संविधान एक जीवंत दस्तावेज़ - एनसीईआरटी प्रश्न-उत्तर

सीबीएसई कक्षा - 11 राजनीति विज्ञान
एनसीईआरटी प्रश्नोत्तर
पाठ - 9 संविधान-एक जीवंत दस्तावेज़

1. निम्नलिखित में से कौन-सा वाक्य सही है
संविधान में समय-समय पर संशोधन करना आवश्यक होता है क्योंकि-
  1. परिस्थितियाँ बदलने पर संविधान में उचित संशोधन करना आवश्यक हो जाता है।
  2. किसी समय विशेष में लिखा गया दस्तावेज़ कुछ समय पश्चात् अप्रासंगिक हो जाता है।
  3. हर पीढ़ी के पास अपनी पसंद का संविधान चुनने का विकल्प होना चाहिए।
  4. संविधान में मौजूदा सरकार का राजनीतिक दर्शन प्रतिबिंबित होना चाहिए।
उत्तर- i. संविधान में समय-समय पर संशोधन करना आवश्यक होता है क्योंकि परिस्थितियाँ बदलने पर संविधान में संशोधन करना आवश्यक हो जाता है।

2. निम्नलिखित वाक्यों के सामने सही अथवा गलत का निशान लगाएँ।
  1. राष्ट्रपति किसी संशोधन विधेयक को संसद के पास पुनर्विचार के लिए नहीं भेज सकता।
  2. संविधान में संशोधन करने का अधिकार केवल जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों के पास ही होता है।
  3. न्यायपालिका संवैधानिक संशोधन का प्रस्ताव नहीं ला सकती परंतु उसे संविधान की व्याख्या करने का अधिकार है। व्याख्या के द्वारा वह संविधान की काफी हद तक बदल सकती है।
  4. संसद संविधान के किसी भी खंड में संशोधन कर सकती है।
उत्तर-
  1. सही,
  2. गलत,
  3. सही,
  4. गलत।

3. निम्नलिखित में से कौन भारतीय संविधान की प्रक्रिया में भूमिका निभाते हैं। इस प्रक्रिया में ये कैसे शामिल होते हैं?
  1. मतदाता
  2. भारत का राष्ट्रपति
  3. राज्य की विधानसभाएँ
  4. संसद
  5. राज्यपाल
  6. न्यायपालिका
उत्तर-
  1. मतदाता- भारतीय संविधान के संशोधन की प्रक्रिया में इनकी विशेष भागीदारी नहीं होती है। लेकिन इनके द्वारा ही निर्वाचित प्रतिनिधि संशोधन प्रक्रिया में सक्रिय भूमिका निभाते हैं।
  2. भारत का राष्ट्रपति- संविधान संशोधन की प्रक्रिया में राष्ट्रपति का महत्वपूर्ण स्थान होता है। संसद में विधेयक के पास होने पर इसे संशोधन विधेयक भी राष्ट्रपति के पास अनुमोदन के लिए भेजा जाता है। लेकिन इस मामले में राष्ट्रपति का अधिकार सीमित है। वह इसे पुनर्विचार के लिए नहीं लौटा सकता है। वह उस पर अपनी स्वीकृति दे देता है।
  3. राज्य की विधान सभाएँ- संविधान के कुछ विशिष्ट अनुच्छेदों एवं विषयों में संशोधन कराने के लिए संसद के विशेष बहुमत के साथ ही आधे राज्यों की विधान सभाओं से परामर्श और उनकी सहमति लेना आवश्यक होता है। जैसे केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों के वितरण से संबंधित या जनप्रतिनिधित्व से संबंधित विषयों में।
  4. संसद- भारतीय संविधान किसी भी तरह के संशोधन के लिए संसद महत्वपूर्ण केंद्र है। संसद की भागीदारी के बिना संविधान में संशोधन प्रक्रिया शुरू नहीं की जा सकती, चाहे साधारण बहुमत से संशोधन हो अथवा दो-तिहाई बहुमत से संशोधन हो या आधे से ज्यादा राज्यों द्वारा सहमति की जरूरी हो, संसद की भूमिका हमेशा महत्त्वपूर्ण बनी रहती है। इसका अर्थ यह है की किसी भी विषय पर किसी भी अनुच्छेद में या किसी भी प्रक्रिया द्वारा संशोधन, साधारण या कठोर, संसद सदैव संशोधन प्रक्रिया का केंद्र होता है। कोई संशोधन प्रक्रिया संसद की भागीदारी के बिना नहीं की जा सकती है। संसद संशोधन प्रक्रिया का अभिन्न अंग है।
  5. राज्यपाल- संविधान संशोधन की प्रक्रिया में राज्यपाल की भूमिका सीमित होती है। जिन अनुच्छेदों एवं विषयों पर संशोधन करने के लिए पचास प्रतिशत राज्यों की विधान सभाओं के माध्यम से सहमति लेनी आवश्यक होती है, उन संशोधन विधेयकों के विधान सभाओं द्वारा पारित होने के बाद उन पर राज्यपाल के हस्ताक्षर होते हैं, तभी संविधान संशोधन की प्रक्रिया पूर्ण होती है।
  6. न्यायपालिका- संविधान संशोधन में न्यायपालिका की कोई प्रत्यक्ष भूमिका नहीं होती है। न्यायपालिका की संविधान संशोधन की व्याख्या करने का अधिकार है। इस मुद्दे पर प्रायः सरकार तथा न्यायपालिका के मध्य विवाद पैदा हो जाते हैं। संविधान में अनेक संशोधन इन्हीं मतभेदों के परिणामस्वरूप किए गए।

4. इस अध्याय में आपने पढ़ा कि संविधान का 42वाँ संशोधन अब तक का सबसे विवादास्पद संशोधन रहा है। इस विवाद के क्या कारण थे?
  1. यह संशोधन राष्ट्रीय आपात्काल के दौरान किया गया था। आपात्काल की घोषणा अपने आप में ही एक विवाद का मुद्दा था।
  2. यह संशोधन विशेष बहुमत पर आधारित नहीं था।
  3. इसे राज्य विधानपालिकाओं का समर्थन प्राप्त नहीं था।
  4. संशोधन के कुछ उपबंध विवादास्पद थे।
उत्तर- संविधान का 42वाँ संशोधन एक सबसे विरोधाभाषी संसोधन था। विभिन्न कारणों में एक कारण इस संशोधन का राष्ट्रीय आपात्काल की घोषणा के समय किया जाना था जो अपने आप में ही एक विवाद का मुद्दा था। इस संशोधन में विभिन्न विवादास्पद प्रावधान थे। एक आवशयक विवादास्पद प्रावधान यह था कि इसके माध्यम से संविधान संशोधन में संसद की भूमिका को विस्तृत कर दिया गया। इसके अंतर्गत संविधान के किसी उपबंध में किसी भी प्रकार का संशोधन करने का संसद के अधिकार पर किसी भी प्रकार का प्रतिबन्ध न होगा तथा किसी संशोधन पर किसी प्रकार की कोई आपत्ति नहीं उठाई जा सकती। एक तरह से यह सर्वोच्च न्यायालय द्वारा केशवानंद मामले में दिए गए निर्णय को भी चुनौती थी। इसके अलावा लोकसभा की अवधि 5 वर्ष से बढ़ाकर 6 वर्ष कर दी गई। यह संशोधन न्यायपालिका की समीक्षा शक्ति को भी प्रतिबंधित करता है। इस संशोधन के माध्यम से संविधान की प्रस्तावना, सातवीं अनुसूची तथा संविधान के 53 वें अनुच्छेद में बदलाव किए गए। कहा जाता है कि इस संशोधन के द्वारा संविधान के बड़े मौलिक हिस्से को नए सिरे से लिखा गया। जब यह संशोधन संसद में पास किया गया तो विरोधी दलों के बहुत से सांसद जेल में थे। इस तरह इस संशोधन के विवादास्पद होने के अनेक कारण विद्यमान थे।

5. निम्नलिखित वाक्यों में कौन-सा वाक्य विभिन्न संशोधनों के संबंध में विधायिका और न्यायपालिका के टकराव की सही व्याख्या नहीं करता-
  1. संविधान की कई तरह से व्याख्या की जा सकती है।
  2. खंडन-मंडन/बहस और मतभेद लोकतंत्र के अनिवार्य अंग होते हैं।
  3. कुछ विषयों और सिद्धांतों को संविधान में अपेक्षाकृत ज्यादा महत्त्व दिया गया है। कतिपय संशोधनों केईए सावधान में विष बहुत की व्यस्था क गई है।
  4. नागरिकों के अधिकारों की रक्षा की जिम्मेदारी विधायिका को नहीं सौंपी जा सकती।
  5. न्यायपालिका केवल किसी कानून की संवैधानिकता के बारे में फ़ैसला दे सकती है। वह ऐसे कानूनों की वांछनीयता से जुड़ी राजनीतिक बहसों का निपटारा नहीं कर सकती।
उत्तर- उपर्युक्त कथनों में से "v." में दिया गया कथन विभिन्न संशोधनों के संबंध में विधायिका और न्यायपालिका के टकराव की सही व्याख्या नहीं करता है। किसी भी कानून की संवैधानिकता निर्धारित करने की शक्ति न्यायपालिका में निहित होती है।

6. बुनियादी ढाँचे के सिद्धांत के बारे में सही वाक्य को चिह्नित करें। गलत वाक्य को सही करें।
  1. संविधान में बुनियादी मान्यताओं का खुलासा किया गया है।
  2. बुनियादी ढाँचे को छोड़कर विधायिका संविधान के सभी हिस्सों में संशोधन कर सकती है।
  3. न्यायपालिका ने संविधान के उन पहलुओं को स्पष्ट किया है जिन्हें बुनियादी ढाँचे के अंतर्गत या उसके बाहर रखा जा सकता है।
  4. यह सिद्धांत सबसे पहले केशवानंद भारती मामले में प्रतिपादित किया गया है।
  5. इस सिद्धांत से न्यायपालिका की शक्तियाँ बढ़ी हैं। सरकार और विभिन्न राजनीतिक दलों ने भी बुनियादी ढाँचे के सिद्धांत को स्वीकार कर लिया है।
उत्तर-
  1. यह कथन सही नहीं है कि संविधान में बुनियादी मान्यताओं का खुलासा किया गया है, क्योंकि संविधान में कहीं भी अलग से मूल ढाँचे की कोई व्याख्या नहीं की गई है। संविधान की विशेष धारणाओं का आशय है कि वे संविधान की कुछ व्यवस्थाओं की तुलना में ज़्यादा आवश्यक हैं, वे संविधान के मूल ढाँचे के समान हैं और समस्त संवैधानिक व्यवस्था उन पर ही आधारित है। इस धारणा प्रतिपादन सबसे पहले सर्वोच्च न्यायालय के केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य के वाद में किया गया था। बाद में मिनर्वा मिल मामले में यह निर्णय दिया गया कि संविधान के मूल ढाँचे में संशोधन नहीं किया जा सकता है। इस तरह इसे संविधान के बुनियादी ढाँचे के रूप में स्वीकार कर लिया गया। इस तरह बुनियादी मान्यताओं के सिद्धांत ने संविधान के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है।
  2. यह कथन सही है कि विधायिका बुनियादी ढाँचे को छोड़कर संविधान के सभी हिस्से में संशोधन कर सकती है। संविधान के 42 वें संशोधन द्वारा यह प्रावधान किया गया है की विधायिका को प्रस्तावना में संशोधन करने की शक्ति है, कितु प्रस्तावना के उस भाग में संशोधन नहीं हो सकता जो आधारभूत ढाँचे से संबंधित हो।
  3. यह कथन सही है कि बुनियादी ढाँचे की किसी अवधारणा का उल्लेख संविधान में नहीं मिलता है, यह तो न्यायिक व्याख्याओं की उपज है। बुनियादी ढाँचे का सिद्धांत को ही एक जीवत संविधान का उदाहरण कहा जा सकता है।
  4. यह कथन निश्चित रूप से सही है कि बुनियादी ढॉचे का सिद्धांत सर्वप्रथम 1973 के केशवानंद भारती मामले में प्रतिपादित किया गया। बाद में प्रस्तावना से संबंधित किसी भी वाद का निर्णय इसी मामले के आधार पर किया गया। बाद में बुनियादी ढाँचे के इस सिद्धांत को व्यापक जनस्वीकृति मिली।
  5. निश्चित रूप से बुनियादी ढाँचे के इस सिद्धान्त से न्यायपालिका की शक्तियों का विस्तार हुआ। राजनीतिक दलों, राजनेताओं, संसद और सरकार की मूल संरचना के बुनियादी ढाँचे को महत्त्वपूर्ण स्वीकृति मिली। केशवानंद भारती विवाद के बाद से इस सिद्धांत का संविधान की व्याख्या में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। अतः यह कथन पूर्णतः सत्य है।

7. सन् 2000-2003 के बीच संविधान में अनेक संशोधन किए गए। इस जानकारी के आधार पर आप निम्नलिखित में से कौन-सा निष्कर्ष निकालेंगे-
  1. इस काल के दौरान किए गए संशोधनों में न्यायपालिका ने कोई ठोस हस्तक्षेप नहीं किया।
  2. इस काल के दौरान एक राजनीतिक दल के पास विशेष बहुमत था।
  3. कतिपय संशोधनों के पीछे जनता का दबाव काम कर रहा था।
  4. इस काल में विभिन्न राजीनतिक दलों के बीच कोई वास्तविक अंतर नहीं रह गया था।
  5. ये संशोधन विवादास्पद नहीं थे तथा संशोधनों के विषय को लेकर विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच सहमति पैदा हो चुकी थी।
उत्तर- दिए गए निष्कर्षों में से संविधान संशोधनों के विषय में "iii." और "v." में उल्लिखित निष्कर्ष सही हैं, क्योंकि उस समय संशोधन के लिए जनता का दबाव था तथा राजनीतिक दलों के बीच भी संशोधन के विषय और प्रकृति के संबंध में पर्याप्त सहमति थी, जिसके कारण संशोधन में कोई बाधा नहीं आई। संशोधन प्रस्ताव पर प्रायः राजनीतिक दलों में आम राय थी।

8. संविधान में संशोधन करने के लिए विशेष बहुमत की आवश्यकता क्यों पड़ती है? व्याख्या करें।
उत्तर- विशेष विषयों में संशोधन करने के लिए विशेष बहुमत की जरूरत होती है; जैसे-चुनाव, कार्यपालिका और न्यायपालिका। दो विषयों से संबंधित संविधान में संशोधन करने के लिए दो प्रकार के विशेष बहुमत की जरूरत होती है। विशेष बहुमत का अर्थ है किसी भी प्रस्ताव को विधायिका द्वारा पारित होने के लिए विधेयक के पक्ष में मतदान करने वाले सदस्यों की संख्या सदन के कुल सदस्यों की संख्या की कम से कम आधी होनी चाहिए। संशोधन का समर्थन करने वाले सदस्यों की संख्या मतदान में भाग लेने वाले सदस्यों की दो-तिहाई होनी चाहिए। संशोधन को संसद के दोनों सदनों में पारित होना जरूरी होता माना गया है। उदाहरणत: किसी संशोधन विधेयक के पक्ष में लोकसभा के 545 सदस्यों में से 273 सदस्यों की आवश्यकता होती है। यदि मतदान के समय 300 सदस्य मौजूद हों तो विधेयक लाने के लिए 273 सदस्यों की जरूरी होगी। वे विषय जिसमें संशोधन के लिए विशेष बहुमत का प्रावधान है-केंद्र और राज्यों के मध्य शक्तियों का विभाजन, मौलिक अधिकारों के विषय में संशोधन आदि। संविधान संशोधन के लिए विशेष बहुमत का प्रावधान इसलिए किया गया है ताकि प्रस्तावित विधेयक पर जब तक सदस्यों यानी सत्तारूढ़ एवं विपक्षी दलों के मध्य पर्याप्त सहमति नहीं बन जाती, तब तक उसे पारित नहीं किया जा सकता। इसके लिए संविधान निर्माताओं की मंशा यह थी कि किसी भी संशोधन प्रस्ताव के पीछे अप्रत्यक्ष जनसमर्थन की भावना का सम्मान तथा राजनीतिक दलों तथा सांसदों की व्यापक भागीदारी को सुनिश्चित करना।

9. भारतीय संविधान में अनेक संशोधन न्यायपालिका और संसद की अलग-अलग व्याख्याओं का परिणाम रहे हैं। उदाहरण सहित व्याख्या करें।
उत्तर- संविधान की व्याख्या हमेशा से एक विवाद का विषय रहा है। अनेक संशोधनों की संसद तथा न्यायपालिका द्वारा भिन्न-भिन्न व्याख्या की जाती है। वास्तव में संविधान में संशोधन इसी मतभेद का परिणाम है। 1951 में किए गए पहले संविधान संशोधन के पीछे भी यही कारण था। संविधान की व्याख्या भिन्न-भिन्न जरिये से की जा रही थी और संविधान की अनेक प्रक्रियाओं की व्यवस्था भी लोगों द्वारा भिन्न-भिन्न तरीके से की जा रही थी।

10. अगर संशोधन की शक्ति जनता के निर्वाचित प्रतिनिधियों के हाथ में होती है तो न्यायपालिका को संशोधन की वैधता पर निर्णय लेने का अधिकार नहीं दिया जाना चाहिए। क्या आप इस बात से सहमत हैं? 100 शब्दों में व्याख्या करें।
उत्तर- संशोधन प्रक्रिया हमेशा से एक विरोधभास का मुद्दा रहा है। यह विधायिका तथा न्यायपालिका के मध्य परस्पर टकराव का मुद्दा रहा है। विधायिका के संशोधन के अधिकार के पक्ष में प्रायः यह तर्क दिया जाता है कि जब संशोधन जनता के निर्वाचित प्रतिनिधियों के माध्यम से किया जाता है, तो न्यायपालिका को इसमें हस्तक्षेप का अधिकार नहीं होना चाहिए। लेकिन इस तर्क से असहमति के कारण हैं उदाहरण के लिए 70 के दशक में होने वाले अनेक संशोधन वि शेषकर आपात्काल के दौरान किए गए अनेक संशोधन बहुत ही विवादास्पद रहे। इसके पीछे कारण यह था कि ये संशोधन प्रस्ताव (42वाँ, 38वाँ, 39वाँ) तब पारित किए जब अनेक विपक्षी नेता जेल में थे। इस प्रस्तावों के माध्यम से संविधान के मूल ढाँचे को ही बदल दिया गया। ऐसी स्थिति में यदि न्यायपालिका सक्रिय न होती तो विधायिका के तानाशाही व्यवहार पर नियंत्रण करना मुश्किल होता। जनप्रतिनिधियों के निरंकुश आचरण की वजह से जनता की अपूरणीय क्षति होती। न्यायपालिका का हस्तक्षेप सर्वथा उचित और न्यायसंगत है। इस तरह संशोधन प्रक्रिया में संतुलन बना रहता है।