संगठन-पुनरावृति नोट्स

                                                             CBSE कक्षा 12 व्यवसाय अध्ययन

(भाग-1) पाठ-5 संगठन
पुनरावृति नोट्स


  • संगठन का अर्थ-
    प्रबन्धक के कार्य संगठन से तात्पर्य उस प्रक्रिया से है जिसमें मानवीय प्रयासों में सामंजस्य स्थापित करके तथा संसाधनों को जोड़कर दोनों को एकत्रित करने में लागू होता है ताकि निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करने में उनका उपयोग हो सके।
    संगठन वह प्रक्रिया है जो योजनाओं को, कार्य के स्पष्टीकरण, कार्यशैली संबंध तथा संसाधनों को प्रभावपूर्ण ढंग से काम पर लगाकर लागू करता है तथा उसे चिह्नित तथा इच्छित लक्ष्यों को प्राप्त करने रूप में परिभाषित किया जा सकता है।
  • संगठन प्रबन्धक के कार्य के रूप में
    1. एक संगठनात्मक ढाँचा तैयार करता है।
    2. उपक्रम के कार्यों को परिभाषित करता है।
    3. विभिन्न मनुष्यों के बीच सामंजस्य स्थापित करता है।
    4. अधिकार तथा कर्त्तव्यों का ज्ञात कराता है।
  • संगठन प्रक्रिया
    संगठन प्रक्रिया के विभिन्न चरण
    1. कार्य की पहचान तथा विभाजन
    2. विभागीकरण
    3. कर्त्तव्य का निर्धारण
    4. रिपोर्टिंग संबंध स्थापना
  1. संगठन प्रक्रिया का पहला कदम पूर्व निर्धारित योजनाओं की पहचान करना तथा कार्य का विभाजन इस प्रकार करना है कि कार्य करने में पुनरावृति न हो तथा काम का बोझ सभी कर्मचारियों में विभाजित हो जाए।
  2. प्रक्रिया का दूसरा चरण संगठन के विभिन्न विभागों में विभक्त करना है। जब कार्य को छोटी-छोटी तथा प्रबंधकीय क्रियाओं में विभक्त कर दिया जाता है तो उसमें से जो क्रियाएँ समान किया जाता है। इस प्रकार का निर्धारण विशिष्टिकरण को सरल बनाता है।
  3. विभागों का निर्धारण होने के बाद यह अति आवश्यक है की प्रत्येक विभाग के कर्मचारी को उसकी योग्यता के अनुसार कार्य भर सौंपा जाए। अन्य शब्दों में प्रत्येक व्यक्ति को वही कार्य सौंपा जाना चाहिए जिसके लिए वह उचित हो।
  4. रिपोर्टिंग संबंध स्थापित करना:- जब दो या दो से अधिक एक सामान उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए कार्य करते हैं तो उनके मध्य संबंधों की स्पष्ट व्याख्या की जानी जरूरी है। प्रत्येक व्यक्ति को यह पता होना चाहिए की कौन उसका अधिकारी तथा कौन अधीनस्थ है।
  • संगठन का महत्त्व:-
    1. विशिष्टकरण का लाभ:- संगठन के अंतर्गत सम्पूर्ण कार्यों को अनेक उपकार्यों में बाँट दिया जाता है। सभी उपकार्यों पर योग्य व्यक्तियों की नियुक्ति की जाती है जो एक ही कार्य को बार बार उसके विशेषज्ञ बन जाता हैं। जिससे कार्य ठीक और तेजी से होता है।
    2. कार्य संबंधों में स्पष्टता:- संगठन कर्मचारियों के मध्य संबंधों को स्पष्ट करता है। इससे स्पष्ट होता है कौन किसको रिपोर्ट करेगा। इसमें उच्चाधिकारियों तथा अधीनस्थों के संबंधों को स्पष्ट किया जाता है।
    3. संसाधनों का अनुकुलतम उपयोग:- संगठन प्रक्रिया में कुल काम को अनेक छोटी-छोटी क्रियाओं में विभाजित कर दिया जाता है। प्रत्येक क्रिया को करने वाला एक अलग कर्मचारी होता है।
    4. प्रभावी प्रशासन:- प्रायः देखा जाता है की प्रबंधकों में अधिकारों को लेकर भ्रम की स्थति बनी रहती है। संगठन प्रक्रिया प्रत्येक प्रबन्धक द्वारा की जाने वाली विभिन्न क्रियाओं व प्राप्त अधिकारों का स्पष्ट उल्लेख करती है।
    5. परिवर्तन को अपनाना:- उचित रूप से बने गयी संगठन संरचना लोचदार होती है जो बाह्य वातावरण में परिवर्तनों तकनीकी, उत्पादों,बाजारों, साधनों से उत्पन्न कार्यभार के समायोजन की सुविधा देता है।
    6. कर्मचारियों का विकास:- स्वतंत्र एवं प्रभावी संगठन कर्मचारियों में पहला शक्ति तथा सृजनशील सोच को प्ररित करता है। जब प्रबन्धक भी संगठन की वृद्धि और विकास के अवसरों का लाभ उठा सकते हैं।
    7. विस्तार तथा विकास:- संगठन कार्य व्यावसायिक उपक्रमों को अपना आकार बढ़ाने, भौगोलिक क्षेत्र को बढ़ाने, ग्राहकों व बिक्री तथा लाभ बढ़ने में सहायता करता है। यह उपक्रम की वृद्धि तथा विविधीकरण में सहायता करता है।
  • संगठन ढाँचा
    संगठन प्रक्रिया जिस संरचना का सृजन करती है, उसे संगठनात्मक संरचना कहते है। इसके अंतर्गत संगठन के अनेक पद स्थापित किये जाते है और सभी पदों पर कार्य करने वाले लोगो के संबंधों का स्पष्ट कर दिया जाता है। संरचना द्वारा प्रबंधकों व व अन्य कर्मचारियों को कार्य के संबंध में एक आधार व रूपरेखा उपलब्ध करायी जाती है। संगठन एक ढ़ाँचागत फ्रेमवर्क है जिसके अन्तर्गत विभिन्न क्रियाओं को समन्वित तथा एक-दूसरे से संबंधित किया जाता है।
  • प्रबंध विस्तृति तथा संगठनात्मक ढाँचे के बीच संबंध:-
    प्रबंध प्रस्तुति से तात्पर्य अधीनस्थों की उस संख्या से है, जिनका अधिकारी कुशलता के साथ प्रबंध कर लेता है। प्रबंध की विस्तृति काफी हद तक संगठनात्मक ढ़ाँचे को आकार देती है। यह ढ़ाँचे में प्रबन्ध के स्तरों को निश्चित करती है। यदि प्रबंध का विस्तार क्षेत्र सीमित है, तो संगठनात्मक ढाँचा लम्बा होगा और यदि प्रबंध का विस्तार क्षेत्र सीमित हैं, तो संगठनात्मक ढाँचा लंबा होगा और यदि प्रबंध का विस्तार क्षेत्र विस्तृत है, तो संगठनात्मक ढाँचा चौरस होगा।
  • संगठनात्मक संरचना के प्रकार:-
    1. क्रियात्मक संरचना
    2. प्रखण्डीय संरचना
  1. क्रियात्मक संगठन ढाँचा:- पूरी संस्था को उसके द्वारा की जाने वाली मुख्य क्रियाओं / कार्यों (जैसे उत्पादन, विपणन, खोज एवं विकास, वित्त आदि) के आधार पर विभक्त करने को कार्यात्मक संगठन ढाँचा कहते हैं।
  • प्रबंध संचालक
    • मानव संसाधन
    • विपणन
    • खोज एवं विकास
    • क्रय
  • उपयोगिता
    1. जहाँ व्यवसाय इकाई का आकार बड़ा हो।
    2. जहाँ विशिष्टिकरण आवश्यक है।
    3. जहाँ मुख्य रूप से एक ही उत्पाद बेचा जाता हो।
  • लाभ
    1. विशिष्टीकरण:- जब कार्यों को कार्य के प्रकार के आधार पर समूहों में रखा जाता है तो सभी कार्य केवल एक प्रकार के होते हैं। इस प्रकार कम समय में अधिक व अच्छा काम किया जाता है। इससे विशिष्टीकरण के लाभ प्राप्त होते है।
    2. समन्वय की स्थापना:- एक विभाग में काम करने वाले सभी व्यक्ति अपनी-अपनी जॉब के विशेषज्ञ होते हैं। इससे विभागीय स्तर पर समन्वय स्थापित करने में आसानी रहती है।
    3. प्रबंधकीय कुशलता में वृद्धि:- एक ही काम को बार-बार किया जाता है, इसीलिए प्रबंधकीय कुशलता में वृद्धि होती है।
    4. प्रयत्नों की न्यूनतम दोहराई:- संगठन के इस प्रारूप में प्रयत्नों की अनावश्यक दोहराई समाप्त हो जाती है।
  • हानियाँ
    1. संगठनात्मक उद्देश्योंं की अवहेलना:- प्रत्येक विभागीय अध्यक्ष अपनी इच्छानुसार काम करता है। वे हमेशा अपने विभागीय उद्देश्योंं कको ही महत्त्व देते हैं। अतः संगठनात्मक उद्देश्योंं की हनी होती है।
    2. अर्न्तविभागीय समन्वय में अवहेलना:- सभी विभागीय अध्यक्ष अपनी-अपनी मर्ज़ी से काम करता हैं। इससे विभाग के अन्दर समन्वय स्थापित होते है, परन्तु अंतर्विभागीय समन्वय कठिन हो जाता है।
    3. सम्पूर्ण विकास में बाधा:- यह कर्मचारियों के पूर्ण विकास में रूकावट है। इसके अन्तर्गत प्रत्येक कर्मचारी कुल जॉब के एक छोटे से भाग का विशेषज्ञ बन पाता है।
  1. प्रभागीय संगठन ढाँचा:- पूरी संस्था को उसके द्वारा उत्पादित किया जाने वाले उत्पादों (जैसे: मेटल उत्पाद, प्लास्टिक उत्पाद आदि) के आधार पर विभक्त करने को प्रभागीय संगठन ढाँचा कहते हैं।
    संचालन बोर्ड
    प्रबन्ध संचालक

    सौन्दर्य प्रसाधन
    • क्रय
    • उत्पादन
    • विपणन
    • वित्त

    वस्त्र
    • क्रम
    • उत्पादन
    • विपणन
    • वित्त

    दवाइयाँ
    • क्रम
    • उत्पादन
    • विपणन
    • वित्त

    साबुन
    • क्रम
    • उत्पादन
    • विपणन
    • वित्त
  • उपयुक्तता
    1. यह ढाँचा उन संगठनो के लिए उपयुक्त है जहाँ पर विविध प्रकार के उत्पादों का उत्पादन बड़ी मात्रा में किया जाता हैं।
    2. उन संगठनों के लिए उपयुक्त है जो तेजी से विकास कर रहे हैं तथा अपने में अधिक कर्मचारी व विभागों की स्थापना कर रहे हैं।
  • लाभ:-
    1. डिविजन अध्यक्षों का विकास:- प्रत्येक डिविजनल अध्यक्ष अपने उत्पादन से संबंधित सभी कार्य देखता है। इससे एक डिविजनल अध्यक्ष में विभिन्न कौशल विकसित होता है।
    2. डिविजनल परिणामो को आंका जा सकता है:- इसी आधार पर अलाभदायक डिविजन को बंद करने का निर्णय लिया जा सकता है।
    3. शीघ्र निर्णयः- एक डिविजन का प्रबन्धक अपने डिविजन के बारे में स्वतंत्रतारूप से निर्णय ले सकता है।
  • हानियाँ:-
    • डिविजनल अध्यक्षों के मध्य संघर्ष उत्पन्न करती है क्योंकि वे अपना प्रभुत्व स्थापित करना चाहता है।
    • कार्यों की दोहराई:- प्रत्येक डिविजन के लिए सभी क्रियाएँ प्रदान की जाती है, इससे कार्यों की अनावश्यक दोहराई होती है तथा लगत बढ़ती है।
    • स्वार्थी प्रवत्ति:- प्रत्येक डिविजन का यह प्रयत्न रहता है की वह बढ़िया प्रदर्शन करें। इससे पूरी संस्था के हितों को ठेस पहुँचती हैं। क्योंकि अन्य डिविजनो के हितों को अनदेखा कर दिया जाता है।
  1. औपचारिक संगठन:- औपचारिक संगठन का आशय ऐसी संरचना से है जिसे संगठनात्मक लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु प्रबन्ध द्वारा तैयार किया जाता है। इसमें कार्यरत व्यक्तियों के उत्तरदायित्वों / अधिकारों एवं पारस्परिक संबंधों को स्पष्टतः परिभाषित कर दिया जाता है। औपचारिक संगठन में संरचना क्रियात्मक या प्रखण्डीय हो सकती है।
  • लक्षण:-
    1. इसमें परिभाषित आपसी संबंध होता है। इसे उच्च प्रबन्ध द्वारा वैचारिक रूप से बनाया जाता है।
    2. यह नियमों एवं कार्यविधियों पर आधारित होता है।
    3. यह कार्य विभाजन पर आधारित होता है।
    4. यह जानबूझ कर स्थापित किया जाता है।
    5. यह अव्यक्तिगत होता है अर्थात्. इसमें व्यक्ति का नही, काम का महत्त्व होता है।
    6. यह अधिक स्थिर होता है।
  • लाभ:-
    1. उत्तरदेयता निर्धारण में आसानी क्योकि सभी कर्मचारियों के अधिकार एवं उत्तरदायित्व निश्चित होती हैं।
    2. कार्यों का दोहराव नहीं होता।
    3. आदेश की एकता का पालन करना संभव है।
    4. लक्ष्यों को प्राप्त करने में आसानी होती है।
    5. संगठन में स्थिरता रहती है क्योकि सभी व्यक्ति अपने-अपने अधिकार क्षेत्र में रहते हुए तथा नियमों का पालन करते हुए कार्य करते हैं।
  • हानियाँ:-
    1. प्रत्येक कार्य के नियमबद्ध होने के कारण अनावश्यक देरी होती है।
    2. पहल क्षमता की कमी आ जाती है क्योंकि कर्मचारियों को वैसा ही करना पड़ता है जैसा उनको निर्देश दिया जाता है।
    3. सीमित क्षेत्र:- क्योंकि मानव संबंधो, प्रतिभा अदि की उपेक्षा होती है।
  1. अनौपचारिक संगठन:- ऐसा संगठन जिसकी स्थापना जानबूझकर नहीं की जाती बल्कि अनायास ही पारस्परिक समान हितो, रूचियों, धर्म एवं संबंधो के कारण हो जाती है। इस ढ़ाँचे का प्रयोजन मनौवैज्ञानिक संतुष्टि प्राप्त करना है। उदाहरण के लिए-एक संस्था के कर्मचारी एवं अधिकारी मध्य अवकाश में एक साथ बैठा कर खाना खाते हैं एवं गपशप करते हैं, चाहे वह किसी भी स्तर पर, किसी भी विभाग के हो।
  • लक्षण:-
    1. औपचारिक संगठन पर आधारित होता है क्योंकि औपचारिक संगठन में काम कर रहे व्यक्तियों के मध्य ही अनौपचारिक संबंध होते है।
    2. इसके लिखित नियम एवं प्रक्रियाएँ नहीं होती हैं।
    3. स्वतंत्र सन्देशवाहन श्रृंखला,क्योंकि संदेशवाहन के प्रवाह को स्पष्ट नहीं किया जा सकता।
    4. यह जान्भुझ्कर स्थापित नहीं कियां जाता।
    5. यह व्यक्तिगत होता है क्योंकि इसमें व्यक्तियों की भावनाओं कको ध्यान में रखा जाता है।
  • लाभ:-
    1. प्रभावपूर्ण संदेशवाहन:- इसके माध्यम से संदेश, अतिशीघ्र एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंचाए जा सकते हैं।
    2. सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति होती हैं क्योंकि समूह के सभी सदस्य संगठनात्मक व व्यक्तिगत मुद्दों पर एक-दूसरे का साथ देता हैं।
    3. संगठनात्मक उद्देश्यों की पूर्ति:- इसमें अधीनस्थ बिना किसी डर के अपनी बात अपने अधिकारियों को कह देते है जिससे अधिकारियो को उनकी कठिनाइयों को जानने में सहायता मिलती है।
  • हानियाँ:-
    1. यह अफवाहें फैलाता है क्योंकि सभी व्यक्ति लापरवाही से बातचीत करते हैं। कई बार गलत बात एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक फ़ैल जाती है।
    2. यह परिवर्तन का विरोध करता है और पुरानी पद्धतियों को ही लागू रखने पर जोर देता हैं।
    3. सामूहिक हितों की पहल:- यह सदस्यों पर दबाव बनता है की समूह की उम्मीदों को सुनिश्चित करें।
  • औपचारिक एवं अनौपचारिक संगठन में अंतर
    क्र.सं.आधारऔपचारिक संगठनअनौपचारिक संगठन
    1.अर्थयह अधिकार तथा उत्तरदायित्व ढ़ाँचे को प्रदर्शित करता है।यह सामाजिक संबंधो का जालतंत्र है जो की स्वयं उत्पन्न होता है।
    2.प्रकृतिकठोरलोचदार
    3.अधिकारप्रबंध के पद के अनुसार अधिकार उत्पन्न होता है।अधिकार व्यक्तिगत गुणों से उत्पन्न होता है।
    4.नियमो का पालननियमों का उल्लंघन करने पर दंड दिया जाता है।कोई दंड नही दिया जाता।
    5.संप्रेषण का प्रवाहसंप्रेषण संपर्क श्रृंखला के द्वारा पूरा होता है।सम्प्रेषण का बहाव नियोजित मार्ग से नहीं होता।
    6.प्रयोजनसंगठनात्मक लक्ष्यों को प्राप्त करना।मनोवैज्ञानिक संतुष्टि प्राप्त करना।
    7.निर्माण या उद्भवप्रबंध द्वारा इसका निर्माण यह सोच-विचार कर किया जाता है।कर्मचारियों में समाजिक अंतक्रिया के परिणामस्वरूप उत्पन्न होता है।
    8.संरचनाइसमें कार्यों एवं संबंधो की सुपरिभाषित संरचना होती है।यह संबंधो के, जटिल जाल से बनता है, इसीलिए कोई स्पष्ट संरचना नहीं होती।
    9.प्राधिकार का प्रवाहप्राधिकार ऊपर से नीचे की और आते हैं।प्राधिकार ऊर्ध्वाधर तथा समतल रेखा के रूप में कोई स्पष्ट संरचना नही होती।
    10.एक-दूसरे पर निर्भरतायह ढाँचा स्वतंत्र होता है।यह ढाँचा औपचारिक संगठन पर निर्भर करता है।
  • अधिकार अंतरण / अधिकारों का प्रत्यायोजन / भारार्पण
    अधिकार अंतरण का अभिप्राय अभीनस्थों को निश्चित सीमाओं के अन्तर्गत कार्य करने का अधिकार प्रदान करना है। प्रबन्धक जो प्राधिकार प्रत्यायोजना करता है, वह सौंपे गए कार्यों के उचित निष्पादन हेतु उत्तरदायी होता है तथा इसके कारण अधीनस्थ कार्य को प्रभावशाली रूप से करते हैं।
  • अधिकार अंतरण के तत्त्व / प्रक्रिया
    1. अधिकार:- इसका अभिप्राय निर्णय लेने की शक्ति से है। जब तक अधीनस्थों को अधिकार प्रदान न कर दिए जाएं तब तक कार्यभार सौंपना अर्थहीन होता है।
    2. उत्तरदायित्व:- इसका अर्थ सौंपे गए काम को ठीक ढंग से पूरा करने की अभीनस्थ की जिम्मेदारी से है। उत्तरदायित्व काम सौपने पर ही उत्पन्न होता है। अतः काम सौपने को ही उत्तरदायित्व कहा जाता है।
    3. जवाबदेही / उत्तरदेयता:- इसका अभिप्राय अधीनस्थ द्वारा कार्य निष्पादन के लिए अधिकारी को जवाब देने से है।
  • जवाबदेही की निरपेक्षता का सिद्धांत
    अधिकारों का भारार्पण किया जा रहा है, किंतु प्रबन्ध के द्वारा उत्तरदायित्व / जवाबदेही का भारार्पण नहीं किया जा सकता।
    इसके अनुसार किसी अधीनस्थ को सौंपे गए अधिकार वापस लेकर किसी अन्य को भारापित किए जा सकते है। अधीनस्थ द्वारा की गई किसी गलती के लिए प्रबन्धक अपनी जिम्मेदारियों से बच नही सकता।
    उदाहरण के लिए:- एक मुख्य प्रबन्धक के विपणन प्रबन्धक को 100 इकाइयाँ प्रतिदिन का लक्ष्य सौंपा, जिसे विपणन प्रबन्धक ने विक्रय प्रबन्धक को सौंपा। विक्रय प्रबन्धक उस लक्ष्य को पूरा न कर सका। ऐसी परिस्थिति में उत्तदेयता विपणन प्रबन्धक की रहती है, चाहे उसने अपने अधीनस्थों को यह लक्ष्य सौंप दिया हो। उत्तरदायित्व को सौपने से जवाबदेही से बच नही सकता।
    अधिकार अंतरण प्रक्रिया
    उत्तरदायित्व सौपनाअधिकार प्रदान करनाउत्तरदेयता निश्चित करना
  • अधिकार, उत्तरदायित्व एवं जवाबदेयता में अंतर:-
    क्र.सं.आधारअधिकारउत्तरदायित्वजवाबदेयता
    1.आशयइसमें आदेश देने का अधिकार होता है।सुपुर्द किये गए कार्य को करने का दायित्व होता है।सौंपे गये कार्य के परिणाम संबंध में जवाबदेयता होती है।
    2.उद्भवयह औपचारिक स्थिति से उत्पन्न होता है।यह अधिकारी-अधीनस्थ संबंध से उत्पन्न होता हैयह उत्तरदायित्व से उत्पन्न होता है।
    3.प्रवाहयह उच्च अधिकारी से अधीनस्थ की तरफ होता है।यह अधीनस्थ से उच्च अधिकारी की ओर - ऊपर की तरफ जाता है।यह अधीनस्थ से उच्च अधिकारी की ओर होती है।
    4.वापस लिया जानाइसे सूचना देकर भी किसी समय वापस लिया जा सकता है।इसे वापस नहीं लिया जा सकता है।इसे भी वापस नही लिया जा सकता है।
  • अधिकार अंतरण का महत्त्व:-
    1. प्रभावपूर्ण प्रबंध:- प्रभावपूर्णता का अर्थ है उद्देश्य को सफलतापूर्वक प्राप्त कर लेना। अधिकार अंतरण से प्रबंधको के कार्यभार में कमी आती है और वे अधिक महत्त्वपूर्ण कार्यों जैसे नियोजन / निणयन / नियंत्रण आदि पर अपना ध्यान केन्द्रित करते है।
    2. कर्मचारियों को प्रेरणा:- अधिकार अंतरण के परिणामस्वरूप कर्मचारियों को अपनी प्रतिभा का प्रयोग करने के ज्यादा अवसर मिलते है तथा वे अपनी पर्याप्त अधिकार दिए जाते हैं। उन्हें निर्णय के संबंध में बार-बार अधिकारियों के पास जाने की आवश्यकता नहीं होती। यह निर्णय को गति प्रदान करता है।
    3. कर्मचारियों का विकास:- अधिकार अंतरण के कारण कर्मचारियों को अपने प्रतिभा का प्रयोग करने के अधिक अवसर मिलते है तथा निर्णय भी जल्द लिए जा सकते है।
    4. उत्तम समन्वयः- अधिकार अंतरण के तत्व-प्राधिकार, उत्तरदायित्व व जवाबदेयता संगठन में विभिन्न उपकार्यों के बारे में अधिकारों, कर्त्तव्यों तथा जवाबदेयता को परिभाषित करने में सहायक होते है। सब कुछ स्पष्ट होने पर उत्तम समन्वय स्वतः ही स्थापित हो जाता है।
  • विकेन्द्रीयकरण
    विकेन्द्रीयकरण को प्रबंध के प्रत्येक स्तर पर अधिकारों के समान और व्यवस्थित वितरण के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। इसके अन्तर्गत अधिकारों को उस स्तर पर हस्तांतरित कर दिया जाता है, जहाँ इसका प्रयोग किया जाता है। परिणामस्वरूप इसके अंतर्गत निर्णय लेने के केन्द्रों में वृद्धि हो जाती है। विकेन्द्रीयकरण अधिकारों के प्रत्यायोजना का विस्तृत रूप है।
  • केन्द्रीयकरण एवं विकेन्द्रीयकरण
    केन्द्रीयकरण एवं विकेन्द्रीयकरण विभिन्न स्तरों पर प्रबंधको के बीच प्राधिकार के वितरण के प्रारूप का प्रतिनिधित्व करता है।केन्द्रीयकरण एक बिन्दु पर या कुछ हाथो में निर्णय लेने की शक्ति के केन्द्रित होने से है। ऐसे संगठन में मध्य एवं निम्न स्तरीय प्रबंधको को बहुत कम अधिकार दिए जाते है। कोई भी संगठन पूरी तरह से केन्द्रीयकृत नहीं हो सकता। ये एक साथ विद्यमान रहते हैं। इसमें संतुलन लाने की आवश्यकता होती है। जैसे-जैसे संगठन का आकार बढ़ता जाता है। उसमें निर्णयन लेने का विकेन्द्रीयकरण होता जाता है। इस प्रकार इन दोनों की आवश्यकता होती है।
  • विकेन्द्रीयकरण का महत्त्व
    1. सहायकों में पहल शक्ति का विकास:- इससे सहायकों में आत्मविश्वाश बढ़ता है क्योंकि कर्मचारियों को अधिक स्वतंत्रता एवं प्राधिकार दिए जाते है जिससे उनमें पहल शक्ति की भावना बढ़ती है।
    2. शीघ्र निर्णयन:- सभी प्रबन्धकीय निर्णयों का बोझ कुछ ही व्यक्तियों पर न होकर अनेक व्यक्तियों में बात जाने के कारण निर्णय शीघ्र लिए जाते हैं।
    3. उच्च प्रबन्ध के कार्यभार में कमी:- इसके अन्तर्गत दैनिक समस्याओं से संबंधित निर्णय लेने के अभी अधिकार अधीनस्थों को सौंप दिए जाते हैं। इसमें वे छोटी-छोटी समस्याओं में नहीं उलझे रहते और कार्यभार में काफी कमी हो जाती है।
    4. विकास में सहायक:- इसके अंतर्गत अधीनस्थों को निर्णय लेने की पूरी स्वतंत्रता प्रदान की जाती है। यह स्थिति अधीनस्थों में उत्तरदायित्व की भावना पैदा करती है तथा वे अच्छे परिणाम प्राप्त करने का प्रयास करते है जिससे संगठन का विकास संभव होता है।
    5. बेहतर नियंत्रण:- यह प्रत्येक स्तर पर कार्य निष्पादन के मूल्यांकन को संभव बनाता है। विभागों को उनके परिणामों के प्रति व्यक्तिगत रूप से जिम्मेदार ठहराया जाता है। प्रबन्धक इसका सामना करने के लिए बेहतर नियंत्रण पद्धति को अपनाते हैं।
  • अधिकार अंतरण एवं विकेन्द्रीयकरण में अंतर:-
    क्र.सं.आधारअधिकार अंतरणविकेंद्रीकरण
    1.प्रकृतियह सभी संस्थाओं में जरूरी होता है अर्थात् इसके अभाव में काम नहीं चल सकता।इसका पाया जाना जरूरी नहीं है अर्थात् इसके आभाव में काम चल सकता है।
    2.कार्यवाही की स्वतंत्रताइसके अंतर्गत अधिकार सौपने के बाद भी अधिकार सौपने वाले का अधीनस्थ पर पूरा नियंत्रण रहता है।नियंत्रण नही रहता।
    3.स्थितियह कार्य विभाजन के फलस्वरूप की जाने वाली प्रक्रिया है।यह उच्च प्रबंध द्वारा बनाई गई नीति का परिणाम होता है।
    4.क्षेत्रअधिकार अंतरण अधिकारों के सीमित वितरण को प्रदर्शित करता है इसका क्षेत्र सीमित होता है।यह अधिकारों के व्यापक वितरण को दर्शाता है, इसलिए इसका क्षेत्र व्यापक होता है।
    5.उद्देश्यइसका उद्देश्य एक अधिकारी के कार्यभार को कम करना है।इसका उद्देश्य संगठन में सत्ता का फैलाव करना।