अंतरा - सुधा अरोड़ा - पुनरावृति नोट्स

 CBSE कक्षा 11 हिंदी (ऐच्छिक)

अंतरा गद्य-खण्ड
पाठ-5 ज्योतिबा फुले
पुनरावृत्ति नोट्स


विधा- जीवनी
कहानीकार- सुधा अरोड़ा

जीवन परिचय-

  • लेखिका- सुधा अरोड़ा जन्म- लाहौर (पाकिस्तान) 1948 में शिक्षा कलकत्ता विश्वविद्यालय से। उन्हें उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा सन् 1978 में विशेष पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।

रचनायें-

  • कहानी संग्रह- 'बगैर तराशे हुए’, ‘युद्ध-विराम', 'काला शुक्रवार’, 'काँसे का गिलास' तथा 'औरत की कहानी' आदि।

भाषा-शैलीगत विशेषताएँ-

  1. भाषा सहज संयत और बोध गम्य
  2. उर्दू शब्दों से युक्त तत्सम प्रधान
  3. भाषा-शैली विचार प्रधान, विवेचनात्मक तथा तर्क पूर्ण।

पाठ-परिचय-

  • प्रस्तुत पाठ 'ज्योतिबा फुले’ में ज्योतिबा और उनकी पत्नी 'सावित्रीबाई फुले’ के प्रेरक जीवन चरित्र को दर्शाया गया है। शिक्षा का सभी जाति, वर्ग, वर्ण पर समान अधिकार है और उसके लिए फुले दम्पति ने जो संघर्ष किया है इस पाठ में यह बताने का प्रयास किया गया है। फुले दम्पति ने अछूतों, शोषितों, महिलाओं, विधवाओं आदि के उद्वार का प्रण लिया और उसके लिए संघर्ष भी किया। इन दोनों ने उस समय में प्रचलित सामाजिक विषमताओं, रूढ़ियों का विरोध किया और समाज के निचले वर्ग के अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी। उन्होंने ब्राह्मणवादी और पूँजीवादी मानसिकता के विरूद्ध आवाज उठाई। उनका मानना था कि शिक्षा पर केवल उच्चवर्ग का ही एकाधिकार नहीं है। केवल किसी वर्ग विशेष के लिए शिक्षा व्यवस्था हो वह किसी काम की नहीं है। उन्होंने शिक्षा पर सभी का हक है और शिक्षा ही समाज में सभी को समानता व शोषण से मुक्ति दिला सकती है इस बात पर बल दिया। उनका मुख्य रूप से इस बात पर बल रहा है कि समाज में स्त्री व पुरुष बराबर हैं और पुरुषों की भांति ही स्त्रियों को भी शिक्षा प्राप्त करने का बराबर का अधिकार हैं इस बात के लिए दोनों दम्पत्ति को समाज का तिरस्कार व विरोध भी सहना पड़ा है। यह पाठ उनके इसी संघर्ष, समाज सुधार के मार्ग में आने वाली बाधाओं और उससे लड़ने की कहानी बताता है।

स्मरणीय बिन्दु-

  • लेखिका द्वारा प्रसिद्ध समाज-सुधारक ज्योतिबा फुले और उनकी पत्नी के द्वारा शिक्षा एवं सामाजिक क्षेत्र में किए गए कार्यों का वर्णन इस पाठ में किया गया है। किन्तु सामाजिक विकास के आन्दोलन के पाँच प्रमुख लोगों में उनका नाम नहीं लिया जाता है। क्योंकि सूची को बनाने वाले उच्च वर्ग के प्रतिनिधि थे। ज्योतिबा फुले ने पूँजीवादी, पुरोहितवादी मानसिकता पर खुला हमला बोला। वर्ण, जाति और वर्ग व्यवस्था में निहित शोषण प्रक्रिया को एक दूसरे का पूरक बताया। 'गुलामगिरी', 'शेतकर याचाआसूड़’ में विचारों का संकलन किया गया है उनके मत में - जिस परिवार में पिता बौद्ध, माता ईसाई, बेटी मुसलमान और बेटा सत्य धर्मी हो वह परिवार आदर्श परिवार है।
  • महात्मा ज्योतिबा फुले ने स्त्री शिक्षा पर बल देते हुए लिखा कि स्त्री-शिक्षा के दरवाजे पुरुषों ने इसलिये बन्द कर रखे हैं ताकि वह पुरुषों के समान स्वतन्त्रता न ले सकें।
  • ज्योतिबा फुले ने स्त्री-समानता को प्रतिष्ठित करने वाली नई विवाह-विधि की रचना की। उन्होंने अपनी इस नई विधि से ब्राह्मण का स्थान ही हटा दिया। उन्होंने पुरुष-प्रधान संस्कृति समर्थक और स्त्री की गुलामगिरी सिद्ध करने वाले सारे मन्त्र हटा दिये। उसके स्थान पर ऐसे मन्त्र रखे जिन्हें वर-वधू आसानी से समझ सकें।
  • 1888 में ज्योतिबा फुले ने ‘महात्मा’ की उपाधि को लेने से यह कहकर इन्कार कर दिया कि इससे मेरे संघर्ष का कार्य बाधित होगा। उनकी कथनी उनके आचरण और व्यवहार में उतरती हुई दिखाई देती थी। स्त्री-शिक्षा के समर्थक ज्येातिबा ने सबसे पहले अपनी पत्नी को शिक्षित किया। उन्हें मराठी, अंग्रेजी भाषा में पारंगत किया।
  • सावित्री बाई को पढ़ने की रूचि बचपन से ही थी। एक बार बचपन में लाट साहब ने उन्हें एक पुस्तक दी। घर पहुँचने पर पिता ने वह पुस्तक कूड़ेदान में फेंक दी। सावित्री बाई ने उसे छिपाकर रख दिया तथा विवाह पश्चात् शिक्षित होने पर उस पुस्तक को पढ़ा।
  • 14 जनवरी 1848 को भारत में पहली 'कन्या-पाठशाला’ की स्थापना पुणे में हुई निम्न वर्ग की बालिकाओं के लिये पाठशाला खोलने के लिये ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई को बहुत-सी बाधाओं तथा बहिष्कारों का सामना करना पड़ा। ज्योतिबा के धर्मभीरू पिता ने भी बहु-बेटे को घर से निकाल दिया। सावित्री को तरह-तरह से अपमानित किया जाता था। पर उन्होंने 1840-1890 तक पचास वर्षों तक एक प्रण होकर अपना मिशन पूरा किया। उन्होंने मिशनरी महिलाओं की तरह किसानों और अछूतों की झुग्गी-झोपड़ी में जाकर काम किया। वे दलितों और शोषितों के हक में खड़े हो गये। महात्मा फुले और सावित्री बाई का अपने लक्ष्य के प्रति समर्पित जीवन एक मिसाल बन गया।