समाज में सामाजिक संरचना स्तरीकरण और सामाजिक प्रक्रियाएँ - एनसीईआरटी प्रश्न-उत्तर

कक्षा 11 समाजशास्त्र
एनसीईआरटी प्रश्न-उत्तर
पाठ - 6 समाज में सामाजिक संरचना, स्तरीकरण और सामाजिक प्रक्रियाएँ

1. कृषि तथा उद्योग के संदर्भ में सहयोग के विभिन्न कार्यों की आवश्यकता की चर्चा कीजिए।
उत्तर- सहयोग को सहचारी सामाजिक प्रक्रिया कहा जाता है। इसमें व्यक्तियों या समूहों के व्यक्तिगत या सामूहिक लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु सबका एक साथ काम करना सम्मिलित है। साथ ही इनमें व्यक्तियों को एकत्रित करने के लिए परानुभूति, सहानुभूति तथा योग्यता भी शामिल है। यह व्यक्तियों की मनो-सामाजिक (Psycho-social) एवं शारीरिक जरूरतों की पूर्ति करता है।
सरल समाजों में जहाँ अलावा उत्पादन संभव नहीं, वहाँ व्यक्तियों तथा समूहों के बीच मदद करने की भावना स्थित थी। यद्यपि पूँजीवादी समाजों में सहयोग की भावना स्थित तो है तथापि अनेक बार इसे आरोपित किया जाता है। उदाहरणत : फैक्ट्री में काम करने वाले मज़दूर अपने प्रतिदिन के कार्य में सहयोग तो करते हैं, लेकिन उनके संबंधों के हित किसी निश्चित संघर्ष से परिभाषित होगा।
सहयोग की अवधारणा मनुष्यों के व्यवहारों से संबंधित निश्चित अनुमानों पर आश्रित है। दुर्खाइम के अंतर्गत, "श्रम विभाजन की भूमिका जिसका अर्थ सहयोग है, संक्षिप्त रूप में समाज की निश्चित आवश्यकताओं की पूर्ति है।"
जो समाज कृषि प्रदान है वहा व्यक्ति एक दूसरे पर निर्भर हैं। साझा उद्देश्यों के लिए सदस्य मिलकर कार्य करते हैं। गाँवों में व्यक्तियों का एक समूह जैसे कि लुहार कृषि कार्य के लिए औज़ार, उपकरणों इत्यादि की व्यवस्था करता है। अन्य समूह दुकानदार की तरह काम करते हैं और खाद, बीज और कीटनाशी की व्यवस्था करता है। व्यक्तियों का अन्य समूह खेतों में बीज बोने का कार्य करते हैं, फसल कटाई के अवसर पर फसलों को काटते हैं तथा अन्य क्रिया-कलाप भी करते हैं। कृषक उद्देश्यों की प्राप्ति अकेला नहीं कर सकता है।
इसी तरह औद्योगिक संचालन के क्षेत्र में विशेषज्ञता की जरूरत है। समान लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए मज़दूर तथा प्रबंधन को एक दूसरे पर आरोपित किया जा सकता है।

2. क्या सहयोग हमेशा स्वैच्छिक अथवा बलात् होता हैं? यदि बलात् है, तो क्या मंजूरी प्राप्त होती है अथवा मानदंडों की शक्ति के कारण सहयोग करना पड़ता है; उदाहरण सहित चर्चा करें।
उत्तर- सहयोग, प्रतिस्पर्धा तथा संघर्ष के आपसी संबंध ज़्यादातर जटिल होते हैं और ये आसानी से पृथक नहीं किए जा सकते। यह समझने के लिए कि सहयोग और संघर्ष किस तरह अनुलग्नित हैं, तथा 'बाह्य' एवं 'स्वैच्छिक' सहयोग में क्या अंतर है, हम औरतों के संपत्ति के अधिकार का उदाहरण ले सकते हैं। बेटियों के संपत्ति पर अधिकार के ज्ञान के बावजूद भी, वे जन्म से परिवार में संपत्ति का संपूर्ण या साझा अधिकार का दावा करने से असमर्थ हैं; वजह यह है कि वे डरती थीं कि ऐसा करने से भाइयों के साथ उनके संबंधों में विरोध हो जायगा। इस तरह बेटियों के अपने जन्म से परिवार के सदस्यों के साथ सहयोग स्वैच्छिक नहीं है, यह मौलिक रूप से आरोपित है। यदि बेटियाँ अपने जन्म से परिवार के सदस्यों के साथ सामंजस्यपूर्ण संबंधों को कायम रखना चाहती हैं, तो उनके पास कोई विकल्प नहीं है।
सहयोग को सभी समाजो के सार्वभौमिक अभिलक्षण के रूप में समझा जा सकता हैं तथा इसकी व्याख्या समाज में रह रहे तथा अपने लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु क्रियाशील मनुष्यों के बीच अपरिहार्य अंतःक्रिया के रूप में की जा सकतीं हैं।
संघर्ष परिप्रेक्ष्य के अंतर्गत, जहाँ समाज जाति या वर्ग के आधार पर विभाजित होता है, वहीं कुछ समूह सुविधावंचित हैं और एक-दूसरे के प्रति भेदभावमूलक स्थिति का पालन करते हैं। प्रभावशाली समूहों में यह स्थिति सांस्कृतिक मानदंडों, ज्यादातर जबरदस्ती या हिंसा द्वारा भी पैदा की जाती है। प्रकार्यवादी परिप्रेक्ष्य में समाज के संदर्भ में सहयोग का समग्र रूप में व्याख्या किया गया हैं। प्रकार्यवादी का सरोकार मुख्य रूप से समाज में 'व्यवस्था की आवश्यकता' से है जिन्हें कुछ प्रकार्यात्मक अभिवादताएँ कहलाती है। समाजशास्त्रीय अध्ययनों द्वारा यह दर्शाया गया है कि किस तरह प्रतिमान, मानदंड और समाजीकरण के प्रतिरूप विशिष्ट सामाजिक व्यवस्था को सुनिश्चित करते हैं जो समाज के अस्तित्व के लिए प्रकार्यात्मक अनिवार्यताएँ हैं।

3. क्या आप भारतीय समाज से संघर्ष के विभिन्न उदाहरण ढूँढ़ सकते हैं? प्रत्येक उदाहरण में वे कौन से कारण थे जिसने संघर्ष को जन्म दिया? चर्चा कीजिए।
उत्तर- संघर्ष : इसमें वे सभी प्रक्रियाएँ सम्मिलित हैं स्थित में कोई व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति की इच्छा के विपरीत कार्य करते है। अपने लक्ष्यों की प्राप्तिके लिए यह एक सचेत प्रक्रिया है। संघर्ष एक विघटनकारी सामाजिक प्रक्रिया है, जिसमें व्यक्ति या समूह को ऐसा लगता है कि दूसरों की रुचि, उसके समान है तथा दोनों एक दूसरे का सम्पर्क साधने की प्रयत्न करते हैं। समूहों के मध्य विद्यमान संघर्षों से अनेक सामाजिक तथा संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं का सहयोग मिलता रहता है। ये प्रक्रियाएँ दोनों पक्षों को कठोर बनाती है, जिससे अंतः समूहों का केंद्रीकरण होता है। इसका परिणाम समान विचारधारा वाले दलों का गठबंधन है, जिससे दोनों दलों का भय बढ़ जाता है। इसका संबंध वर्ग, धर्म, क्षेत्र, भाषा, जाति और इसी तरह अन्य से है।
ऐसे संघर्षों की वर्णन संरचनात्मक समूह और व्यक्तिगत स्तर पर की जा सकती है। भारतीय समाज में संरचनात्मक अवस्थित में गरीबी का उच्च दर, सीमित राजनैतिक और सामाजिक, आर्थिक तथा सामाजिक स्तरीकरण असमानता अवसर शामिल है। व्यक्तिगत स्तर पर विचार, पूर्वागृहिक अभिवृत्ति तथा वैयक्तित्व मुख्य निर्धारक हैं। भारत में हाल के वर्षों में सांप्रदायिक, वर्ग, ज़मीन, पहचान और भाषा विवादों से संबंधित संघर्ष सामान्य बनता जा रहा है।

4. संघर्ष को किस प्रकार कम किया जाता है इस विषय पर उदाहरण सहित निबंध लिखिए।
उत्तर- 
संघर्ष को प्रत्येक समाज का अभिन्न अंग माना जाता है तथा यह विघटनकारी प्रक्रिया है। चूँकि केंद्रबिंदु पद्धति जो कार्य रखने की है, इसलिए प्रतिस्पर्धा और संघर्ष को ऐसा समझा जाता है कि अधिकतर विवादों में बिना पर्याप्त कष्ट के उनका समाधान ढूँढ़ लिया जाता है। यदि संघर्ष के कारणों की जानकारी हो तो उनका निर्धारण हो सकता है। संघर्ष समाधान के लिए असंख्य सामाजिक प्रक्रियाएँ प्रचलन में हैं; जैसे-आत्मसात्करण, व्यवस्थापक और आरोपित सहयोग की स्थापना।
संघर्ष का चतुराई से भी समाधान किया जा सकता है। उनमें से कुछ इस प्रकार हैं:
  • समझौते की बातचीत- संघर्ष को समझौते की बातचीत तथा तृतीय हल की मध्यस्थता के द्वारा समाधान किया जा सकता है।
  • समझौते की बातचीत का संबंध दो तरह के संप्रेषण से है ताकि संघर्ष की स्थितियों में समझौते तक पहुँचा सके जा सके।
  • जंगी समूह पारस्परिक स्वीकार योग्य हल ढूँढ़ने की कोशिश कर संघर्ष का समाधान कर सकते हैं।
  • कभी-कभी समझौते की बातचीत के द्वारा संघर्ष को खत्म करना मुश्किल होता है।
  • उस स्थिति में तृतीय पक्ष द्वारा मध्यस्थता और पंच-फैसले की जरूरत पड़ती है।
  • पंच-फैसला में दोनों पक्षों को सुनने के पश्चात तृतीय पक्ष को फैसला सुनाने का अधिकार प्राप्त है।
  • मध्यस्थ दोनों पक्षों को प्रासंगिक विवाद पर चर्चा करने और स्वैच्छिक समझौते तक पहुँचने में सहायता करता है।

5. ऐसे समाज की कल्पना कीजिए जहाँ कोई प्रतिस्पर्धा नहीं है, क्या यह संभव है? अगर नहीं तो क्यों?
उत्तर- नहीं, हम ऐसे समाज की कल्पना भी नहीं कर सकते हैं, जहाँ कोई प्रतिस्पर्धा नहीं है। क्योकि संघर्ष प्रत्येक समाज का अभिन्न अंग है इस प्रकार व्यक्ति विभिन्न संदर्भों में एक दूसरे के साथ अंतः क्रिया करते हैं। प्रायः सभी तरह की सामाजिक स्थितियों में सहयोग और संघर्ष व्यवहार की विशिष्टताएँ हैं। जब समूह साझा लक्ष्य की प्राप्ति हेतु मिलकर कार्य करते हैं, तो हम इसे सहयोग करते हैं। जब समूह अधिकतम लाभ के लिए कोशिश और स्वार्थ सिद्धि के लिए कार्य करते हैं, तो संघर्ष का घटित होना अनिवार्य है। लेकिन सभी तरह की सामाजिक अंतः क्रियाओं में प्रोत्साहन तथा पर्तिस्पर्धा सम्मिलित है।
प्रतियोगिता लक्ष्य इस तरह निर्धारित किया जाता है कि यदि अन्य अपने लक्ष्य को प्राप्त करने से असफल रहते हैं, तो प्रत्येक व्यक्ति अपने लक्ष्य को ही प्राप्त कर सकता है। कई बार संबंध उत्पादन की पद्धति के अंतर्गत समूहों तथा व्यक्तियों की अवस्थिति विविध और असमान रहती है। लेकिन हमें याद रखना जरूरी है कि प्रतियोगिता जो एक विघटनकारी सामाजिक प्रक्रिया है, वह समाजिक संरचना का समग्र भाग भी है। संसार में यह किसी समाज का समग्र और अनिवार्य भाग है। अतः हम ऐसे समाज की कल्पना नहीं कर सकते हैं, जहाँ प्रतियोगिता, प्रतिस्पर्धा नहीं है। समाज का स्वरूप कम प्रतियोगी का उच्च प्रतियोगी से हो सकता है, परंतु प्रतिस्पर्धा के बिना समाज का अस्तित्व असंभव है।