सामाजिक संस्थाएँ निरंतरता और परिवर्तन - पुनरावृति नोट्स
CBSE कक्षा 12 समाजशास्त्र
[खण्ड-1] पाठ - 3 भारतीय संस्थाए : निरंतरता एवं परिवर्तन
पुनरावृत्ति नोट्स
[खण्ड-1] पाठ - 3 भारतीय संस्थाए : निरंतरता एवं परिवर्तन
पुनरावृत्ति नोट्स
मुख्यबिन्दु-
- जनसंख्या सिर्फ अलग-अलग असंबधित व्यक्तियों का जमघट नहीं है परन्तु यह विभिन्न प्रकार के तथा आपस में संबधित वर्गों व समुदाय से बना समाज है।
- भारतीय समाज की तीन प्रमुख संस्थाएँ- जाति, जनजाति, परिवार
- जाति एक ऐसी सामाजिक संस्था है जो भारत में हजारों सालों से प्रचलित है।
- जाति अंग्रेज़ी के शब्द - कास्ट (Caste) जो कि पुर्तगाली शब्द कास्ट से बना है! इसका अर्थ है-विशुद्ध नस्ल। भारत में दो विभिन्न शब्दों वर्ण व जाति के अर्थ में प्रयोग होता है।
- वर्ण का अर्थ 'रंग' होता हैं भारतीय समाज में चारवर्ण माने गए है- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र जाति को क्षेत्रीय या स्थानीय उपवर्गीकरण के रूप में समझा जा सकता है। जाति एक व्यापक शब्द है जो किसी वंश किस्म को संबोधित करने के लिए किया जाता है। इसमे पेड़ पौधे, जीव जन्तु तथा मनुष्य भी शामिल है।
- वर्ण और जाति में अंतर
- शाब्दिक अर्थों में अंतर।
- वर्ण कर्म प्रधान है और जाति जन्म प्रधान है।
- वर्ण कर्म प्रधान है और जाति व्यवस्था कठोर है।
- वर्णों और जातियों की संख्या में भेद।
- वैदिक काल मे जाति व्यवस्था बहुत विस्तृत तथा कठोर नहीं थी।
- लेकिन वैदिक काल के बाद यह व्यवस्था बहुत कठोर हो गई। जाति जन्म से निर्धारित होने लगी। विवाह, खान पान आदि के कठोर नियम बन गए। व्यवसाय की जाति से जोड़ दिया जो वंशानुगत थे, इसे एक सीढ़ीनुमा व्यवस्था बना दिया, जो ऊपर से नीचे जाती है।
- जाति को दो समुच्चयों के मिश्रण के रूप मे समझा जा सकता है।
1. भिन्नता व अलगाव
2. संपूर्णता व अधिक्रम
प्रत्येक जाति अन्य जाति से भिन्न है- शादी, पेशे व खानपान के सम्बन्ध में।
प्रत्येक जाति का एक विशिष्ट स्थान होता है। - श्रेणी अधिक्रम में जातियों का आधार- 'शुद्धता' और 'अशुद्धता' होता है। वे जातियाँ शुद्ध या पवित्र मानी जाती है जो कर्मकाण्डों और धार्मिक कृत्यों में संलग्न रहती है। इसके विपरीत अंसस्कारित जातियाँ अशुद्ध या अपवित्र मानी जाती है।
- उपनिवेशवाद तथा जाति व्यवस्था:- आधुनिक काल में जाति पर औपनिवेशिक काल व स्वतंत्रता के बाद का प्रभाव है। ब्रिटिश शासकों के कुशलता पूर्वक शासन करने के लिए जाति व्यवस्था की जटिलताओं को समझने का प्रयास किया। 1901 में हरबर्ट रिजले ने जनगणना शुरु की जिसमें जातियाँ गिनी गई।
- भूराजस्व व्यवस्था व उच्च जातियों को वैध मान्यता दी गई।
- प्रशासन ने पददलित जातियों, जिन्हें उन दिनों दलित वर्ग कहा जाता था, के कल्याण में भी रूचि ली।
- भारत सरकार का अधिनियम -1935, मे अनुसूचित जाति व जनजाति को कानूनी मान्यता दी गई। इसमें उन जाति को को शामिल किया गया जो औपनिवेशिक काल में सबसे निम्न थी। इनके कल्याण की योजनाए बनी।
- जाति का समकालीन रूप:- आजाद भारत मे राष्ट्रवादी आन्दोलन हुए, जिनमें दलितों को संगठित किया गया। ज्योतिवा फूले, पेरियार, बाबा अम्बेडकर इन आन्दोलनों के अग्रणी थे।
- राज्य के कानून जाति प्रथा के उन्मूलन के लिए प्रतिबद्ध था। इसके लिए कुछ ठोस कदम उठाए गए जैसे अनुसूचित जाति तथा जन जाति को आरक्षण, आधुनिक उद्योगों में जाति प्रथा नहीं है, शहरीकरण द्वारा जाति प्रथा और कमजोर हुई हैं।
- सांस्कृतिक व घरेलू क्षेत्रों में जाति सुदृढ़ सिद्ध हुई। अंतविर्वाह, आधुनिकीकरण व परिवर्तन से भी अप्रभावित रही पर कुछ लचीली हो गई।
- एम.एन. श्री निवास ने संस्कृतिकरण व प्रबलजाति की संकल्पना बनाई।
- संस्कृतिकरण- ऐसी प्रक्रिया जिसके द्वारा (आमतौर मर मध्यम निम्न) जाति के सदस्य उच्च जाति की धार्मिक क्रियाएं, घरेलू या सामाजिक परिपाटियों को अपनाते है, संस्कृतिकरण कहलातीं हैं।
- प्रबल जाति- वह जाति जिसकी संख्या बड़ी होती है, भूमि के अधिकार होते है तथा जो राजनैतिक, सामाजिक व आर्थिक रूप से प्रवल जाति कहलाती है। बिहार में यादव, कर्नाटक में बोक्कलिंग, महाराष्ट्र में मराठा आदि।
- समकालीन दौर में जाति व्यवस्था उच्च जातियों, नगरीय मध्यम व उच्च वर्गों के लिए अदृश्य होती जा रही है।
- राष्ट्रीय विकास जिसमे बांधो का निर्माण कारखाने, खदान आदि आते है जनजातियों के नुकसान का कारण बने, जैसे नर्मदा डैम।
- दो प्रकार के मुद्दों ने जनजातिय आन्दोलन को तूल देने मे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है- आर्थिक संसाधनों पर नियन्त्रण तथा नृजातीय सांस्कृतिक पहचान ये दोनो साथ-साथ चल सकते है, परन्तु जनजातीय समाज मे विभिन्नताएं होने से ये अलग भी हो सकते है।
- परिवार:- सदस्यों का वह समूह जो रक्त, विवाह या गोद संबधों पर नातेदारो से जुड़ा होता है
(क) मूल या एकाकी परिवार
(ख) विस्तृत या संयुक्त परिवार - जन जातीय समुदाय: जनजातियां ऐसे समुदाय थे जो किसी लिखित धर्मग्रंथ के अनुसार किसी धर्म का पालन नही करते। ये विरोध का रास्ता गैर जनजाति के प्रति अपनाते है। इसी परिणाम है कि झारखण्ड व छतीसगढ़ गए।
- जनजातीय समाजों का वर्गीकरण :
- स्थायी विशेषक : इसमें क्षेत्र, भाषा, शारीरिक गठन सम्मिलित हैं।
- अर्जित विशेषक : जनजातियों में जीवन यापन के साधन तथा हिन्दु समाज की मुख्य धारा से जुड़ना है।
- मुख्यधारा के समुदायों का जनजातियों के प्रति दृष्टिकोण
- जनजातियों समाजों को राजनीतिक तथा आर्थिक मोर्च पर साहूकारों तथा महाजनों के दमनकारी कुचक्रों को सहना पड़ा। 1940 के दशक के दौरान पृथक्करण बनाम एकीकरण विषय पर बहस चली तो यह तस्वीरें सामने आई।
- पृथक्करण : कुछ विद्वानों को मानना था कि जनजातियों की गैर जनजातीय समुदाय से रक्षा की जानी चाहिए। क्योंकि ये सभी लोग जनजातियों का अलग अस्तित्व मिटाकर उन्हें भूमिहीन श्रमिक बनाना चाहते हैं।
- एकीकरण : कुछ विद्वानों का मत था कि जनजातियों के विकास पर ध्यान देना चाहिए।
- राष्ट्रीय विकास बनाम जनजातीय विकास : बड़ी-बड़ी परियोजनाओं के परिणाम स्वरूप जाजातीय समुदायों को बुरी तरह प्रभावित किया है। बड़े-बड़े बांध बनाए गए, कारखाने स्थापित किए गए और खानों की खुदाई शुरु की गई। इस प्रकार के विकास से जनजातियों की हानि की कीमत पर मुख्यधारा के लोग लाभान्वित हुए। अधिकांश जनजातीय समुदाय वनों पर आश्रित थे, इसलिए वन छिन जाने से उन्हें भारी धक्का लगा। जनजातीय संस्कृति विलुप्त हो रही है। विकास की आड़ में बड़े पैमाने पर उन्हें उजाड़ा गया है।
- दो प्रकार के मुद्दों ने जनजातिय आन्दोलन को तूल देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है- आर्थिक संसाधनों पर नियंत्रण तथा नृजातीय सांस्कृतिक पहचान ये दोनों साथ-साथ चल सकते हैं, परन्तु जनजातीय समाज में विभिन्नताएँ होने से ये अलग भी हो सकते हैं।
एक लंबे संघर्ष के बाद झारखंड और छत्तीसगढ़ को अलग-अलग राज्य का दर्जा मिल गया है। सरकार द्वारा उाए गए कठोर कदम और फिर उनसे भड़के
विद्रोहों ने पूर्वोत्तर राज्यों की अर्थव्यवस्था, संस्कृति और समाज को भारी हानि पहुँचाई है। एक अन्य महत्वपूर्ण विकास जनजातीय समुदायों में शनैः-शनैः एक शिक्षित मध्य वर्ग का उद्भव है। - परिवार : सदस्यों का वह समूह जो रक्त, विवाह या गौत्र संबंधों पर नातेदारों से जुड़ा होता है।
- मूल या एकाकी परिवार (माता पिता और उनके बच्चे।)
- विस्तृत या संयुक्त परिवार (दो या अधिक पीढ़ियों के लोग एक साथ रहते हैं।)
- निवास स्थान के आधार पर
- पितृस्थानीय परिवार : नवविवाहित जोड़ा वर के माता-पिता के साथ रहता है।
- मातृस्थानीय परिवार : नवविवाहित जोडा वधु को माता-पिता को साथ रहता है।
- सत्ता के आधार पर
- पितृवंशीय परिवार : जायदाद/वंश पिता से पुत्र को मिलता है।
- मातृवंशीय परिवार : जायदाद/वंश माँ से बेटी को मिलती है।
- वंश के आधार पर
- पितृसत्तात्मक परिवार : पुरुषों की सत्ता व प्रभुत्व होता है।
- मातृसत्तात्मक परिवार : स्त्रियाँ समान प्रभुत्वकारी भूमिका निभाती है।
- सामाजिक संरचना में बदलावों के परिणामस्वरूप परिवारिक ढांचे में बदलाव होता है। उदाहरण के तौर पर, पहाड़ी क्षेत्रों के ग्रामीण अंचलो से रोजगार की तलाश में पुरुषों को शहरी क्षेत्रों की ओर पलायन जिससे महिला प्रधान परिवारों की संख्या काफी बढ़ गई है।
उद्योगों में नियुक्त युवा अभिभावकों का कार्यभार अत्याधिक बढ़ जाने से उन्हे अपने बच्चों की देखभाल के लिए अपने बूढ़े माता-पिता को अपने पास बुलाना पड़ता है। जिससे शहरों में बूढ़े माता-पिता की संख्या में भारी वृद्धि हुई है। लोग व्यक्तिवादी हो गए है। युवा वर्ग अपने अभिभावकों की पसंद की बजाय अपनी पसंद से विवाह/जीवन साथी का चुनाव करते है। - खासी जनजाति और मातृवंशीय संगठन खासी जनजाति मातृवंशानुक्रम संगठन का प्रतीक है। मातृवंशीय परम्परा के अनुसार खासी परिवार में विवाह के बाद पति अपनी पत्नी के घर रहता है।
वंश परम्परा को अनुसार उत्तराधिकार भी पुत्र को प्राप्त न होकर पुत्री को ही प्राप्त होता है। खासी लोगों में माता का भाई (यानी मामा) माता को पुश्तैनी सम्पत्ति की देख रेख करता है। अर्थात सम्पत्ति पर नियन्त्रण का अधिकार माता के भाई को दिया गया है। इस स्थिति में वह स्त्री उत्तराधिकार के रूप में मिली सम्पत्ति का अपने ढंग से उपयोग नहीं कर पाती है। इस प्रकार खासी जनजाति में मामा की अप्रत्यक्ष सत्ता संघर्ष को जन्म देती है। खासी पुरुषों को दोहरी भूमिका निभानी पड़ती है। एक ओर तो खसी पुरुष अपनी बहन की पुत्री की सम्पत्ति की रक्षा करता है और दूसरी ओर उस पर अपनी पत्नी तथा बच्चों के लालन पालन का भी उत्तरदायित्व होता है। दोनों पक्षों की स्त्रियाँ बुरी तरह प्रभावित होती है। मातृवंशीय व्यवस्था के बावजूद खासी समाज में शक्ति व सत्ता पुरुषों के ही आसपास घूमती है। - नातेदारी : नातेदारी व्यवस्था में समाज द्वारा मान्यता प्राप्त वे संबंध आते हैं जो अनुमानित और रक्त संबंधों पर आधारित हों - जैसे चाचा, मामा आदि।
नातेदारी के प्रकार :- विवाह मूलक नातेदारी : जैसे- साला-साली, सास-ससुर, देवर, भाभी आदि।
- रक्तमूलक नातेदारी : जैसे- माता-पिता, भाई-बहन आदि।