यात्रियों के नज़रिए समाज के बारे में उनकी समझ-प्रश्न-उत्तर

CBSE Class 12 इतिहास
एनसीईआरटी प्रश्न-उत्तर

पाठ - 05 यात्रियों के नज़रिए
समाज के बारे में उनकी समझ (लगभग दसवीं से सत्रहवीं सदी तक)


उत्तर दीजिए (लगभग 100-150 शब्दों में)

1. 'किताब-उल-हिन्द' पर एक लेख लिखिए।

उत्तर- अरबी में लिखी गई अल-बिरूनी की कृति 'किताब-उल-हिन्द' की भाषा सरल व स्पष्ट है। यह एक विस्तृत ग्रंथ है जो धर्म और त्योहारों, खगोल-विज्ञान, कीमिया, दर्शन, रीति-रिवाजों तथा प्रथाओं, सामाजिक-जीवन, भार-तौल तथा  कानून, मापतंत्र विज्ञान, मापन विधियों, मूर्तिकला आदि विषयों के आधार पर अस्सी अध्यायों में विभाजित है।

सामान्यतः (हालाँकि हमेशा नहीं) अल-बिरूनी ने हर एक अध्याय में एक अलग शैली का इस्तेमाल किया जिसमें शुरू में एक प्रश्न होता था, फिर संस्कृतवादी परंपराओं पर आधारित वर्णन तथा अंत में अन्य संस्कृतियों के साथ एक तुलना। आज के कुछ विद्वानों का तर्क है कि इस लगभग ज्यामितीय संरचना, जो अपनी स्पष्टता तथा पूर्वानुमेयता के लिए उल्लेखनीय है, का एक मुख्य  वजह अल-बिरूनी का गणित की ओर झुकाव था।

अल-बिरूनी जिसने लेखन में भी अरबी भाषा का  इस्तेमाल किया था, ने संभवतः अपनी कृतियाँ उपमहाद्वीप के सीमांत क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के लिए लिखी थीं। वह संस्कृत, पाली तथा प्राकृत ग्रंथों के अरबी भाषा में अनुवादों और रूपांतरणों से परिचित था। इनमें दंतकथाओं से लेकर खगोल-विज्ञान और चिकित्सा संबंधी कृतियाँ सभी शामिल थीं, पर साथ ही इन ग्रंथों की लेखन-सामग्री शैली के विषय में उसका दृष्टिकोण आलोचनात्मक था और निश्चित रूप से वह उनमें सुधार करना चाहता था।


2. इब्न बतूता और बर्नियर ने जिन दृष्टिकोणों से भारत में अपनी यात्राओं के वृत्तांत लिखे थे, उनकी तुलना कीजिए तथा अंतर बताइए।

उत्तर- जहाँ इब्न बतूता ने हर उस चीज़ का वर्णन करने का निश्चय किया जिसने उसे अपने अनूठेपन की वल्ह से प्रभावित किया और उत्सुक किया, वहीं बर्नियर एक अलग बुद्धिजीवी परंपरा से संबंधित था। उसने भारत में जो भी देखा, वह उसकी सामान्य रूप से यूरोप तथा  विशेष रूप से फ्रांस में व्याप्त स्थितियों से तुलना तथा भिन्नता की उजागर करने के प्रति अधिक चिंतित था, विशेष रूप से वे स्थितियाँ जिन्हें उसने अवसादकारी पाया। उसका विचार नीति-निर्माताओं तथा बुद्धिजीवी वर्ग को प्रभावित करने का था ताकि वे ऐसे निर्णय ले सकें जिन्हें वह 'सही' मानता था।

बर्नियर के ग्रंथ 'ट्रैवल्स इन द मुगल एम्पायर' अपने गहन प्रेक्षण, आलोचनात्मक अंतर्दृष्टि तथा गहन चिंतन के लिए उल्लेखनीय है। उसके वृत्तांत में की गई चर्चाओं में मुग़लों के इतिहास को एक तरह के वैश्विक ढाँचे में स्थापित करने का प्रयास किया गया। वह निरंतर मुगलकालीन भारत की तुलना तत्कालीन यूरोप से करता रहा, सामान्यतया यूरोप की श्रेष्ठता को रेखांकित करते हुए। उसका भारत का चित्रण द्वि-विपरीनल के नमूने पर आधारित है, जहाँ भारत को यूरोप के प्रतिलोम के रूप में दिखाया गया है, या फिर यूरोप का 'विपरीत' जैसा कि कुछ इतिहासकार परिभाषित करते हैं। उसने जो  विषमताय महसूस कीं, उन्हें भी पदानुक्रम के अनुसार क्रमबद्ध किया जिससे भारत, पश्चिमी दुनिया को निम्न कोटि का प्रतीत हो।


3. बर्नियर के वृत्तांत से उभरने वाले शहरों केंद्रों के चित्र पर चर्चा कीजिए।

उत्तर- बर्नियर मुगलकालीन शहरों को 'शिविर नगर' कहता है, जिससे उसका आशय उन नगरों से था जो अपने अस्तित्व व बने रहने के लिए राजकीय शिविर पा निर्भर थे। उसका विश्वास था कि ये राजकीय दरबार के आगमन के साथ अस्तित्व में आते थे और इसके कहीं और चले जाने के पश्चात तीव्रता से पतनोन्मुख हो जाते थे। उसने यह भी सुझाया कि इनकी सामाजिक और आर्थिक नींव व्यवहार्य नहीं होती थी और ये राजकीय प्रश्रय पर आश्रित रहते थे।

वास्तव में, सभी तरह के नगर अस्तित्व में थे-उत्पादन केंद्र, धार्मिक केंद्र, तीर्थ स्थान, व्यापारिक, नगर, बदरगाह नगर,  आदि। इनका अस्तित्व समृद्ध व्यापारिक समुदायों तथा व्यावसायिक वर्गों के अस्तित्व का सूचक है। अहमदाबाद जैसे शहरी केंद्रों में सभी महाजनों का सामूहिक प्रतिनिधित्व व्यापारिक समुदाय के मुखिया द्वारा होता था जिसे नगर सेठ कहा जाता था।

अन्य शहरी समूहों में व्यावसायिक वर्ग;, जैसे-चिकित्सक (हकीम तथा वैद्य), अध्यापक (पंडित या मुल्ला), अधिवक्ता (वकील), चित्रकार, वास्तुविद्, संगीतकार, सुलेखक आदि सम्मिलित थे।


4. इब्न बतूता द्वारा दास प्रथा के संबंध में दिए गए साक्ष्यों का विवेचन कीजिए।

उत्तर- इब्न बतूता के अनुसार, बाज़ारों में दास किसी भी अन्य वस्तु की तरह खुलेआम बेचे जाते थे और नियमित रूप से भेंटस्वरूप एक-दूसरे को दिए जाते थे। जब इब्न बतूता सिंध पहुँचा तो उसने सुल्तान मुहम्मद-बिन-तुगलक के लिए भेंटस्वरूप 'घोड़े, ऊँट तथा दास' खरीदे। जब वह मुल्तान पहुँचा तो उसने गवर्नर को 'किशमिश बादाम के साथ एक दास और घोड़ा' भेंट के रूप में दिए। इब्न बतूता ने बताया हैं कि मुहम्मद-बिन-तुगलक नसीरुद्दीन नामक धर्मोपदेशक के प्रवचन से इतना खुश हुआ कि उसे 'एक लाख टके (मुद्रा) तथा दो सौ दास' दे दिए।

इब्न बतूता के विवरण से प्रतीत होता है कि दासों में  बहुत विभेद था। सुल्तान की सेवा में कार्यरत कुछ दासियाँ संगीत और गायन में निपुण थीं। सुल्तान अपने अमीरों पर नज़र रखने के लिए दासियों को भी नियुक्त करता था। दासों की सामान्यतः घरेलू श्रम के लिए ही प्रयोग किया जाता था, और इब्न बतूता ने इनकी सेवाओं कों, पालकीं या डोले में पुरुषों और महिलाओं को ले जाने में विशेष रूप से अपरिहार्य पाया। दासों की कीमत, विशेष रूप से उन दासियों की, जिनकी जरूरत घरेलू श्रम के लिए थी, बहुत कम होती थी और ज़्यादातर परिवार जो उन्हें रख पाने में समर्थ थे, कम-से-कम एक या दो तो रखते ही थे।


5. सती प्रथा के कौन-से तत्वों ने बर्नियर का ध्यान अपनी ओर खींचा?

उत्तर- उल्लेखनीय है कि यूरोपीय यात्रियों एवं लेखकों ने उन बातों का विस्तृत वर्णन करने में अधिक रुचि दिखाई थी, जो उन्हें आश्चर्यजनक अथवा यूरोपीय समाजों से भिन्न दृष्टिगोचर हुई थीं। महिलाओं से किए जाने वाले व्यवहार की पूर्वी और पश्चिमी समाजों के मध्य भिन्नता का एक महत्त्वपूर्ण परिचायक समझा जाता था। अतः बर्नियर भारत में प्रचलित सती प्रथा के प्रति अत्यधिक आकर्षित हुआ और उसने इसके वर्णन को अपने वृत्तान्त का एक महत्त्वपूर्ण भाग बनाया। सती प्रथा मध्यकालीन हिन्दू समाज में व्याप्त कुप्रथाओं में सर्वाधिक घृणित प्रथा थी। 'सती' शब्द का अर्थ है-'पतिव्रता और चरित्रवती स्त्री', किंतु सामान्यतया इसका अर्थ पत्नी के अपने मृत पति के शरीर के साथ जल जाने की प्रथा से लिया जाता था।

बर्नियर ने लिखा है कि कुछ महिलाएँ स्वेच्छापूर्वक खुशी-खुशी अपने पति के शव के साथ सती हो जाती थीं। परन्तु ज़्यादातर को ऐसा करने के लिए विवश कर दिया जाता था। लाहौर में एक बालिका के सती होने की घटना का  अधिक मार्मिक विवरण देते हुए उसने लिखा है, "लाहौर में मैंने एक बहुत ही सुन्दर अल्पवयस्क विधवा जिसकी आयु मेरे विचार में बाहर वर्ष से अधिक नहीं थी, की बलि होते देखी। उस भयानक नर्क की  तरफव  जाते हुए वह असहाय छोटी बच्ची जीवित से  ज़्यादा  मृत प्रतीत हो रही थी; उसके मस्तिष्क की व्यथा का वर्णन नहीं किया जा सकता; वह काँपते हुए बुरी तरह से रो रही थी; लेकिन तीन-चार ब्राह्मण, एक बूढ़ी औरत, जिसने उसे अपनी आस्तीन के नीचे दबाया हुआ था, की सहायता से उस अनिच्छुक पीड़िता को घातक स्थल की तरफ ले गए। उसे लकड़ियों पर बैठाया; उसके हाथ-पाँव बाँध दिए ताकि वह भाग न जाए और इस स्थिति में उस मासूम प्राणी को जिन्दा जला दिया गया। मैं अपनी भावनाओं को दबाने में असमर्थ था..।" इस विवरण से स्पष्ट होता है कि सती प्रथा के अन्तर्गत सती होने आली प्रहिलाओं की अल्पवयस्कता, अनीच्छा, व्यथा, विवशता एवं असहायता जैसे तत्वों ने बर्नियर का ध्यान विशेष रूप से आकर्षित किया था।


निम्नलिखित पर एक लघु निबंध लिखिए (लगभग 250 से 300 शब्दों में)
6. जाति व्यवस्था के संबंध में अल-बिरूनी की व्याख्श पर चर्चा कीजिए।

उत्तर- सुप्रसिद्ध अरब लेखक अल-बिरूनी ने भारत के विषय में अपनी अनेक पुस्तकों में लिखा, जिनमें  सबसे मुख्य स्थान 'किताब-उल-हिन्द' का है, जिसे 'तहकीक-ए-हिन्द' के नाम से भी जाना जाता है। अल-बिरूनी ने भारत की सामाजिक दशा, रीति-रिवाजों, भारतीयों के खान-पान, वेशभूषा, उत्सव त्योहार, आमोद-प्रमोद आदि के विषय में विस्तारपूर्वक लिखा है।

जाति व्यवस्था

  1. जाति व्यवस्था का वर्णन करते हुए अल-बिरूनी ने लिखा है, "सबसे ऊँची जाति ब्राहमणों की है, जिनके विषय में हिन्दुओं के ग्रंथ हमें बताते हैं कि वे ब्रह्मा के सिर से  पैदा हुए थे और क्योंकि ब्रह्मा प्रकृति नामक शक्ति का ही दूसरा नाम है और सिर... शरीर का सबसे ऊपरी भाग है, इसलिए ब्राह्मण सम्पूर्ण प्रजाति के सबसे चुनिंदा भाग हैं। इसी कारण से हिन्दू उन्हें मानव जाति में सबसे अच्छा मानते हैं।
  2. अगली जाति क्षत्रियों की है जिनका सूजन ऐसा कहा जाता है, ब्रह्माणों के कन्धों और हाथों से हुआ था। उनका दर्जा ब्राह्मण से अधिक नीचे नहीं है।
  3. उनके बाद वैश्य आते हैं, जिनका उद्भव ब्रह्मा की जंघाओं से हुआ था।
  4. शूद्र, जिनका सृजन चरणों से हुआ था। अंतिम दो वर्गों के मध्य ज़्यादा अंतर नहीं है। किंतु इन वर्गों के बीच भिन्नता होने पर भी ये एक साथ एक ही शहरों और गाँवों में रहते हैं; समान घरों और आवासों में मिल-जुलकर।"

जाति व्यवस्था की तुलना प्राचीन फारस की सामाजिक व्यवस्था से

अल-बिरूनी ने भारत में विद्यमान जाति व्यवस्था को अन्य समुदायों में प्रतिरूपों की खोज के  मध्य,म से समझने का  प्रयत्न किया। उसने इस व्यवस्था की व्याख्या करने में भी अन्य समुदायों के प्रतिरूपों का आश्रय लिया। उसने भारत में विद्यमान वर्ण-व्यवस्था की तुलना प्राचीन फारस की सामाजिक व्यवस्था से करते हुए लिखा कि प्राचीन फारस के समाज में भी घुड़सवार एवं शासक वर्ग; भिक्षु, आनुष्ठानिक पुरोहित और चिकित्सक; खगोलशास्त्री एवं अन्य वैज्ञानिक और अंत में कृषक एवं शिल्पकार, ये चार वर्ग अस्तित्व में थे।

इस  तरह , अल-बिरूनी यह स्पष्ट कर देना चाहता था कि ये सामाजिक वर्ग केवल भारत तक ही सीमित नहीं थे। इसके साथ-ही-साथ अल-बिरूनी ने यह भी स्पष्ट किया कि इस्लाम में इस प्रकार का कोई वर्ग विभाजन नहीं था; सामाजिक दृष्टि से सभी लोगों को समान समझा जाता था; उनमें विभिन्नताओं केवल धार्मिकता के पालन के आधार पर विद्यमान थीं।

अपवित्रता की मान्यता को अस्वीकार

उल्लेखनीय है कि अल-बिरूनी ने जाति व्यवस्था के संबंध में ब्राह्मणवादी व्याख्या को तो स्वीकार कर लिया, किंतु वह अपवित्रता की मान्यता को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हुआ। उसकी मान्यता थी कि हर एक वह वस्तु जो अपवित्र हो जाती है, अपनी पवित्रता की मौलिक स्थिति को पुनः प्राप्त करने का  प्रयास करती है और इसमें उसे सफलता भी मिलती है। उदाहरण देते हुए उसने लिखा कि सूर्य हवा को शुद्ध बनाता है और समुद्र में विद्यमान नमक पानी को गन्दा होने से रक्षा करता है। उसने अपने तर्क पर बल देते हुए कहा कि ऐसा न होने की स्थिति में पृथ्वी पर जीवन सम्भव नहीं हो पाता। उसका मानना  था कि जाति व्यवस्था में विद्यमान अपवित्रता की अवधारणा प्रकृति के नियमों के अनुकूल नहीं थी।

मूल्यांकन

इस तरह, यह स्पष्ट हो जाता है कि अल-बिरूनी के जाति व्यवस्था संबंधी विवरण पर उसके संस्कृत ग्रंथों के गहन अध्ययन की स्पष्ट छाप थी। हमें याद रखना चाहिए कि इन ग्रंथों में जाति व्यवस्था का संचालन करने वाले नियमों का प्रतिपादन ब्रह्मणों के दृष्टिकोण से किया गया था। वास्तविक जीवन में इस व्यवस्था के नियमों का पालन न तो इतनी मुश्किल से किया जाता था और न ही ऐसा किया जाना संभव था। उल्लेखनीय है कि अंत्यज (व्यवस्था से परे) हालाँकि वर्ण-व्यवस्था के दायरे से बाहर थे, परन्तु उनसे किसानों एवं जमींदारों लिए सस्ता श्रम उपलब्ध कराने की अपेक्षा की जाती थी। इस प्रकार प्रायः सामाजिक प्रताड़ना के शिकार होते हुए भी वे आर्थिक तंत्र एक हिस्सा थे।


7. क्या आपको लगता है कि समकालीन शहरी केंद्रों में जीवन-शैली की सही जानकारी प्राप्त करने में इब्न बतूता का वृत्तांत सहायक है? अपने उत्तर के कारण दीजिए।

उत्तर- इब्न बतूता ने उपमहाद्वीप के शहरों को उन लोगों के लिए व्यापक अवसरों से भरपूर पाया जिनके पास जरूरी इच्छा, साधन तथा कौशल था। ये शहर घनी आ बादी वाले और समृद्ध थे सिवाय कभी-कभी युद्धों तथा अभियानों से होने वाले विध्वंस के। इब्न बतूता के वृत्तांत से ऐसा प्रतीत होता है कि ज़्यादातर शहरों में भीड़-भाड़ वाली सड़कें तथा चमक-दमक वाले रंगीन बाज़ार थे जो विविध प्रकार की वस्तुओं से भरे रहते थे। इब्न बतूता दिल्ली को एक बड़ा शहर,  बड़ी आबादी वाला तथा भारत में सबसे बड़ा बताता है। दौलताबाद (महाराष्ट्र में) भी कम नहीं था। वह आकार में दिल्ली को चुनौती देता था।

  1. वस्तुतः इब्न बतूता की शहरों की समृद्धि का वर्णन करने में ज़्यादातर रुचि नहीं थी। उसके अनुसार, कृषि का अधिशेष उत्पादन ही वह मूलभूत आधार था, जिसने शहरी जीवन-शैली को गम्भीर रूप से प्रभावित किया। अतः इसमें कोई संदेह नहीं कि इब्न बतूता का वृत्तांन्त समकालीन शहरी जीवन-शैली की सही जानकारी देने में हमारी मदद करता है।
  2. जब 19वीं शताब्दी में इब्न बतूता दिल्ली आया था, उस समय तक पूरा भारतीय महाद्वीप एक ऐसे वैश्विक संचार तंत्र का हिस्सा बन चुका था जो पूर्व में चीन से लेकर पश्चिम में उत्तर-पश्चिमी अफ्रीका तथा यूरोप तक फैला हुआ था। इब्न बतूता ने स्वयं इन क्षेत्रों की यात्राएँ कीं, विद्वानों एवं शासकों के साथ समय बिताया तथा शहरी केंद्रों की विश्ववादी संस्कृति को बहुत नजदीक से देखा व समझा। इन्हीं अनुभवों एवं ज्ञान के आधार पर उसने भारतीय शहरी जीवन-शैली की तुलनात्मक विवरण प्रस्तुत् किया जो ज़्यादा तर्कसंगत प्रतीत होता है।
  3. इब्न बतूता ने लिखा है कि भारतीय माल की बीच और दक्षिण-पूर्व एशिया में बड़ी माँग थी जिससे शिल्पकारों तथा व्यापारियों को भारी मुनाफा होता था। भारतीय कपड़ों, विशेष रूप से सूती कपड़ा. महीन मखमल, रेशम, जरी तथा साटन की ज़्यादा माँग थी। महीन मखमल की कई किस्में इतनी महँगी थीं कि उन्हें अमीर वर्ग था बहुत धनाढ्य लोग ही पहन सकते थे। इस तरह कृषि, विश्ववादी संस्कृति तथा व्यापार ने समकालीन शहरी केंद्रों की जीवन-शैली में आमूलचूल परिवर्तन ला दिया था।

8. चर्चा कीजिए कि बर्नियर का वृत्तांत किस सीमा तक इतिहासकारो को समकालीन ग्रामीण समाज को पुनर्निर्मित करने में सक्षम करता है?
उत्तर- बर्नियर के मतानुसार भारत और यूरोप के मध्य  मूल विभिन्नताय  में से एक भारत में निजी भू-स्वामित्व का अभाव था। उसका निजी स्वामित्व के गुणों में दृढ़ विश्वास था तथा उसने भूमि पर राजकीय स्वामित्व को राज्य तथा उसके निवासियों, दोनों के लिए हानिकारक माना। उसे यह लगा कि मुगल साम्राज्य में सम्राट सारी भूमि का स्वामी था जो इसे अपने अमीरों के मध्य विभाजित था, जिससे अर्थव्यवस्था और समाज के लिए अनर्थकारी परिणाम सामने आते थे। इस  तरह  का अवबोधन बर्नियर तक ही सीमित नहीं था बल्कि सोलहवीं तथा सत्रहवीं शताब्दी के  ज़्यादातर  यात्रियों के वृत्तांतों में मिलता है।

  1. राजकीय भू-स्वामित्व के कारण बर्नियर तर्क देता है कि भू-धारक अपने बच्चों को भूमि नहीं दे सकते थे। इसलिए वे उत्पादन के स्तर को बनाए रखने और उसमें बढ़ोतरी के दिए दूरगामी निवेश के प्रति उदासीन थे। इस तरह निजी भू-स्वामित्व के अभाव ने 'बेहतर' भू-धारकों के वर्ग के उदय (जैसा कि पश्चिमी यूरोप में) को रोका जो भूमि के रख-रखाव व बेहतरी के प्रति सजग रहते। इसी के चलते कृषि का समान रूप से विनाश, किसानों का उत्पीड़न तथा समाज के सभी वर्गों के जीवन स्तर में अनवरत पतन की स्थिति  पैदा हुई है, सिवाय शासक वर्ग के।
  2. बर्नियर भारतीय समाज को दरिद्र लोगों के समरूप जनसमूह से बना वर्णित करता है, जो एक बहुत अमीर तथा शक्तिशाली शासक वर्ग, जो अल्पसंख्यक होते हैं, के द्वारा अधीन बनाया जाता हैं। गरीबों में सबसे गरीब तथा अमीरों में सबसे अमीर व्यक्ति के मध्य नाममात्र का भी कोई सामाजिक समूह या वर्ग नहीं था। बर्नियर बहुत विश्वास से कहता है, "भारत में मध्य की स्थिति के लोग नहीं हैं।"
  3. बर्नियर के विवरणों ने अठाहरवीं शताब्दी के पश्चिमी विचारकों को काफी प्रभावित किया। उदाहरण के लिए, फ्रांसीसी दार्शनिक मॉन्टेस्क्यू ने उसके वृतांत का प्रयोग प्राच्य निरंकुशवाद के सिद्धांत को विकसित करने में किया, जिसके अनुसार एशिया में शासक अपनी प्रजा के ऊपर निर्बाध प्रभुत्व का उपभोग करते थे। प्रजा को दासता तथा गरीबी की स्थितियों में रखा जाता था। इस तर्क का आधार यह था कि सारी भूमि पर राजा का स्वामित्व होता था तथा निजी संपत्ति अस्तित्व में नहीं थी। इस दृष्टिकोण के अनुसार राजा और उसके अमीर वर्ग को छोड़कर हर एक व्यक्ति मुश्किल से गुजर-बसर कर पाता था।
  4. कार्ल मार्क्स ने यह तर्क दिया कि भारत तथा अन्य एशियाई देशों में उपनिवेशवाद से पहले अधिशेष का अधिग्रहण राज्य द्वारा होता था। इससे एक ऐसे समाज का उद्भव हुआ जो बड़ी संख्या में स्वायत्त तथा (अतिरिक रूप से) समतावादी ग्रामीण समुदायों से बना था। इन ग्रामीण समुदायों पर राजकीय दरबार का नियंत्रण होता था और जब तक अधिशेष की आपूर्ति निर्विघ्न रूप से जारी रहती थी, इनकी स्वायत्तता का सम्मान किया जाता था। यह एक निष्क्रिय प्रणाली मानी जाती थी।
  5. ग्रामीण समाज का यह चित्रण सच्चाई से ज़्यादा दूर था। बल्कि सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दी में ग्रामीण समाज में चारित्रिक रूप से बड़े पैमाने पर सामाजिक और आर्थिक विभेद था। एक तरफ बर्ट जमींदार थे जो भूमि पर उच्चाधिकारों का उपभोग करते थे और दूसरी तरफ  'अस्पृश्य' भूमिविहीन श्रमिक (बलाहार)। इन दोनां के बीच बड़ा किसान था जो किराए के श्रम का इस्तेमाल करता था और माल उत्पादन में संलग्न रहता था; साथ ही अपेक्षाकृत छोटे किसान भी थे जो मुश्किल से ही निर्वहन लायक उत्पादन कर पाते थे।

कुल मिलाकर हम कह सकते हैं कि बर्नियर का वृत्तांत समकालीन ग्रामीण समाज के पुर्निर्माण में इतिहासकारों की अधिक सहायता नहीं करता। इसका प्रमुख कारण यह हैं कि उसका भारत संबंधी विवरण पक्षपातपूर्ण है तथा द्वि-विपरीतता के नमूने पर आधारित है, जिसमें भारत को यूरोप के 'प्रतिलोम' के रूप में वर्णित किया गया है। वास्तव में, बर्नियर का मुख्य उद्देश्य पूर्व और पश्चिम का तुलनात्मक अध्ययन करना था। परिणामस्वरूप उसके द्वारा भारत को 'अल्पविकसित पूर्व' के रूप में चित्रित किया गया हैं।


9. यह बर्नियर से लिया गया एक उद्धरण है-

ऐसे लोगों द्वारा तैयार सुंदर शिल्पकारीगरी के बहुत उदाहरण हैं जिनके पास औज़ारों का अभाव है, और जिनके विषय में यह भी नहीं कहा जा सकता कि उन्होंने किसी निपुण कारीगर से कार्य सीखा है। कभी-कभी वे यूरोप में तैयार वस्तुओं की इतनी निपुणता से नकल करते हैं कि असली और नकली के बीच अंतर कर पाना कठिन हो जाता है। अन्य वस्तुओं में, भारतीय लोग बेहतरीन बंदूकें और ऐसे सुंदर स्वर्णाभूषण बनाते हैं कि संदेह होता है कि कोई यूरोपीय स्वर्णकार कारीगरी के इन उत्कृष्ट नमूनों से बेहतर बना सकता है। मैं अकसर इनके चित्रों की सुंदरता, मृदुलता तथा सूक्ष्मता से आकर्षित हुआ हूँ।

उसके द्वारा अलिखित शिल्प कार्यों को सूचीबद्ध कीजिए तथा इसकी तुलना अध्याय में वर्णित शिल्य गतिविधियों से कीजिए।

उत्तर- प्रस्तुत उद्धरण से पता लगता है कि बर्नियर की भारतीय कारीगरों के विषय में अच्छी राय थी। उसके मतानुसार भारतीय कारीगर अच्छे औज़ारों के अभाव में भी कारीगरी के प्रशंसनीय नमूने प्रस्तुत करते थे। वे यूरोप में निर्मित वस्तुओं की इतनी कुशलतापूर्वक नकल करते थे कि असली व नकली में अंतर कर पाना  कठिन  हो जाता था। बर्नियर भारतीय चित्रकारों की कुशलता से अधिक  प्रभावित था। वह भारतीय चित्रों की सुंदरता, मृदुलता एवं सूक्ष्मता से विशेष रूप से आकर्षित हुआ था।

इस उद्धरण में बर्नियर ने बंदूक बनाने, स्वर्ण आभूषण बनाने तथा चित्रकारी जैसे शिल्पों की  मुख्य रूप से तारीफ़ की है।

अलिखित शिलप कार्य

  1. बर्नियर द्वारा अलिखित शिल्पों या शिल्पकारों को इस प्रकार सूचीबद्ध किया जा सकता है-बढ़ई, लोहार, जुलाहा, कुम्हार, खरादी, प्रलाक्षा रस का रोगन लगाने वाले, कसीदकार दर्जी, जूते बनाने वाले, रेशमकारी और महीन मलमल का काम करने वाले, वास्तुविद, संगीतकार तथा सुलेखक आदि।
  2. प्रस्तुत उद्धरण में बर्नियर ने लिखा है कि भारतीय कारीगर ओज़ार और प्रशिक्षण के अभाव में भी कारीगरी के प्रशंसनीय नमूने प्रस्तुत करने में सक्षम थे। अध्याय में वर्णित शिल्प गतिविधियों से पता चलता है कि कारखानों अथवा कार्यशालाओं में कारीगर विशेषज्ञों की देख-रेख में कार्य करते थे। कारखाने में भिन्न-भिन्न शिल्पों के लिए अलग-अलग कक्ष थे। शिल्पकार अपने कारखाने में प्रतिदिन सुबह आते थे  तथा  पूरा दिन अपने काम में व्यस्त रहते थे।