हो जाता है।
- लेखक के अनुसार स्वतंत्रा भारत की सबसे बड़ी ट्रैजेडी यह है कि शासक वर्ग ने औद्योगीकरण की योजनाएँ बनाते समय पश्चिमी देशों को अपना आदर्श माना, प्रकृति मनुष्य और संस्कृति के बीच एक नाजुक संतुलन किस प्रकार बचाया जा सकता है इसे सर्वथा भूल गए। हम भारतीय मर्यादाओं को आधर बनाकर भी भारतीय औद्योगिक विकास का स्वरूप निर्धरित कर सकते थे तथा विस्थापन और पर्यावरण संबंध्ति समस्याओं से बच सकते थे।