नियंत्रण-पुनरावृति नोट्स

                                                                               CBSE कक्षा 12 व्यवसाय अध्ययन

(भाग-1) पाठ-8 नियंत्रण
पुनरावृति नोट्स


  • नियंत्रण से तात्पर्य, नियोजन के अनुसार क्रियाओं के निष्पादन से है। नियंत्रण इस बात का आश्वासन है कि संगठन के पूर्व निर्धारित लक्ष्यों को को प्राप्त करने के लिए सभी संसाधनों का उपयोग प्रभावी एवं दक्षतापूर्ण ढंग से हो रहा है।
  • नियंत्रण कार्य को वास्तविक निष्पादन की पूर्व निर्धारित कार्य से तुलना के रूप में पारिभाषित किया जा सकता है।
  • नियंत्रण से निष्पादन एवं मानकों के विचलन का ज्ञान होता है, यह विचलनों का विश्लेषण करता है तथा उन्हीं के आधार पर उसके सुधार के लिए कार्य करता है।
  • नियंत्रण की प्रकृति:-
    1. नियंत्रण एक उद्देश्यपूर्ण कार्य है:- नियंत्रण, एक प्रबंधन कार्य के रूप मे, यह सुनिश्चित करता है कि व्यक्तियों और समूहों के द्वारा किये जाने वाले सभी कार्य संगठन के अल्पकालीन एवं दीर्घकालीन योजनाओं के अनुरूप हो। इस प्रकार नियंत्रण एक उद्देश्यपूर्ण क्रिया है।
    2. नियंत्रण एक सर्वव्यापक क्रिया है:- नियंत्रण एक ऐसा कार्य है जो सभी प्रकार के संगठनों व्यावसायिक तथा गैर-व्यावसायिक एवं सभी स्तरों पर लागू होता है।
    3. नियंत्रण सतत् कार्य है:- नियंत्रण एक बार किया जाने वाला कार्य नहीं है, अपितु यह एक गतिशील प्रक्रिया है जिसमें वास्तविक एवं नियोजित निष्पादन का निरंतर विश्लेषण निहित है। इस प्रक्रिया द्वारा परिणामी विचलन, यदि कोई हो, को परिस्थितियों के अनुसार दूर किया जाता है। उदाहरण के लिए, एक फर्म ‘X Ltd’ जो कि रेडीमेड कपड़े बनाने के व्यवसाय में संलग्न है, प्रति माह 10,000 प्रीमियम शर्ट तैयार करने का लक्ष्य निर्धारित करती है परन्तु केवल 8,000 शर्ट ही तैयार कर पाती है। ऐसी स्थिति में नियंत्रण प्रक्रिया इस प्रकार के विचलन के कारणों को पहचानने में सहायता करती है और यह प्रतिदिन, प्रतिमाह एवं प्रतिवर्ष चलती रहती है।
    4. नियंत्रण एक पीछे की ओर देखने की (Backward Looking) एवं आगे कि ओर देखने की (Forward Looking) प्रक्रिया है। भूतकाल में कि गई त्रुटियों का विश्लेषण किये बिना वर्मन में प्रभावी नियंत्रण संभव नहीं हो सकता। अतः इस प्रकार नियंत्रण एक पीछे कि ओर देखने की प्रक्रिया है। लेकिन दूसरी तरफ व्यवसायिक वातावरण निरंतर बदलता रहता है और नियंत्रण प्रक्रिया इस प्रकार के परिवर्तनों के अनुकूल संगठन को ढालने में सहायता करती है। अतः इस प्रकार आगे कि ओर देखने के पक्ष को नज़र अंदाज़ नह किया जा सकता।
    5. नियंत्रण एक गतिशील प्रक्रिया है:- नियंत्रण प्रक्रिया द्वारा बदलते व्यावसायिक वातावरण एवं नियोजित एवं वास्तविक परिणामों में विचलनों के अनुसार निरंतर सुधारात्मक कदम उठाये जाते है। अतः यह एक गतिशील प्रक्रिया है।
    6. नियंत्रण एक सकारात्मक प्रक्रिया है:- जोर्ज टेरी ने नियंत्रण को एक सकारात्मक कार्य बताया है। उनके अनुसार नियंत्रण नियोजित कार्य को वास्तविक कार्य के रूप में करना है। नियंत्रण को एक नकारात्मक प्रक्रिया के रूप में कभी नही देखा जाना चाहिए अर्थात् उद्देश्यों की प्राप्ति में एक बाधक के रूप में। नियंत्रण एक प्रबंधकीय अनिवार्यता एवं एक सहायता है न कि एक बाधक।
  • नियंत्रण की प्रकृति / नियंत्रण की विशेषताएँ
    नियंत्रण का महत्व:-
    1. नियंत्रण संगठनात्मक लक्ष्यों को प्राप्त करने में सहायता करता है:- नियंत्रण, संगठन के लक्ष्यों की ओर प्रगति का मापन करके विचलनों का पता लगाता है। यदि कोई विचलन प्रकाश में आता है तो उसका सुधार करता है।
    2. मानकों की यथार्थता को आँकना:- एक अच्छी नियन्त्रण प्रणाली द्वारा निर्धारित मानकों की यथार्थता तथा उद्देश्य को सत्यापित कर सकता है। नियंत्रण संगठन में होने वाले परिवर्तनों को सावधानीपूर्वक जाँच करता है।
    3. संसाधन का कुशलतम प्रयोग करने में सहायता:- नियंत्रण प्रक्रिया द्वारा एक प्रबन्धक संसाधनों का व्यर्थ जाना कम कर सकता है।
    4. कर्मचारियों कि अभिप्रेरणा में सुधार:- एक अच्छी नियंत्रण प्रणाली में कर्मचारियों को पहले से यह ज्ञात होता है कि उन्हें क्या करना है। जिनके आधार पर उनका निष्पादन मूल्यांकन होगा। इससे कर्मचारी अभिप्रेरित होते हैं।
  • नियंत्रण प्रक्रिया:-
    1. निष्पादन मानकों का निर्धारण:- मानक एक मापदंड है। जिसके तहत वास्तविक निष्पादन की माप की जाती है। नियंत्रण प्रक्रिया में सर्वप्रथम मानक निर्धारित होते है।
      मानको को परिणामात्मक तथा गुणात्मक दोनों रूप में निर्धारित किया जा सकता है। यह महत्वपूर्ण है कि मानक इतने लचीले हो कि आवश्यकतानुसार सुधारे जा सकें। प्रमाप प्राप्त करने योग्य तथा समयबद्ध भी होने चाहिए।
    2. वास्तविक निष्पादन कि माप:- निष्पादन कि माप उन बातों को ध्यान में रखकर करनी चाहिए, जिन्हें प्रमाप करते समय रखा गया था। इस चरण में वास्तविक कार्य को मापा जाता है।
    3. वास्तविक निष्पादन की मानकों से तुलना:- इस कार्यवाही में वास्तविक निष्पादनक की तुलना निर्धारित मानकों से की जाती है। ऐसी तुलना में अंतर हो सकता है। यदि ये दोनों समान हो तो ये माना जायेगा कि नियंत्रण का स्तर ठीक है।
    4. विचलन विश्लेषण:- मानकों द्वारा विचलनों का पता लगाया जाता है तथा विश्लेषण किया जाता है ताकि विचलनों के कारणों को पहचाना जा सके।
      विचलन को पूर्व निर्धारित विचलन सहल सीमा एवं मुख्य परिणाम क्षेत्रों के सन्दर्भ में देखा जाता है।
      1. महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर नियंत्रण:- सभी क्रियाओं पर नियंत्रण रखना न तो वयतपूर्ण है और न ही सरल। अतः प्रबंधकों को उन क्रियाओं पर अधिक ध्यान देना चाहिए जिनकी संगठन की सफलता में महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। इन्हें मुख्य परिणाम क्षेत्र कहते है।
      2. अपवाद द्वारा प्रबंध:- एक प्रबन्धक को महत्वपूर्ण विचलन स्वीकार्य स्तर से बाहर हो जाए। जो विचलन स्वीकार्य स्तर के अंदर हो उन्हें अनदेखा किया जा सकता है।
    5. सुधारात्मक कार्यवाही करना:- यह नियंत्रण प्रक्रिया का अंतिम चरण है। यदि विचलन अपनी निर्धारित सीमा के अन्दर है तो किसी सुधारात्मक कार्यवाही आवश्यकता नहीं पड़ती, परन्तु यदि अंतर अधिक हो तो योजनाओं से सुधार किये जाने चाहिए।
  • नियंत्रण की सीमाए / दोष :-
    • बाह्य घटकों पर अल्प नियन्त्रण:- सामान्य तौर पर एक संगठन बाहरी घटकों जैसी सरकारी नीतियाँ, तकनीकी नियंत्रण प्रतियोगिता आदि पर नियन्त्रण नहीं रख पता।
    • कर्मचारियों से प्रतिरोध:- अधिकतर कर्मचारी नियंत्रण का विरोध करते हैं उनके अनुसार नियन्त्रण उनकी सवतंत्रता पर प्रतिबध है। उदाहरण के लिए यदि कर्मचारियों की गतिविधियों पर नियंत्रण करने के लिए CCTV Camera लगा दिए जाये तो वे निश्चित रूप से इसका विरोध करेंगे।
    • महंगा सौदा:- नियंन्त्रण में खर्चा, समय तथा प्रयास की मात्रा अधिक होने के कारण यह एक महंगा सौदा है।
    • परिमाणात्मक मानकों को निर्धारण में कठिनाई:- जब मानकों को परिणात्मक शब्दों में व्यक्त नही किया जा सकता तो नियंत्रण प्रणाली का प्रभाव कम हो जाता है।
  • नियोजन एवं नियंत्रण में संबंध:-
    नियोजन और नियंत्रण दोनों ही परस्पर संबंधित हैं तथा दोनों ही एक दूसरे को बल प्रदान करते है। जैसे :-
    1. योजनाएँ नियंत्रण हेतु प्रमाप उपलब्ध कराती है। अतएवं नियोजन के बिना नियंत्रण अन्धा है। यदि पूर्व निर्धारित लक्ष्य तय नही किये जाते है तो प्रबन्धक के पास नियंत्रण के लिए कुछ नहीं होगा। इसलिए नियोजन की प्रथम आवश्यकता माना जाता है।
    2. नियोजन प्रमपो को निर्धारित करता है तथा नियंत्रण इन प्रमापों से विचलनों का अवलोकन करके सुधारात्मक कदम उठाता है।
    3. नियोजन कि प्रभावशीलता को नियंत्रण कि सहायता को मापा जा सकता है। इस प्रकार नियोजन एवं नियंत्रण अपृथक्करणी है। वे एक दूसरे को लागू करते है।
    4. नियोजन निर्धारित किये जाने वाली गतिविधि है तथा नियंत्रण मूल्यांकनकारी।
    5. (क) नियोजन एवं नियंत्रण आगे देखना है:-
      नियोजन भविष्य अधिमुखी कार्य है, क्योंकि इसमें अग्रिम रूप से नीतियाँ बनाई जाती हैं तथा भविष्य के लिए योजनाएँ बनाई जाती हैं। नियंत्रण भी आगे देखने का कार्य है क्योंकि वह यह सुनिश्चित करता है कि भविष्य में भावी निष्पादन, नियोजित निष्पादन के अनुरूप है।
      (ख) नियोजन एवं नियंत्रण पीछे देखना है:-
      नियोजन का निर्माण भूतकाल में हुई घटनाओं एवं प्राप्त अनुभवों के आधार पर ही किया जाता है इसलिए नियोजन पीछे देखना है। नियंत्रण के अंतर्गत प्रबन्धक कुछ कार्य पूरा हो जाने के बाद ही यह देखना है कि कार्य प्रमापों के अनुसार हुआ अथवा नही, अतः नियंत्रण भूतकाल में देखता है।