वसंत सुदामा चरित - नोट्स

CBSE पुनरावृति नोट्स
CLASS - 8 hindi
पाठ - 12 
सुदामा चरित
- नरोत्तम दास

पाठ का सारांश- इस पाठ में श्री कृष्ण और सुदामा के माध्यम से सच्ची मित्रता का दुर्लभ उदाहरण प्रस्तुत किया गया है। इनकी मित्रता को सच्ची मित्रता के आदर्श रूप में देखा जा सकता है। ऐसी मित्रता जो अनुकरणीय है। वर्तमान के संदर्भ में यह मित्रता और भी महत्त्वपूर्ण बन जाती है, जब व्यक्ति बुरे समय में अपने मित्र की पहचानने से भी इन्कार कर देता है। श्री कृष्ण ने बुरे समय में सुदामा की मदद करके उन्हें अपने ही सम्मान बना दिया।
इस कविता में श्री कृष्ण और सुदामा की मित्रता का वर्णन है। श्री कृष्ण और सुदामा बाल-सखा तथा ऋषि संदीपनि के आश्रम में पढ़नेवाले गुरुभाई थे। कालांतर में श्री कृष्ण द्वारकाधीश बने और सुदामा अत्यंत गरीब हो गए। सुदामा अपनी पत्नी को अपनी तथा कृष्ण की मित्रता के बारे में बता चुके थे। सुदामा कृष्ण से कोई मदद नहीं माँगना चाहते थे पर अपनी पत्नी के समझाने-बुझाने पर वे फटेहाल स्थिति में द्वारका स्थित श्री कृष्ण के भवन के सामने जा पहुँचे जहाँ उन्हें ऐसी हालत में देखकर द्वारपाल ने दरवाजो पर ही रोक दिया। उसने जाकर श्री कृष्ण को सुदामा की दीन-दशा तथा फटे कपड़ों आदि के बारे में बताया तथा यह भी कहा कि वह अपना नाम सुदामा बताते हुए आपका भवन खोज रहा है। वह चकित होकर आपके भवन को देखे जा रहा है। द्वारपाल के मुख से सुदामा नाम सुनते ही श्री कृष्ण के मन में न जाने क्या आया कि वह सारा काम-काज छोड़कर सुदामा से मिलने को व्याकुल हो उठे। वे भावुक होकर सुदामा से मिलते हैं। उनके काँटे चुभे पाँवों तथा उनमें फटी बिवाइयाँ देखकर कृष्ण बहुत दुखी होते हैं। कृष्ण सुदामा की ऐसी दयनीय हालत देखकर रो उठते हैं। उसी समय वे सुदामा द्वारा एक पोटली को छिपाते हुए देख लेते हैं। वे सुदामा को बचपन की उसघटना की याद दिलाते हैं, जब सुदामा गुरुमाता द्वारा दिए गए चने को अकेले खा गए थे। उन्होंने सुदामा से यह भी कहा कि चोरी की आदत में तो आप बड़े ही कुशल हैं। कृष्ण ने सुदामा की सेवा तो बहुत की, पर विदाई के समय उन्होंने नकद कुछ भी नहीं दिया। द्वारका से आते समय सुदामा बहुत खीझ रहे थे। वे कृष्ण के बचपन की आदतें याद करते हुए कहते हैं, “अरे! यह वही कृष्ण है जो तनिक-सी दही के लिए घर-घर चोरी करता फिरता था। आज यह द्वारका का राजा भले ही बन गया है, पर है तो वही कृष्ण।” यही सोचते-खीझते सुदामा अपने गाँव पहुँच गए, किंतु वहाँ चारों ओर द्वारका जैसा ही धन-वैभव, राजमहल आदि देखकर चकित एवं भ्रमित हो जाते हैं कि कहीं वे वापस द्वारका तो नहीं आ गए हैं। वे सारे गाँव में खोजकर थक गए, पर अपनी टूटी झोपड़ी को नहीं खोज पाए। सुदामा अपनी झोपड़ी के बारे में सबसे पूछते फिर रहे थे। कृष्ण की कृपा से सुदामा की दशा बदल चुकी थी। नंगे पाँव रहनेवाले सुदामा के द्वार पर अब गजराज खड़े थे। कठोर धरती पर रात बितानेवाले को अब कोमल सेज पर भी नींद नहीं आती थी। इस प्रकार श्री कृष्ण ने अपने बचपन के मित्र की दशा बदलकर मित्रता का ऐसा अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किया, जिसे सुदामा जान भी न सके तथा उनकी विपन्नता संपन्नता में बदल गई।