भारत में राष्ट्रवाद - पुनरावृति नोट्स

 CBSE Class 10 सामाजिक विज्ञान

पुनरावृति नोट्स
पाठ-3
भारत में राष्ट्रवाद

प्रथम विश्व युद्ध

प्रथम विश्व युद्ध के प्रभाव: युद्ध के कारण रक्षा संबंधी खर्चे में बढ़ोतरी हुई थी। इसे पूरा करने के लिए कर्जे लिये गए और टैक्स बढ़ाए गए। अतिरिक्त राजस्व जुटाने के लिए कस्टम ड्यूटी और इनकम टैक्स को बढ़ाना पड़ा। युद्ध के वर्षों में चीजों की कीमतें बढ़ गईं। 1913 से 1918 के बीच दाम दोगुने हो गए। दाम बढ़ने से आम आदमी को अत्यधिक परेशानी हुई। ग्रामीण इलाकों से लोगों को जबरन सेना में भर्ती किए जाने से भी लोगों में बहुत गुस्सा था।

भारत के कई भागों में उपज खराब होने के कारण भोजन की कमी हो गई। इंफ्लूएंजा की महामारी ने समस्या को और गंभीर कर दिया। 1921 की जनगणना के अनुसार, अकाल और महामारी के कारण 120 लाख से 130 लाख तक लोग मारे गए।

सत्याग्रह का अर्थ: महात्मा गांधी ने सत्याग्रह के रूप में जनांदोलन का एक नायाब तरीका अपनाया। यह तरीका इस सिद्धांत पर आधारित था कि यदि कोई सही मकसद के लिए लड़ रहा हो तो उसे अपने ऊपर अत्याचार करने वाले से लड़ने के लिए ताकत की जरूरत नहीं होती है। गांधीजी का विश्वास था कि एक सत्याग्रही अहिंसा के द्वारा ही अपनी लड़ाई जीत सकता है।

रॉलैट ऐक्ट (1919):इंपीरियल लेगिस्लेटिव काउंसिल द्वारा 1919 में रॉलैट ऐक्ट को पारित किया गया था। भारतीय सदस्यों ने इसका समर्थन नहीं किया था, लेकिन फिर भी यह पारित हो गया था। इस ऐक़्ट ने सरकार को राजनैतिक गतिविधियों को कुचलने के लिए असीम शक्ति प्रदान किये थे। इसके तहत बिना ट्रायल के ही राजनैतिक कैदियों को दो साल तक बंदी बनाया जा सकता था।

6 अप्रैल 1919, को रॉलैट ऐक्ट के विरोध में गांधीजी ने राष्ट्रव्यापी आंदोलन की शुरुआत की। हड़ताल के आह्वान को भारी समर्थन प्राप्त हुआ। अलग-अलग शहरों में लोग इसके समर्थन में निकल पड़े, दुकानें बंद हो गईं और रेल कारखानों के मजदूर हड़ताल पर चले गये। अंग्रेजी हुकूमत ने राष्ट्रवादियों पर कठोर कदम उठाने का निर्णय लिया। कई स्थानीय नेताओं को बंदी बना लिया गया। महात्मा गांधी को दिल्ली में प्रवेश करने से रोका गया।

जलियांवाला बाग: 10 अप्रैल 1919 को अमृतसर में पुलिस ने शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाई। इसके कारण लोगों ने जगह-जगह पर सरकारी संस्थानों पर आक्रमण किया। अमृतसर में मार्शल लॉ लागू हो गया और इसकी कमान जेनरल डायर के हाथों में सौंप दी गई।

जलियांवाला बाग का दुखद नरसंहार 13 अप्रैल को उस दिन हुआ जिस दिन पंजाब में बैसाखी मनाई जा रही थी। ग्रामीणों का एक जत्था जलियांवाला बाग में लगे एक मेले में शरीक होने आया था। यह बाग चारों तरफ से बंद था और निकलने के रास्ते संकीर्ण थे। जेनरल डायर ने निकलने के रास्ते बंद करवा दिये और भीड़ पर गोली चलवा दी। इस दुर्घटना में सैंकड़ो लोग मारे गए। सरकार का रवैया बड़ा ही क्रूर था। इससे चारों तरफ हिंसा फैल गई। महात्मा गांधी ने आंदोलन को वापस ले लिया क्योंकि वे हिंसा नहीं चाहते थे।

आंदोलन के विस्तार की आवश्यकता: रॉलैट सत्याग्रह मुख्यतया शहरों तक ही सीमित था। महात्मा गांधी को लगा कि भारत में आंदोलन का विस्तार होना चाहिए। उनका मानना था कि ऐसा तभी हो सकता है जब हिंदू और मुसलमान एक मंच पर आ जाएँ।

खिलाफत आंदोलन: खिलाफत के मुद्दे ने गाँधीजी को एक अवसर दिया जिससे हिंदू और मुसलमानों को एक मंच पर लाया जा सकता था। प्रथम विश्व युद्ध में तुर्की की कराड़ी हार हुई थी। ऑटोमन के शासक पर एक कड़े संधि समझौते की अफवाह फैली हुई थी। ऑटोमन का शासक इस्लामी संप्रदाय का खलीफा भी हुआ करता था। खलीफा की तरफदारी के लिए बंबई में मार्च 1919 में एक खिलाफत कमेटी बनाई गई। मुहम्मद अली और शौकत अली नामक दो भाई इस कमेटी के नेता थे। वे भी यह चाहते थे कि महात्मा गाँधी इस मुद्दे पर जनांदोलन करें। 1920 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में खिलाफत के समर्थन में और स्वराज के लिए एक अवज्ञा आंदोलन की शुरुआत करने का प्रस्ताव पारित हुआ।

असहयोग आंदोलन : अपनी प्रसिद्ध पुस्तक स्वराज (1909) में महात्मा गाँधी ने लिखा कि भारत में अंग्रेजी राज इसलिए स्थापित हो पाया क्योंकि भारतीयों ने उनके साथ सहयोग किया और उसी सहयोग के कारण अंग्रेज हुकूमत करते रहे। यदि भारतीय सहयोग करना बंद कर दें, तो अंग्रेजी राज एक साल के अंदर चरमरा जायेगी और स्वराज आ जायेगा। गाँधीजी को विश्वास था कि यदि भारतीय लोग सहयोग करना बंद करने लगे, तो अंग्रेजों के पास भारत को छोड़कर चले जाने के अलावा और कोई चारा नहीं रहेगा।

असहयोग आंदोलन के कुछ प्रस्ताव:

  • अंग्रेजी सरकार द्वारा प्रदान की गई उपाधियों को वापस करना।
  • सिविल सर्विस, सेना, पुलिस, कोर्ट, लेजिस्लेटिव काउंसिल और स्कूलों का बहिष्कार।
  • विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार।
  • यदि सरकार अपनी दमनकारी नीतियों से बाज न आये, तो संपूर्ण अवज्ञा आंदोलन शुरु करना।

आंदोलन के विभिन्न स्वरूप: असहयोग-खिलाफत आंदोलन की शुरुआत जनवरी 1921 में हुई थी। इस आंदोलन में समाज के विभिन्न वर्गों ने शिरकत की थी और हर वर्ग की अपनी-अपनी महत्वाकांक्षाएँ थीं। सबने स्वराज के आह्वान का सम्मान किया था, लेकिन विभिन्न लोगों के लिए इसके विभिन्न अर्थ थे।

शहरों में आंदोलन:

  • शहरों में मध्य-वर्ग से आंदोलन में अच्छी भागीदारी हुई।
  • हजारों छात्रों ने सरकारी स्कूल और कॉलेज छोड़ दिए, शिक्षकों ने इस्तीफा दे दिया और वकीलों ने अपनी वकालत छोड़ दी।
  • मद्रास को छोड़कर अधिकांश राज्यों में काउंसिल के चुनावों का बहिष्कार किया गया। मद्रास की जस्टिस पार्टी में ऐसे लोग थे जो ब्राह्मण नहीं थे। उनके लिए काउंसिल के चुनाव एक ऐसा माध्यम थे जिससे उनके हाथ में कुछ सत्ता आ जाती; ऐसी सत्ता जिसपर केवल ब्राह्मणों का निय़ंत्रण था।
  • विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार हुआ, शराब की दुकानों का घेराव किया गया और विदेशी कपड़ों की होली जलाई गई। 1921 से 1922 तक विदेशी कपड़ों का आयात घटकर आधा हो गया। आयात 102 करोड़ रुपए से घटकर 57 करोड़ रह गया। विदेशी कपड़ों के बहिष्कार से भारत में बने कपड़ों की मांग बढ़ गई।

आंदोलन में सुस्ती आने के कारण:

  • मिल में बने कपड़ों की तुलना में खादी महँगी पड़ती थी। गरीब लोग खादी को खरीदने में समर्थ नहीं थे।
  • अंग्रेजी संस्थानों के बहिष्कार से विकल्प के तौर पर भारतीय संस्थानों की कमी की समस्या उत्पन्न हो गई। ऐसे संस्थान बहुत धीरे-धीरे पनप पा रहे थे। शिक्षक और छात्र दोबारा स्कूलों में जाने लगे। इसी तरह वकील भी अपने काम पर लौटने लगे।

गाँवों में विद्रोह: शहरों के बाद गाँवों में भी असहयोग आंदोलन फैलने लगा। भारत के विभिन्न भागों के किसान और आदिवासी भी इस आंदोलन में शामिल हो गए।

अवध: अवध में बाबा रामचंद्र ने किसान आंदोलन की अगुवाई की। वह एक सन्यासी थे जिन्होंने पहले बंधुआ मजदूर के तौर पर फिजी में काम किया था। तालुकदारों और जमींदारों से अधिक मालगुजारी मांगे जाने के विरोध में किसान उठ खडे हुए थे। किसानों की मांग थी कि मालगुजारी कम कर दी जाए, बेगार को समाप्त किया जाए और कठोर जमींदारों का सामाजिक बहिष्कार किया जाए।

जून 1920 से जवाहरलाल नेहरू ने गाँवों का दौरा करना शुरु कर दिया था। वह किसानों की समस्या समझना चाहते थे। अक्तूबर में अवध किसान सभा का गठन हुआ। इसकी अगुआई जवाहरलाल नेहरू, बाबा रामचंद्र और कुछ अन्य लोग कर रहे थे। अपने आप को किसानों के आंदोलन से जोड़कर, कांग्रेस अवध के आंदोलन को एक व्यापक असहयोग आंदोलन के साथ जोड़ने में सफल हो पाई थी। कई स्थानों पर लोगों ने महात्मा गाँधी का नाम लेकर लगान देना बंद कर दिया था।

आदिवासी किसान: महात्मा गाँधी के स्वराज का आदिवासी किसानों ने अपने ही ढ़ंग से मतलब निकाला था। आदिवासियों को जंगल में पशु चराने, वहाँ से फल और लकड़ियाँ इकट्ठा करने से रोका जाता था। जंगल से संबंधित नये कानून उनकी आजीविका के लिए खतरा साबित हो रहे थे। सरकार उन्हें सड़क निर्माण में बेगार करने के लिए बाधित करती थी।

आदिवासी क्षेत्रों से कई विद्रोही हिंसक हो गए और कई बार अंग्रेजी अफसरों के विरुद्ध गुरिल्ला युद्ध भी छेड़ दिया।

बागानों में स्वराज: इंडियन एमिग्रेशन ऐक्ट 1859 के अनुसार, चाय के बागानों में काम करने वाले मजदूरों को बिना अनुमति के बागान छोड़कर जाना मना था। जब असहयोग आंदोलन की खबर बागानों तक पहुँची, तो कई मजदूरों ने अधिकारियों की बात मानने से इंकार कर दिया। बागानों को छोड़कर वे अपने घरों की तरफ चल पड़े। लेकिन रेलवे और स्टीमर की हड़ताल के कारण वे बीच में ही फंस गए। पुलिस ने उन्हें पकड़ लिया और बुरी तरह पीटा।

कई विश्लेषकों का मानना है आंदोलन के सही मतलब को कांग्रेस द्वारा ठीक तरीके से नहीं समझाया गया था। विभिन्न लोगों ने अपने-अपने तरीके से इसका मतलब निकाला था। उनके लिए स्वराज का मतलब था उनकी हर समस्या का अंत। लेकिन समाज के विभिन्न वर्गों के लोगों ने गाँधी जी का नाम जपना शुरु कर दिया और स्वतंत्र भारत के नारे लगाने शुरु कर दिए। ऐसा कहा जा सकता है, कि वे अपनी समझ से परे उस विस्तृत आंदोलन से किसी न किसी रूप में जुड़ने की कोशिश कर रहे थे।

सविनय अवज्ञा आंदोलन: 1921 के अंत आते आते, कई जगहों पर आंदोलन हिंसक होने लगा था। फरवरी 1922 में गाँधीजी ने असहयोग आंदोलन को वापस लेने का निर्णय ले लिया। कांग्रेस के कुछ नेता भी जनांदोलन से थक से गए थे और राज्यों के काउंसिल के चुनावों में हिस्सा लेना चाहते थे। राज्य के काउंसिलों का गठन गवर्नमेंट ऑफ इंडिया ऐक्ट 1919 के तहत हुआ था। कई नेताओं का मानना था सिस्टम का भाग बनकर अंग्रेजी नीतियों विरोध करना भी महत्वपूर्ण था।

मोतीलाल नेहरू और सी आर दास जैसे पुराने नेताओं ने कांग्रेस के भीतर ही स्वराज पार्टी बनाई और काउंसिल की राजनीति में भागीदारी की वकालत करने लगे।

सुभाष चंद्र बोस और जवाहरलाल नेहरु जैसे नए नेता जनांदोलन और पूर्ण स्वराज के पक्ष में थे।

यह कांग्रेस में अंतर्द्वंद और अंतर्विरोध का एक काल था। इसी काल में ग्रेट डिप्रेशन का असर भी भारत में महसूस किया जाने लगा। 1926 से खाद्यान्नों की कीमत गिरने लगी। 1930 में कीमतें मुँह के बल गिरीं। ग्रेट डिप्रेशन के प्रभाव के कारण पूरे देश में तबाही का माहौल था।

साइमन कमीशन:अंग्रेजी सरकार ने सर जॉन साइमन की अध्यक्षता में एक वैधानिक कमीशन गठित किया। इस कमीशन को भारत में संवैधानिक सिस्टम के कार्य का मूल्यांकन करने और जरूरी बदलाव के सुझाव देने के लिए बनाया गया था। लेकिन चूँकि इस कमीशन में केवल अंग्रेज सदस्य ही थे, इसलिए भारतीय नेताओं ने इसका विरोध किया।

साइमन कमीश 1928 में भारत आया। ‘साइमन वापस जाओ’ के नारों के साथ इसका स्वागत हुआ। विद्रोह में सभी पार्टियाँ शामिल हुईं। अक्तूबर 1929 में लॉर्ड इरविन ने ‘डॉमिनियन स्टैटस’ की ओर इशारा किया था लेकिन इसकी समय सीमा नहीं बताई गई। उसने भविष्य के संविधान पर चर्चा करने के लिए एक गोलमेज सम्मेलन का न्योता भी दिया।

उग्र नेता कांग्रेस में प्रभावशाली होते जा रहे थे। वे अंग्रेजों के प्रस्ताव से संतुष्ट नहीं थे। नरम दल के नेता डॉमिनियन स्टैटस के पक्ष में थे, लेकिन कांग्रेस में उनका प्रभाव कम होता जा रहा था।

दिसंबर 1929 में जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में कांग्रेस का लाहौर अधिवेशन हुआ था। इसमें पूर्ण स्वराज के संकल्प को पारित किया गया। 26 जनवरी 1930 को स्वाधीनता दिवस घोषित किया गया और लोगों से आह्वान किया गया कि वे संपूर्ण स्वाधीनता के लिए संघर्ष करें। लेकिन इस कार्यक्रम को जनता का दबा दबा समर्थन ही प्राप्त हुआ।

फिर यह महात्मा गाँधी पर छोड़ दिया गया कि लोगों के दैनिक जीवन के ठोस मुद्दों के साथ स्वाधीनता जैसे अमूर्त मुद्दे को कैसे जोड़ा जाए।

दांडी मार्च: महात्मा गाँधी का विश्वास था कि पूरे देश को एक करने में नमक एक शक्तिशाली हथियार बन सकता था। अधिकांश लोगों ने; जिनमे अंग्रेज भी शामिल थे; इस सोच को हास्यास्पद करार दिया। गाँधीजी ने वायसरॉय इरविन को एक चिट्ठी लिखी जिसमें कई अन्य मांगों के साथ नमक कर को समाप्त करने की मांग भी रखी गई थी।

दांडी मार्च या नमक आंदोलन को गाँधीजी ने 12 मार्च 1930 को शुरु किया। उनके साथ 78 अनुयायी भी शामिल थे। उन्होंने 24 दिनों तक चलकर साबरमती से दांडी तक की 240 मील की दूरी तय की। कई अन्य लोग रास्ते में उनके साथ हो लिए। 6 अप्रैल 1930 को गाँधीजी ने मुट्ठी भर नमक उठाकर प्रतीकात्मक रूप से इस कानून को तोड़ा।

दांडी मार्च ने सविनय अवज्ञा आंदोलन की शुरुआत की। देश के विभिन्न भागों में हजारों लोगों ने नमक कानून को तोड़ा। लोगों ने सरकारी नमक कारखानों के सामने धरना प्रदर्शन किया। विदेशी कपड़ों का बहिष्कार किया गया। किसानों ने लगान देने से मना कर दिया। आदिवासियों ने जंगल संबंधी कानूनों का उल्लंघन किया।

अंग्रेजी शासन की प्रतिक्रिया : अंग्रेजी सरकार ने कांग्रेस के नेताओं को बंदी बनाना शुरु किया। इससे कई स्थानों पर हिंसक झड़पें हुईं। लगभग एक महीने बाद गाँधीजी को भी हिरासत में ले लिया गया। लोगों ने अंग्रेजी राज के प्रतीकों पर हमला करना शुरु कर दिया; जैसे पुलिस थाना, नगरपालिका भवन, कोर्ट और रेलवे स्टेशन। सरकार का रवैया बड़ा ही क्रूर था। यहाँ तक की महिलाओं और बच्चों को भी पीटा गया। लगभग एक लाख लोगों को हिरासत में लिया गया।

गोल मेज सम्मेलन :जब आंदोलन हिंसक रूप लेने लगा तो गाँधीजी ने इसे बंद कर दिया। उन्होंने 5 मार्च 1931 को इरविन के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किया। इसे गाँधी-इरविन पैक्ट कहा जाता है। इसके अनुसार, लंदन में होने वाले गोल मेज सम्मेलन में शामिल होने के लिए गाँधीजी तैयार हो गए। इसके बदले में सरकार राजनैतिक कैदियों को रिहा करने को मान गई।

गाँधीजी दिसंबर 1931 में लंदन गए। लेकिन वार्ता विफल हो गई और गाँधीजी को निराश होकर लौटना पड़ा।

जब गाँधीजी भारत लौटे, तो उन्होंने पाया कि अधिकांश नेता जेल में थे। कांग्रेस को गैरकानूनी घोषित कर दिया गया था। मीटिंग, धरना और प्रदर्शन को रोकने के लिए कई कदम उठाए गए थे। महात्मा गाँधी ने सविनय अवज्ञा आंदोलन को दोबारा शुरु किया। लेकिन 1934 आते-आते आंदोलन की हवा निकल गई थी।

आंदोलन के बारे में लोगों का मत

किसान: किसानों के लिए स्वराज की लड़ाई का मतलब था अधिक लगान के विरुद्ध लड़ाई। जब 1931 में लगान दरों में सुधार के बगैर ही आंदोलन बंद कर दिया गया तो किसान अत्यधिक निराश थे। जब 1932 में आंदोलन को दोबारा शुरु किया गया तो उनमें से अधिकांश ने इसमें भाग लेने से मना कर दिया। छोटे किसान तो यह चाहते थे कि बकाया लगान पूरी तरह से माफ हो जाए। वे अब समाजवादियों और कम्यूनिस्टों द्वारा चलाए जा रहे उग्र आंदोलनों में हिस्स लेने लगे। कांग्रेस धनी जमींदारों को नाराज नहीं करना चाहती थी, इसलिए कांग्रेस और गरीब किसानों के बीच के रिश्ते में कोई सुनिश्चितता नहीं थी।

व्यवसायी:दूसरे विश्व युद्ध के दौरान भारतीय व्यापारियों और उद्योगपतियों का व्यवसाय काफी बढ़ गया था। वे उन अंग्रेजी नीतियों के खिलाफ थे जो व्यवसाय में बाधा डाल रहे थे। वे आयात से सुरक्षा चाहते थे और रुपए और पाउंड का ऐसा विनिमय दर चाहते थे जिससे आयात को रोका जा सके। Indian Industrial and Commercial Congress की स्थापना 1920 में हुई और Federation of the Indian Chamber of Commerce and Industries (FICCI) का गठन 1927 में हुआ। यह व्यवसाय हितों को एक साझा मंच पर लाने के प्रयासों का परिणाम था। व्यापारियों के लिए स्वराज का मतलब था गलघोंटू अंग्रेजी नीतियों का अंत। वे ऐसा माहौल चाहते थे जिससे व्यवसाय फले फूले। आतंकी घटनाओं और कांग्रेस के युवा सदस्यों में समाजवाद के बढ़ते प्रभाव से वे चिंतित थे।

औद्योगिक मजदूर: कांग्रेस के सविनय अवज्ञा आंदोलन के प्रति औद्योगिक मजदूरों का रवैया ठंडा ही रहा। चूँकि उद्योगपति कांग्रेस के नजदीकी थे इसलिए मजदूरों ने इस आंदोलन से दूरी बनाए रखी। लेकिन कुछ मजदूर आंदोलन में शामिल हुए थे। कांग्रेस भी उद्योगपतियों को दरकिनार नहीं करना चाहती थी, इसलिए इसने मजदूरों की मांगों को अनसुना कर दिया।

महिलाओं की भागीदारी: सविनय अवज्ञा आंदोलन में महिलाओं ने भी बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया। लेकिन उनमें से अधिकांश शहरों में रह रही ऊँची जाति से थीं और ग्रामीण इलाकों के धनी घरों से थीं। लेकिन काफी लंबे समय तक कांग्रेस अपने संगठन में महिलाओं को जिम्मेदारी के पद देने से कतराती रही। कांग्रेस केवल महिलाओं की प्रतीकात्मक भागीदारी से ही संतुष्ट रहना चाहती थी।

सविनय अवज्ञा की सीमाएँ

दलितों की भागीदारी: शुरुआत में कांग्रेस ने दलितों पर ध्यान नहीं दिया, क्योंकि यह रुढ़िवादी सवर्ण हिंदुओं को नाराज नहीं करना चाहती थी। लेकिन महात्मा गाँधी का मानना था कि दलितों की स्थिति सुधारने के लिए सामाजिक सुधार आवश्यक थे। महात्मा गाँधी ने घोषणा की कि छुआछूत को समाप्त किए बगैर स्वराज की प्राप्ति नहीं हो सकती।

कई दलित नेता दलित समुदाय की समस्याओं का राजनैतिक समाधान चाहते थे। उन्होंने शैक्षिक संस्थानों में दलितों के लिए आरक्षण और दलितों के लिए पृथक चुनावी प्रक्रिया की मांग रखी। सविनय अवज्ञा आंदोलन में दलितों की भागीदारी सीमित ही रही।

डा. बी आर अंबेदकर ने 1930 में Depressed Classes Association का गठन किया। दूसरे गोल मेज सम्मेलन के दौरान, दलितों के लिए पृथक चुनाव प्रक्रिया के मुद्दे पर उनका गाँधीजी से टकराव भी हुआ था।

जब अंग्रेजी हुकूमत ने अंबेदकर की मांग मान ली तो गाँधीजी ने आमरण अनशन शुरु कर दिया। अंतत: अंबेदकर को गाँधीजी की बात माननी पड़ी। इसकी परिणति सितंबर 1932 में पूना पैक्ट पर हस्ताक्षर के रूप में हुई। इससे दलित वर्गों के लिए राज्य और केन्द्र के विधायिकाओं में आरक्षित सीट पर मुहर लगा दी गई। लेकिन मतदान आम जनता द्वारा किया जाना था।