अंतरा - ब्रजमोहन व्यास - पुनरावृति नोट्स

 CBSE Class 12 हिंदी ऐच्छिक

पुनरावृति नोट्स
पाठ-14 कच्चा चिट्ठा


पाठ-परिचय -
प्रस्तुत पाठ लेखक ब्रजमोहन व्यास की आत्मकथा ‘मेरा कच्चा चिट्ठा’ का एक अंश है।  व्यास जी की  सबसे  बड़ी  देन  इलाहाबाद  का  विशाल  और  प्रसिद्ध्  संग्रहालय  है।  इस  पाठ  में  उन्होने  इस  संग्रहालय के  लिए  बिना  किसी विशेष  व्यय  के,  अपने  श्रम  एवं  बौद्धिक  कौशल का  प्रयोग  करते  हुए  सामग्री एकत्रा  करने  का  विवरण  प्रस्तुत  किया  है।
स्मरणीय  बिन्दु

  • सन् 1936 के लगभग लेखक कौशाम्बी गया था। वहाँ से काम समाप्त कर वह पसोवा चला गया। पसोवा एक प्रसिद्ध जैन तीर्थ है। प्राचीन काल से वहाँ हर वर्ष जैनों का मेला लगता है। कहते  है  इसी स्थान पर एक छोटी  सी पहाड़ी की गुफा में बुद्ध्देव व्यायाम करते थे।  यह भी कहा जाता  है कि  इसी के पास  सम्राट अशोक ने एक  स्तूप बनवाया था  जिसमें बुद्ध् के थोड़े से केश और नखखंड रखे गए थे। अब यहाँ स्तूप और व्यायामशाला के  चिह्न नहीं है, परन्तु पहाड़ी अवश्य है।
  • लेखक  संग्रहालय  के  लिए  पुरातत्व  महत्व  की  सामग्री  की  खोज  में  लगा  रहता  था।  लेखक  कहता है  कि  वह  कहीं  भी  जाता  है  तो  छूँछे (खाली)  हाथ  नहीं  लौटता  है।  पसोवा  में  उसे  कापफी अच्छी  मिट्टी  की  मूर्तियाँ,  सिक्के  और  मनके  प्राप्त  हुए।  लेखक  इस  सामग्री  को  लेकर  कौशाम्बी लौट रहा था तो रास्ते में लगभग 20 सेर वजन की शिव की एक चतुर्म ुखी मूर्ति पेड़ के नीचे रखी  दिखाई  दी।  लेखक  का  मन  उसे  उठाने  के  लिए  ललचाने  लगा।  लेखक  अपनी  स्थिति  स्पष्ट करते  हुए  बताता  है  जैसे  किसी  बिल्ली  ने  चांद्रायण  का  उपवास  रखा  हो  और  उसके  सामने  स्वयं एक चूहा आ जाए तो ऐसी स्थिति में बिल्ली को चूहा खाने के कत्र्तव्य का पालन करना ही पड़ेगा।  बिल्ली का कत्र्तव्य है,  चूहे को अपना भोजन बनाना।  चूहे को सामने देखकर तो वह अपना  व्रत तोड़ने को विवश होगी ही, इसमें बिल्ली का  क्या दोष है? इसी प्रकार लेखक ने भी  अपना  कत्र्तव्यपालन  करते  हुए  मूर्ति  को  उठाकर  इक्के  पर  रख  लिया  और  लाकर  नगरपालिका के  संग्रहालय में  रखवा  दिया।
  • कुछ समय बाद गॉववालों को पता चला कि चतुर्मुख शिव की मूर्ति अपने स्थान से गायब है। उनका शक सीध लेखक पर गया क्योंकि लेखक मूर्तियाँ  उठाने के लिए पूरे  क्षेत्रा में प्रख्यात था। लेखक एक कहावत का हवाला देते  हुए कहता है कि जब अपना सोना ही खोटा हो तो परखने वाले का क्या दोष? कौशाम्बी मंडल  से कोई  भी मूर्ति गायब होने पर लोगों का शक सीध  लेखक पर  जाता  था और 95  प्रतिशत मामलों  में  उनका  संदेह  सही  भी निकलता  था।
  • सारे  गाँववाले  एकत्रा  होकर  लेखक  के  पास  पहुँच  गए।  उन्होनें  मूर्ति  लौटाने  की  प्रार्थना  की।  उनकी ममता  और ऋद्धा  देखकर  लेखक  ने  भगवान  शंकर  की  मूर्ति  उन्हें  लौटा  दी।
  • एक बार लेखक को कौशाम्बी में एक खेत की मेड़ पर बोध्सित्व की आठ पफुट लम्बी मूर्ति जिसका  सिर  नही  था  दिखाई  पड़ी।
  • वह मूर्ति मथुरा के लाल  पत्थर की बनी हुई  थी। लेखक जब पाँच-छह  लोगों के  साथ  मूर्ति उठाने  लगा  तो  एक  बुढ़िया  ने  उन्हें  रोक  दिया।  लेखक  बुढ़िया  को  दो  रूपये  देकर  मूर्ति  को संग्रहालय में ले आया।
  • एक  बार  एक  प्रफांसीसी  व्यक्ति  संग्रहालय  देखाने  आया।  बातों  ही  बातों  में पता  चला  कि  वह पुरातत्व वस्तुओं का व्यापारी  है। इसी संदर्भ में लेखक कहता  है कि कौवा और कोयल दोनों का  रंग-रूप एक  जैसा होता  है। परन्तु  बोली  से दोनों का  अंतर स्पष्ट होता  हैं।  इसी प्रकार  जब प्रफांसीसी  व्यक्ति  संग्रहालय  में  प्रदर्शित  वस्तुओं  का  मूल्य  आँकने  लगा  तो  पता  लगा  कि  वह  एक दर्शक नहीं व्यापारी है। प्रफांसीसी  डीलर ने लेखक  से कहा उसका  संग्रह बहुत कीमती  है, यदि उसकी कीमत  रूपयों में  बता दी जाए तो लेखक का ईमान  डगमगा सकता  है। लेखक  ने  उत्तर दिया कि ईमान  जैसी कोई वस्तु उसके पास है ही नहीं तो उसके डिगने का  सवाल ही नहीं उठता।  यदि  होता  तो  इतना  बड़ा  संग्रह  बिना  पैसा-कौड़ी  के  हो  ही  नहीं  सकता।  इस  प्रकार  लेखक अपने हल्के-पफुल्के अंदाज में उस डीलर को यह संकेत दे दिया कि - पहला, उसका संग्रह बिकाऊ नही  है।  दूसरा,  इस  संग्रह  के  लिए उसे  कई  बार  बेईमानी का  सहारा  भी  लेना  पड़ा, लेकिन  इसमें  उसका  कोई  व्यक्तिगत  स्वार्थ  नहीं  था।
  • फ्रांसीसी डीलर  ने  बोध्सित्व  की  मूर्ति  का  मूल्य  दस  हजार  लगाया।  लेखक  ने  मूर्ति  देने  से  इंकार कर दिया। यह मूर्ति बोध्सित्व की अब तक की सबसे प्राचीन मूर्ति यों में से थी। इस मूर्ति के पदस्थल पर यह उत्कीर्ण  था कि कुषाण सम्राट कनिष्क के  राज्यकाल  के दूसरे वर्ष स्थापित की गई  थी। इसके  बाद लेखक उत्साहपूर्वक मूर्ति यों की तलाश  में और अध्कि तेजी से जुट गया।
  • सन्  1938 के  लगभग  श्री  मजूमदार की  देखारेख  में  पुरातत्व  विभाग  कौशाम्बी  में  खुदाई कर  रहा था। गाँव हजियापुर में खुदाई के दौरान भद्रमथ का एक भारी शिलालेख  मिला। श्री मजूमदार उसे  उठवा ले  जाना  चाहते  थे। गाँव  के  जमींदार गुलजार  मियाँ उस  शिलालेख को  संग्रहालय के  लिए व्यास जी को देना  चाहते  थे। परंतु अन्ततः  दिल्ली से दीक्षित साहब के  हस्तक्षेप के बाद  गुलज़ार  मियाँ  को वह  शिलालेख  मजूमदार  जी को  ही सौंपना  पड़ा।
  • लेखक ने सोचा  जिस गाँव में भद्रमथ  शिलालेख हो सकता  है वहाँ और भी शिलालेख  होंगे, इसलिए वह हजियापुर गाँव पहुँचा।  वहाँ गुलजार  मियाँ के  घर के सामने एक कुँआ था। उस पर अठपहल पत्थर की बँडेर थी जिस पर एक  सिरे  से लेकर दूसरे  सिरे तक ब्राह्मी अक्षरों में  लेखा  था।  गुलजार  मियाँ  ने   तुरन्त  लेखाक  को  वह  बँडेर  सौंप  दी।  इस  प्रकार  भद्रमथ  के   शिलालेख की क्षतिपूर्ति हो गई।
  • अपने  आध्किारिक  दौरों  के  दौरान  भी  लेखक  संग्रहालय  के  लिए  ऐतिहासिक  महत्व  की  वस्तुओं के  संग्रह में लगा रहता था। सामग्री की अध्किता के  कारण संग्रहालय के  लिए नए भवन का निर्माण किया गया।
  • लेखक कच्चे  चिट्ठे के समापन  से पहले  अपने  सहयोगियों का  आभार प्रकट करता  है,  जिनके नाम  इस  प्रकार  है  -  राय  बहादुर कामता  प्रसाद  कक्कड़  (तत्कालीन  चेयरमैन)  हिज  हाइनेस श्री महेन्द्र सिंहजू देव नागौद नरेश, उनके दीवान लाल भार्गवेन्द्र सिंह तथा लेखक का अर्दली जगदेव। 
  • लेखक  स्वयं  को  निमित  मात्रा  मानता  है  तथा  संग्रहालय  का  का र्यभार  सुयोग्य  संरक्षक  डा.  सतीशचन्द्र काला  के  हाथों  सौपकर सन्यास  ले  लेता  है।