आलो आंधारि - पुनरावृति नोट्स

 कक्षा 11 हिंदी कोर

पुनरावृति नोट्स
पाठ - 3 आलो-आँधारि


पाठ का सारांश - आलो-आँधारि-लेखिका की आत्मकथा है-यह उन करोड़ों झुग्गियों की कहानी है जिसमें झाँकना भी भद्रता के तकाजे से बाहर है। यह साहित्य के उन पहरुओं के लिए चुनौती है जो साहित्य को साँचे में देखने के आदी हैं, जो समाज के कोने-अँतरे में पनपते साहित्य को हाशिए पर रखते हैं और भाषा एवं साहित्य को भी एक खास वर्ग की जागीर मानते हैं।

यह एक ऐसी आपबीती है जो मूलतबांग्ला में लिखी गई, लेकिन पहली ऐसी रचना जो छपकर बाजार में आने से पहले ही अनूदित रूप में हिंदी में आई। अनुवादक प्रबोध कुमार ने एक जबान को दूसरी जबान दी, पर रूह को छुआ नहीं। एक बोली की भावना दूसरी बोली में बोली, रोई, मुसकराई।

लेखिका अपने पति से अलग किराए के मकान में अपने तीन छोटे बच्चों के साथ रहती थी। उसे हर समय काम की तलाश रहती थी। वह सभी को अपने (लेखिकालिए काम ढूँढ़ने के लिए कहती थी। शाम को जब वह घर वापिस आती तो पड़ोस की औरतें काम के बारे में पूछतीं। काम न मिलने पर वे उसे सांत्वना देती थीं।

लेखिका की पहचान सुनील नामक युवक से थी। एक दिन उसने किसी मकान मालिक से लेखिका को मिलवाया। मकान मालिक ने आठ सौ रुपये महीने पर उसे रख लिया और घर की सफाई व खाना बनाने का काम दिया। उसने पहले काम कर रही महिला को हटा दिया। उस महिला ने लेखिका से भला-बुरा कहा। लेखिका उस घर में रोज सवेरे आती तथा दोपहर तक सारा काम खत्म करके चली जाती। घर जाकर बच्चों को नहलाती व खिलाती। उसे बच्चों के भविष्य की चिता थी।

जिस मकान में वह रहती थी, उसका किराया अधिक था। उसने कम सुविधाओं वाला नया मकान ले लिया। यहाँ के लोग उसके अकेले रहने पर तरह-तरह की बातें बनाते थे। घर का खर्च चलाने के लिए वह और काम चाहती थी। वह मकान मालिक से काम की नयी जगह ढूँढ़ने को कहती है। उसे बच्चों की पढ़ाई, घर के किराए व लोगों की बातों की भी चिंता थी।

मालिक सज्जन थे। एक दिन उन्होंने लेखिका से पूछा कि वह घर जाकर क्या-क्या करती है। लेखिका की बात सुनकर उन्हें आश्चर्य हुआ। उन्होंने स्वयं को 'तातुश' कहकर पुकारने को कहा। वे उसे बेबी कहते थे तथा अपनी बेटी की तरहमानते थे। उनका सारा परिवार लेखिका का ख्याल रखता था। वह पुस्तकों की अलमारियों की सफाई करते समय पुस्तकों को उत्सुकता से देखने लगती। यह देखकर तातुश ने उसे एक किताब पढ़ने के लिए दी। तातुश ने उससे लेखकों के बारे में पूछा तो उसने कई बांग्ला लेखकों के नाम बता दिए।

एक दिन तातुश ने उसे कॉपी व पेन दिया और कहा कि समय निकालकर वह कुछ जरूर लिखे। काम की अधिकता के कारण लिखना बहुत मुश्किल था, परंतु तातुश के प्रोत्साहन से वह रोज कुछ पृष्ठ लिखने लगी। यह शौक आदत में बदल गया। उसका अकेले रहना समाज में कुछ लोगों को सहन नहीं हो रहा था। वे उसके साथ छेड़खानी करते थे और बेमतलब परेशान करते थे। बाथरूम न होने से भी विशेष दिक्कत थी। मकान मालिक के लड़के के दुव्यवहार की वजह से वह नया घर तलाशने की सोचने लगी।

एक दिन लेखिका काम से घर लौटी तो देखा कि मकान टूटा हुआ है तथा उसका सारा सामान खुले में बाहर पड़ा हुआ है। वह रोने लगी। इतनी जल्दी मकान ढूँढ़ने की भी दिक्कत थी। दूसरे घरों के लोग अपना सामान इकट्ठा करके नए घर की तलाश में चले गए। वह सारी रात बच्चों के साथ खुले आसमान के नीचे बैठी रही। उसे दुख था कि दो भाई नजदीक रहने के बावजूद उसकी सहायता नहीं करते।

तातुश को बेबी का घर टूटने का पता चला तो उन्होंने अपने घर में कमरा दे दिया। इस प्रकार वह तातुश के घर में रहने लगी। उसके बच्चों को ठीक खाना मिलने लगा। तातुश उसका बहुत ख्याल रखते। बच्चों के बीमार होने पर वे उनकी दवा का प्रबंध करते। उनके सद्व्यवहार को देखकर बेबी हैरान थी। उसका बड़ा लड़का किसी के घर में काम करता था। वह उदास रहती थी। तातुश ने उसके लड़के को खोजा तथा उसे बेबी से मिलवाया। उस लड़के को दूसरी जगह काम दिलवाया। लेखिका सोचती कि तातुश पिछले जन्म में उसके बाबा रहे होंगे।

तातुश उसे लिखने के लिए निरंतर प्रोत्साहित करते थे। उन्होंने अपने कई मित्रों के पास बेबी के लेखन के कुछ अंश भेज दिए थे। उन्हें यह लेखन पसंद आया और वे भी लेखिका का उत्साह बढ़ाते रहे। तातुश के छोटे लड़के अर्जुन के दो मित्र वहाँ आकर रहने लगे, परंतु उनके अच्छे व्यवहार से लेखिका बढ़े काम को खुशी-खुशी करने लगी।

तातुश ने सोचा कि सारा दिन काम करने के बाद बेबी थक जाती होगी। उसने उसे रोजाना शाम के समय पार्क में बच्चों को घुमा लाने के लिए कहा। इससे बच्चों का दिल बहल जाएगा। अब वह पार्क में जाने लगी। पार्क में नए-नए लोगों से मुलाकात होती। उसकी पहचान बंगाली लड़की से हुई जो जल्दी ही वापिस चली गई। लोगों के दुव्यवहार के कारण उसने पार्क में जाना छोड़ दिया।

लेखिका को किताब, अखबार पढ़ने व लेखन-कार्य में आनंद आने लगा। तातुश के जोर देने पर वह अपने जीवन की घटनाएँ लिखने लगी। तातुश के दोस्त उसका उत्साह बढ़ाते रहे। एक मित्र ने उसे आशापूर्णा देवी का उदाहरण दिया। इससे लेखिका का हौसला बढ़ा और उसने उन्हें जेलू कहकर संबोधित किया। एक दिन लेखिका के पिता उससे मिलने पहुँचे। उसने उसकी माँ के निधन के बारे में बताया। लेखिका के भाइयों को पता था, परंतु उन्होंने उसे बताया नहीं। लेखिका काफी देर तक माँ की याद करके रोती रही। बाबा ने बच्चों से माँ का ख्याल रखने के लिए समझाया।

लेखिका पत्रों के माध्यम से कोलकाता और दिल्ली के मित्रों से संपर्क रखने लगी। उसे हैरानी थी कि लोग उसके लेखन को पसंद करते हैं। शर्मिला उससे तरह-तरह की बातें करती थी। लेखिका सोचती कि अगर तातुश उससे न मिलते तो यह जीवन कहाँ मिलता।

लेखिका का जीवन तातुश के घर में आकर बदल गया। उसका बड़ा लड़का काम पर लगा था। दोनों छोटे बच्चे स्कूल में पढ़ रहे थे। वह स्वयं लेखिका बन गई थी। पहले वह सोचती थी कि अपनों से बिछुड़कर कैसे जी पाएगी, परंतु अब उसने जीना सीख लिया था। वह तातुश से शब्दों के अर्थ पूछने लगी थी। तातुश के जीवन में भी खुशी आ गई थी।

अंत में वह दिन भी आ गया जब लेखिका की लेखन-कला को पत्रिका में जगह मिली। पत्रिका में उसकी रचना का शीर्षक था'आलो-आँधारि" बेबी हालदार। लेखिका अत्यंत प्रसन्न थी। तातुश के प्रति उसका मन कृतज्ञता से भर आया। उसने तातुश के पैर छूकर आशीर्वाद प्राप्त किया।