अंतरा - पंडित चंद्रधर शर्मा गुलेरी - पुनरावृति नोट्स

 CBSE Class 12 हिंदी ऐच्छिक

पुनरावृति नोट्स
पाठ-13 सुमिरिनी के मनके


(क) बालक  बच  गया 
पाठ परिचय
सुमिरिनी के मनके शीर्षक के अंतर्गत गुलेरी जी द्वारा  रचित तीन लघु निबंध् संकलित हैं -  ‘बालक बच  गया,’  ‘घड़ी  के  पुर्जे’  और  ‘ढेले  चुन  लो’।  ‘बालक  बच  गया’  में  लेखक  ने  यह  स्पष्ट  किया है  कि बच्चों  को  उनकी  आयु के  अनुसार  शिक्षा  दी जानी  चाहिए  ताकि  उनका  स्वाभाविक  विकास हो सके। 

स्मरणीय  बिन्दु

  • लेखक एक पाठशाला के वार्षिकोत्सव पर आमंत्रित थे। प्रधन अध्यापक का आठ वर्षीय पुत्रा भी  वहाँ  था।  उसकी  आँखे  सपफेद  थी,  मुँह  पीला  था  तथा  दृष्टि  भूमि  से  उठती  नहीं  थी।
  • बालक  से  प्रश्न  पूछे   जा  रहे  थे  तथा  वह  उन  प्रश्नों  के   रटे-रटाये  उत्तर  दे   रहा  था।  सभा  ‘वाह-वाह’ करके उसके  उत्तर सुन रही थी। वह धर्म के दस लक्षण, नौ  रसों के  उदाहरण, चंद्रग्रहण का वैज्ञानिक  समाधन,  इंग्लैंड के   राजा  आठवें   हेनरी  की  पत्नियों   के   नाम  तथा  पेशवाओं  के  शासनकाल के  विषय  में बता  गया।
  • पूछे  जाने  पर  बालक  ने  बताया कि  वह जन्म  भर  लोकसेवा करना  चाहता  है। उसके  पिता  अपने पुत्रा  के प्रदर्शन  से  बेहद प्रसन्न  थे।
  • एक  वृद्ध  महाशय  ने  बालक  से  इनाम  माँगने  के  लिए  कहा।  बालक  के  मुख  पर  भावों  में  परिवर्तन हो रहे थे। उसकी आँखों से स्पष्ट था कि उसके हृदय में बनावटी और स्वाभाविक भावों के बीच संघर्ष चल रहा है।
  • बालक को निर्णय लेने में कठिनाई हो रही थी। लेखक चिंतित था कि पता नहीं बालक अब कौन-सा रटा रटाया उत्तर दे। बालक ने धीरे से लड्डू माँगा। बालक के उत्तर से उसके पिता और अध्यापक निराश  हो गए।  लेखक  ने  चैन  की साँस  ली। 

जब तक  बालक ने  पुरस्कार नहीं माँगा  था, तब तक लेखक की साँस घुट रही थी।  पिता और अध्यापक  ने  बालक  की  भावनाओं  को  कुचलने  में  कोई  कसर  नही  छोड़ी  थी।  किन्तु  बालक  द्वारा  लड्डू माँगे जाने  से लेखक को लगा  कि बालक बच गया, उसका बचपन  बच गया क्योंकि लड्डू की माँगं उसके  बालमन की स्वाभाविक माँग है। उसका बालमन, उसकी बाल-भावनाएँ अभी भी जीवित हैं। लेखक को बालक की माँग जीवित वृक्ष के हरे पत्तों की मधुर आवाज लगी जिसमें जीवन संगीत है, सूखी  लकड़ी  से  बनी  अलमारी  की  खड़खड़ाहट  नहीं  जो  सिरदर्द  देती  है।

(ख) घड़ी के पुर्जे 
धर्मोपदेशक उपदेश देते समय कहते हैं कि धर्म की बातों को गहराई से जानने की इच्छा हर व्यक्ति को नहीं करनी चाहिए। जो कुछ उपदेशक बताते हैं उसे चुपचाप स्वीकार कर लेना चाहिए। इस मत के समर्थन में वे घड़ी का दृष्टांत देते हैं। उनका कहना है कि यदि आपको समय जानना हो तो जिसे घड़ी देखनी आती हो, उससे समय जानकर अपना काम चला लेना चाहिए। यदि आप इतने से संतुष्ट नहीं होते तो स्वयं घड़ी देखना सीख सकते हैं। किंतु मन में यह इच्छा नहीं करनी चाहिए कि घड़ी को खोलकर, इसके पुर्जे गिनकर, उन पुर्जो को यथा स्थान लगाकर घड़ी को बंद कर दे। यह काम साधरण व्यक्ति का नहीं, विशेषज्ञ का है। इसी प्रकार धर्म के रहस्यों का जानना भी केवल धर्मोचार्यो का काम है। 
लेखक कहता है कि घड़ी खोलकर ठीक करना कोई कठिन काम नहीं है। साधरण लोगों में से ही बहुत से लोग घड़ी को खोलकर ठीक करना सीखते भी है और दूसरों को सिखातें भी है। इसी प्रकार धर्मोचार्यो को चाहिए कि वह आम आदमी को भी धर्म के रहस्यों की जानकारी दे। धर्म का ज्ञान प्राप्त कर लेने पर व्यक्ति को कोई धर्म के विषय में मूर्ख नहीं बना सकेगा। तुम अनाड़ी के हाथ में घड़ी मत दो, परन्तु जो घड़ीसाजी की परीक्षा उत्तीर्ण करके आया है उसे तो घडी देख लेने दो। लेखक धर्मोचार्यो से यह भी कहता है कि यदि वे लोगों को धर्म के बारे में शिक्षित करते है तो इससे यह भी पता चलता है कि स्वयं धर्मोचार्यों को धर्म की कितनी जानकारी है। लेखक, स्वयं को धर्म का ठेकेदार समझने वाले धर्मोचार्यों पर व्यंग्य करते हुए कहता है कि ये लोग दूसरों को धर्म के रहस्य जानने से रोकते है क्योंकि स्वयं उन्हें ही धर्म की पूरी जानकारी नही है। ये धर्मोचार्य उस व्यक्ति की तरह है जो परदादा की घड़ी जेब में डाले पिफरता है, वह बंद हो गई है, न तो उसे चाबी देना आता है, न पुर्जे सुधरना तब भी दूसरों को घड़ी को हाथ नहीं लगाने देता, क्योंकि इससे उसकी अपनी सच्चाई सामने आ जाने का डर है।

(ग)  ढेले  चुन  लो

  • शेक्सपियर के प्रसिद्ध नाटक ‘मर्चेंट ऑफ़ वेनिस’ में पोर्शिया  अपने  वर को बड़ी सुंदर  विधि से चुनती है। बबुआ हरिश्चन्द्र के नाटक ‘दुर्लभ बंधु’ में पुरश्री, पेटियों के द्वारा वर का चुनाव करती है।
  • इसी प्रकार वैदिककाल में जीवन-साथी का चुनाव करने के लिए हिन्दुओं में मिट्टी के ढेलों की लाटरी चलती  थी।  इस लाटरी में  विवाह का इच्छुक युवक  कन्या के  पिता के  घर जाता था और उसे  गाय  भेंट करने के  बाद कन्या  के सामने कुछ  मिट्टी के ढेले  रखकर, उनमें से एक ढेला चुनने  को कहता  था। इन ढेलों को कहाँ  से  लिया गया था,  यह केवल युवक जानता था,  कन्या  नहीं।  यदि  कन्या  युवक  की  इच्छानुसार  ढेले  चुन  लेती  तो  युवक  उसे  अपना  जीवनसाथी बना लेता  था।
  • ढेलों  के  चुनाव  के  विषय  में  यह  माना  जाता  था  कि  यदि  कन्या  वेदी  का  ढेला  उठा  ले  तो संतान  ‘वैदिक  पं डित’,  यदि  गोबर  चुना  तो’  ‘पशुओं   का  धनी’,  खेती  की  मिट्टी  छू  ली  तो  ‘जमीदांर पुत्रा’ होगी। मसान की मट्टी को हाथ लगाना बड़ा अशुभ माना जाता था। परन्तु ऐसा नहीं था कि  मसान की  मिट्टी छूने  वाली  कन्या का  कभी विवाह  नहीं  होगा।  यदि  वही कन्या  किसी अन्य  युवक  के  सामने  कोई  अन्य  ढेला  उठा  ले,  तो  उसका  विवाह  हो  जाता  था।
  • ढेलों  के  आधर  पर  जीवनसाथी  का  चयन  आज  के  लोगों  को  कोरा  अंध्विश्वास  प्रतीत  हो  सकता है, परन्तु लेखक का मत है कि आज भी लोग ज्योतिष गणना, कुंडली तथा गुणों के मिलान के आधर पर विवाह तय करते है। लेखक के अनुसार यदि मिट्टी के ढेलों द्वारा जीवनसाथी का  चयन अनुचित है  तो ग्रहों-नक्षत्रों की चाल के  आधर पर जीवनसाथी  चुनना  तो और भी अनुचित  है।
  • लेखक का  मानना  है  कि जो हमारे  पास  आज  है उसी  पर निर्भर होना  अच्छा है  बजाए उस चीज  के  जिसकी  हमें भविष्य  में  मिलने की  उम्मीद है।  भविष्य  अनिश्चित है।  पता  नहीं  वह वस्तु  हमें  मिले  या  ना  मिले।  इसलिए  भविष्य  की  अपेक्षा  वर्तमान  पर  विश्वास  करना  उचित  होगा। ठीक इसी प्रकार लेखक जीवन साथी के चुनाव के लिए मिट्टी के ढेलों केा  ग्रह नक्षत्रों की काल्पनिक चाल की  गणना  से  अध्कि  विश्वसनीय मानता  है क्योंकि  ये ढेले  वर  द्वारा  स्वयं  चुने तथा एकत्रा  किए  गए है।