अपठित गद्यांश - महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर

 सीबीएसई कक्षा -12 हिंदी कोर

महत्वपूर्ण प्रश्न
अपठित गद्यांश-बोध


अपठित गद्यांश का नमूना- निर्धारित अंक:

1. मैं जिस समाज की कल्पना करता हूँ, उसमें गृहस्थ संन्यासी और संन्यासी गृहस्थ होंगे अर्थात संन्यास और गृहस्थ के बीच वह दूरी नहीं रहेगी जो परंपरा से चलती आ रही है। संन्यासी उत्तम कोटि का मनुष्य होता है, क्योंकि उसमें संचय की वृत्ति नहीं होती, लोभ और स्वार्थ नहीं होता। यही गुण गृहस्थ में भी होना चाहिए। संन्यासी भी वही श्रेष्ठ है जो समाज के लिए कुछ काम करे। ज्ञान और कर्म को भिन्न करोगे तो समाज में विषमता उत्पन्न होगी ही मुख में कविता और करघे पर हाथ, यह आदर्श मुझे पसंद था। इसी की शिक्षा में दूसरों को भी देता हूँ और तुमने सुना है या नहीं की नानक ने एक अमीर लड़के के हाथ से पानी पीना अस्वीकार कर दिया था। लोगों ने कहा- ‘गुरु जी यह लड़का तो अत्यंत संभ्रांत कुल का है, इसके हाथ का पानी पीने में क्या दोष है?” नानक बोले- ‘तलहत्थी में मेहनत के निशान नहीं हैं। जिसके हाथ में मेहनत के ठेले पड़े नहीं होते उसके हाथ का पानी पीने में मैं दोष मानता हूँ।” नानक ठीक थे। श्रेष्ठ समाज वह है, जिसके सदस्य जी खोलकर मेहनत करते हैं और तब भी जरूरत से जयादा धन पर अधिकार जमाने की उनकी इच्छा नहीं होती।

प्रश्न- (क) ‘गृहस्थ संन्यासी और संन्यासी गृहस्थ होंगे ’ से लेखक का क्या आशय है ?

(ख) संन्यासी को उतम कोटि का मनुष्य कहा गया है , क्यों ?

(ग) श्रेष्ठ समाज के क्या लक्षण बताए गए हैं ?

(घ) नानक ने अमीर लड़के के हाथ से पानी पीना क्यों अस्वीकार किया ?

(ङ) ‘मुख में कविता और करघे पर हाथ- यह उक्ति किसके लिए प्रयोग की गई है और क्यों ?

(च) श्रेष्ठ संन्यासी के क्या गुण बताए गए हैं ?

(छ) समाज में विषमता से आप क्या समझते हैं और यह कब उत्पन्न होती है ?

(ज) संन्यासी शब्द का संधि-विच्छेद कीजिए।

(झ) विषमता शब्द का विलोम लिख कर उसमें प्रयुक्त प्रत्यय अलग कीजिए।

(ञ) गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।

उत्तर- (क) गृहस्थ जन संन्यासियों की भाँति धन-संग्रह और मोह से मुक्त रहें तथा संन्यासी जन गृहस्थों की भाँति सामाजिक कर्मों में सहयोग करें, निठल्ले न रहें।

(ख) संन्यासी लोभ, स्वार्थ और संचय से अलग रहता है।

(ग) श्रेष्ठ समाज के सदस्य भरपूर परिश्रम करते हैं तथा आवश्यकता से अधिक धन पर अपना अधिकार नहीं जमाते।

(घ) अमीर लड़के के हाथों में मेहनतकश के हाथों की तरह मेहनत करने के निशान नहीं थे और नानक मेहनत करना अनिवार्य मानते थे।

(ङ) “मुख में कविता और करघे में हाथ” कबीर के लिए कहा गया है। क्योंकि उसके घर में जुलाहे का कार्य होता था और कविता करना उनका स्वभाव था।

(च) श्रेष्ठ संन्यासी समाज के लिए भी कार्य करता है।

(छ) समाज में जब ज्ञान और कर्म को भिन्न मानकर आचरण किए जाते हैं तब उस समाज में विषमता मान ली जाती है। ज्ञान और कर्म को अलग करने पर ही समाज में विषमता फैलती है।

(ज) सम् + न्यासी

(झ) विषमता – समता, ‘ता’ प्रत्यय

(ञ) संन्यास-गृहस्थ


2. वैदिक युग भारत का प्रायः सबसे अधिक स्वाभाविक काल था। यही कारण हैं कि आज तक भारत का मन उस काल की ओर बार-बार लोभ से देखता है। वैदिक आर्य अपने युग को स्वर्णकाल कहते थे या नहीं, यह हम नहीं जानते; किंतु उनका समय हमें स्वर्णकाल के समान अवश्य दिखाई देता हैं। लेकिन जब बौद्ध युग का आरंभ हुआ, वैदिक समाज की पोल खुलने लगी और चिंतकों के बीच उसकी आलोचना आरंभ हो गई। बौद्ध युग अनेक दृष्टियों से आज के आधुनिक आंदोलन के समान था। ब्राहमणों की श्रेष्ठता के विरुद्ध बुद्ध ने विद्रोह का प्रचार किया था, बुद्ध जाति-प्रथा के विरोधी थे और वे मनुष्य को जन्मना नहीं, कर्मणा श्रेष्ठ या अधम मानते थे। नारियों की भिक्षुणी होने का अधिकार देकर उन्होंने यह बताया था कि मोक्ष केवल पुरुषों के ही निमित्त नहीं है, उसकी अधिकारिणी नारियाँ भी हो सकती हैं। बुद्ध की ये सारी बातें भारत को याद रही हैं और बुद्ध के समय से बराबर इस देश में ऐसे लोग उत्पन्न होते रहे हैं, जो जाति-प्रथा के विरोधी थे, जो मनुष्य को जन्मना नहीं, कर्मणा श्रेष्ठ या अधम समझते थे। किंतु बुद्ध में आधुनिकता से बेमेल बात यह थी कि वे निवृत्तिवादी थे, गृहस्थी के कर्म से वे भिक्षु-धर्म को श्रेष्ठ समझते थे। उनकी प्रेरणा से देश के हज़ारों-लाखों युवक जो उत्पादन बढ़ाकर समाज का भरण-पोषण करने के लायक थे, संन्यासी हो गए। संन्यास की संस्था समाज-विरोधिनी संस्था है।

प्रश्न- (क) वैदिक युग स्वर्णकाल के समान क्यों प्रतीत होता है ?

(ख) जाति प्रथा एवं नारियों के विषय में बुद्ध के विचारों को स्पष्ट कीजिए।

(ग) बुद्ध पर क्या आरोप लगता है और उनकी कौन-सी बात आधुनिकता के प्रसंग में ठीक नहीं बैठती ?

(घ) संन्यास का अर्थ स्पष्ट करते हुए यह बताइए कि इससे समाज को दया हानि पहुँचती है?

(ङ) बौद्ध युग का उदय वैदिक समाज के शीर्ष पर बैठे लोगों के लिए किस प्रकार हानिकारक था?

(च) बौद्ध धर्म ने नारियों को समता का अधिकार दिलाने में किसे प्रकार से योगदान दिया?

(छ) निर्देशानुसार उत्तर दीजिए-

(i) उपसर्ग और मूल शब्द अलग-अलग करके लिखिए-

विद्रोह , संन्यास

(ii) प्रत्यय और मूल शब्द अलग-अलग करके लिखिए-

आधुनिकता , विरोधी

(ज) प्रस्तुत गद्यांश के लिए एक उपयुक्त शीर्षक दीजिए।

उत्तर- (क) वैदिक युग भारत का स्वाभाविक काल था। हमें प्राचीन काल की हर चीज अच्छी लगती

है। इस कारण वैदिक युग स्वर्णकाल के समान प्रतीत होता है।

(ख) बुद्ध जाति-प्रथा के विरुद्ध थे। उन्होंने ब्राह्मणों की श्रेष्ठता का विरोध किया। वे कर्म के अनुसार मनुष्य को श्रेष्ठ या अधम मानते थे। उन्होंने नारी को मोक्ष का अधिकारी माना।

(ग) बुद्ध पर निवृत्तिवादी होने का आरोप लगता है। उनकी गृहस्थ धर्म को भिक्षु धर्म से निकृष्ट मानने वाली बात आधुनिकता के प्रसंग में ठीक नहीं बैठती।

(घ) ‘सन्यास’ शब्द ‘सम् + न्यास’ शब्द से मिलकर बना है। ‘सम्’ यानी ‘अच्छी तरह से’ और ‘न्यास’ के लिए हथियार साबित हुए। इन सिद्धांतों के सामने तत्कालीन समाज के शीर्ष पर बैठे लोगों के सिद्धांत अविश्वसनीय प्रतीत होने लगे। फलतः बौद्ध युग का उदय उनके लिए हानिकारक साबित हुआ।

(च) वैदिक युग में नारियों को मोक्ष की अधिकारिणी नहीं माना जाता था। इस सिद्धांत को बुद्ध ने नारियों के समता के अधिकार में सबसे बड़ा रोड़ा समझा। अतः उन्होंने बोद्ध धर्म के अंतर्गत नारियों को भिक्षुणी होने का अधिकार देकर यह सिद्ध किया कि मोक्ष केवल पुरुषों के ही निमित्त नहीं है। इस पर नारियों का भी हक है। यह नारियों को समता का अधिकार दिलाने में काफी प्रभावी कदम साबित हुआ।

(छ) (i) उपसर्ग– वि, सम्

मूल शब्द- द्रोह, न्यास

(ii) प्रत्यय- ता, ई

मूल शब्द- आधुनिक, विरोध

(ज) शीर्षक- बुद्ध की विचारधारा की प्रासंगिकता।


3. संस्कृतियों के निर्माण में एक सीमा तक देश और जाति का योगदान रहता है। संस्कृति के मूल उपादान तो प्रायः सभी सुसंस्कृत और सभ्य देशों में एक सीमा तक समान रहते हैं, किंतु बाह्य उपादानों में अंतर अवश्य आता है। राष्ट्रीय या जातीय संस्कृति का सबसे बड़ा योगदान यही है कि वह हमें अपने राष्ट्र की परंपरा से संपृक्त बनाती है, अपनी रीति-नीति की संपदा से विच्छिन्न नहीं होने देती। आज के युग में राष्ट्रीय एवं जातीय संस्कृतियों के मिलन के अवसर अति सुलभ हो गए हैं, संस्कृतियों का पारस्परिक संघर्ष भी शुरू हो गया है। कुछ ऐसे विदेशी प्रभाव हमारे देश पर पड़ रहे हैं, जिनके आतंक ने हमें स्वयं अपनी संस्कृति के प्रति संशयालु बना दिया है। हमारी आस्था डिगने लगी है। यह हमारी वैचारिक दुर्बलता का फल हैं। अपनी संस्कृति को छोड़, विदेशी संस्कृति के विवेकहीन अनुकरण से हमारे राष्ट्रीय गौरव को जो ठेस पहुँच रही है, वह किसी राष्ट्रप्रेमी जागरूक व्यक्ति से छिपी नहीं हैं। भारतीय संस्कृति में त्याग और ग्रहण की अद्भुत क्षमता रही है। अतः आज के वैज्ञानिक युग में हम किसी भी विदेशी संस्कृति के जीवंत तत्वों को ग्रहण करने में पीछे नहीं रहना चाहेंगे, किंतु अपनी सांस्कृतिक निधि की उपेक्षा करके नहीं। यह परावलंबन राष्ट्र की गरिमा के अनुरूप नहीं है। यह स्मरण रखना चाहिए कि सूर्य की आलोकप्रदायिनी किरणों से पौधे को चाहे जितनी जीवनशक्ति मिले, किंतु अपनी ज़मीन और अपनी जड़ों के बिना कोई पौधा जीवित नहीं रह सकता। अविवेकी अनुकरण अज्ञान का ही पर्याय है।

प्रश्न- (क) आधुनिक युग में संस्कृतियों में परस्पर संघर्ष प्रारंभ होने का प्रमुख कारण बताइए।

(ख) हम अपनी संस्कृति के प्रति शंकालु क्यों हो गए हैं ?

(ग) राष्ट्रीय संस्कृति की हमारे प्रति सबसे बड़ी देन क्या है?

(घ) हम अपनी सांस्कृतिक संपदा की उपेक्षा क्यों नहीं कर सकते?

(ङ) उपर्युक्त गद्यांश के लिए एक उपयुक्त शीर्षक दीजिए।

(च) हम विदेशी संस्कृति से क्या ग्रहण कर सकते हैं तथा क्यों ?

(छ) निर्देशानुसार उत्तर दीजिए—

प्रत्यय बताइए- जातीय , सांस्कृतिक।

पर्यायवाची बताइए-देश , सूर्य।

(ज) गद्यांश में युवाओं के किस कार्य को राष्ट्र की गरिमा के अनुकूल नहीं माना गया है तथा उन्हें क्या संदेश दिया गया है?

उत्तर- (क) आधुनिक युग में संस्कृतियों में परस्पर संघर्ष प्रारंभ होने का प्रमुख कारण यह है कि भिन्न संस्कृतियों के निकट आने के कारण अतिक्रमण एवं विरोध स्वाभाविक हैं।

(ख) हम अपनी संस्कृति के प्रति शंकालु इसलिए हो गए हैं, क्योंकि नई पीढ़ी ने विदेशी संस्कृति के कुछ तत्वों को स्वीकार करना प्रारंभ कर दिया है।

(ग) राष्ट्रीय संस्कृति की हमारे प्रति सबसे बड़ी देन यही है कि वह हमें अपने राष्ट्र की परंपरा और रीति-नीति से जोड़े रखती है।

(घ) हम अपनी सांस्कृतिक संपदा की उपेक्षा नहीं कर सकते, क्योंकि ऐसा करने से हम जड़विहीन पौधे के समान हो जाएँगे।

(ङ) शीर्षक- भारतीय संस्कृति का वैचारिक संघर्ष।

(च) हम विदेशी संस्कृति के जीवंत तत्वों को ग्रहण कर सकते हैं, क्योंकि भारतीय संस्कृति में त्याग व ग्रहण की अद्भुत क्षमता रही है।

(छ) प्रत्यय-ईय, इक

पर्यायवाचीदेश- राष्ट्र, राज्य। सूर्य- रवि, सूरज।

(ज) गद्यांश में युवाओं द्वारा विदेशी संस्कृति का अविवेकपूर्ण अंधानुकरण करना राष्ट्र की गरिमा के अनुकूल नहीं माना गया है। साथ-साथ युवाओं के लिए संदेश यह है कि उन्हें भारतीय संस्कृति की अवहेलना कर विदेशी संस्कृति का अंधानुकरण नहीं करना चाहिए।


4. जाति-प्रथा को यदि श्रम-विभाजन मान लिया जाए, तो यह स्वाभाविक विभाजन नहीं है, क्योंकि यह मनुष्य की रुचि पर आधारित है। कुशल व्यक्ति या सक्षम श्रमिक-समाज का निर्माण करने के लिए यह आवश्यक है कि हम व्यक्तियों की क्षमता इस सीमा तक विकसित करें, जिससे वह अपना पेशा या कार्य का चुनाव स्वयं कर सके। इस सिद्धांत के विपरीत जाति-प्रथा का दूषित सिद्धांत यह है कि इससे मनुष्य के प्रशिक्षण अथवा उसकी निजी क्षमता का विचार किए बिना, दूसरे ही दृष्टिकोण जैसे माता-पिता के सामाजिक स्तर के अनुसार पहले से ही अर्थात् गर्भधारण के समय से ही मनुष्य का पेशा निर्धारित कर दिया जाता है।

जाति-प्रथा पेशे का दोषपूर्ण पूर्व निर्धारण ही नहीं करती, बल्कि मनुष्य को जीवन-भर के लिए एक पेशे में बाँध भी देती है, भले ही पेशा अनुपयुक्त या अपर्याप्त होने के कारण वह भूखों मर जाए। आधुनिक युग में यह स्थिति प्रायः आती है, क्योंकि उद्योग-धंधे की प्रक्रिया व तकनीक में निरंतर विकास और कभी-कभी अकस्मात परिवर्तन हो जाता है, जिसके कारण मनुष्य को अपना पेशा बदलने की आवश्यकता पड़ सकती है और यदि प्रतिकूल परिस्थितियों में भी मनुष्य को अपना पेशा बदलने की स्वतंत्रता न हो, तो इसके लिए भूखों मरने के अलावा क्या चारा रह जाता है? हिंदू धर्म की जाति-प्रथा किसी भी व्यक्ति को ऐसा पेशा चुनने की अनुमति नहीं देती हैं, जो उसका पैतृक पेशा न हों, भले ही वह उसमें पारंगत है। इस प्रकार पेशा-परिवर्तन की अनुमति न देकर जाति-प्रथा भारत में बेरोजगारी का एक प्रमुख व प्रत्यक्ष कारण बनी हुई है।

प्रश्न- (क) कुशल श्रमिक-समाज का निर्माण करने के लिए क्या आवश्यक हैं ?

(ख) जाति-प्रथा के सिद्धांत को दूषित क्यों कहा गया है ?

(ग) “जाति-प्रथा पेशे का न केवल दोषपूर्ण पूर्वनिर्धारण करती हैं , बल्कि मनुष्य को जीवनभर के लिए एक पेशे से बाँध देती है”-कथन पर उदाहरण-सहित टिप्पणी कीजिए।

(घ) भारत में जाति-प्रथा बेरोजगारी का एक प्रमुख कारण किस प्रकार बन जाती है ?

(ङ) जाति-प्रथा के दोषपूर्ण पक्ष कौन-कौन से है ?

(च) जाति प्रथा बेरोजगारी का कारण कैसे बन जाती है ?

(छ) निर्देशानुसार उत्तर दीजिए—

(i) ‘इक’ और ‘इत’ प्रत्ययों से बने शब्द गद्यांश में से छाँटकर लिखिए।

(ii) समस्तपदों का विग्रह और समास का नाम लिखिए-

श्रम-विभाजन, माता-पिता

(ज) उपर्युक्त गद्यांश का एक उपयुक्त शीर्षक दीजिए।

उत्तर- (क) कुशल या सक्षम श्रमिक-समाज़ का निर्माण करने के लिए आवश्यक हैं कि हम जातीय जड़ता को त्यागकर प्रत्येक व्यक्ति को इस सीमा तक विकसित एवं स्वतंत्र करें, जिससे वह अपनी कुशलता के अनुसार कार्य का चुनाव स्वयं करे। यदि श्रमिकों को मनचाहा कार्य मिले, तो कुशल श्रमिक-समाज का निर्माण स्वाभाविक हैं।

(ख) जाति प्रथा का सिद्धांत इसलिए दूषित कहा गया है, क्योंकि वह व्यक्ति की क्षमता या रुचि के अनुसार उसके चुनाव पर अधारित नहीं है। वह पूरी तरह माता-पिता की जाति पर ही अवलंबित और निर्भर है।

(ग) जाति-प्रथा व्यक्ति की क्षमता, रुचि और इसके चुनाव पर निर्भर न होकर गर्भाधान के समय से ही, व्यक्ति की जाति का पूर्व निर्धारण कर देती है, जैसे-धोबी, कुम्हार, सुनार आदि।

(घ) उद्योग-धंधों की प्रक्रिया और तकनीक में निरंतर विकास और परिवर्तन हो रहा है, जिसके कारण व्यक्ति को अपना पेशा बदलने की जरूरत पड़ सकती हैं। यदि वह ऐसा न कर पाए, तो उसके लिए भूखें मरने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं रह पाता।

(ङ) जाति-प्रथा के दोषपूर्ण पक्ष निम्नलिखित हैं-

- पेशे का दोषपूर्ण निर्धारण।

- अक्षम श्रमिक-समाज का निर्माण।

– देश-काल की परिस्थिति के अनुसार पेशा-परिवर्तन पर रोक।

(च) जाति-प्रथा बेरोजगारी का कारण तब बन जाती है, जब परंपरागत ढंग से किसी जाति विशेष के द्वारा बनाए जा रहे उत्पाद को आज के औद्योगिक युग में नई तकनीक द्वारा बड़े पैमाने पर तैयार किया जाने लगता है। ऐसे में उस जाति विशेष के लोग नई तकनीक के मुकाबले टिक नहीं पाते हैं। उनका परंपरागत पेशा छिन जाता है। फिर भी उन्हें जाति-प्रथा पेशा बदलने की अनुमति नहीं देती। ऐसे में बेरोजगारी का बढ़ना स्वाभाविक है।

(छ) (i) प्रत्यय- इक, इत प्रत्यययुक्त शब्द- स्वाभाविक, आधारित

(ii)

समस्तपद

समास-विग्रह

समास का नाम

श्रम-विभाजन

श्रम का विभाजन

तत्पुरुष समास

माता-पिता

माता और पिता

द्वंद्व समास


5. विद्वानों का यह कथन बहुत ठीक है कि विनम्रता के बिना स्वतंत्रता का कोई अर्थ नहीं। इस बात को सब लोग मानते हैं कि आत्मसंस्कार के लिए थोड़ी-बहुत मानसिक स्वतंत्रता परमावश्यक है चाहे उस स्वतंत्रता में अभिमान और नम्रता दोनों का मेल हो और चाहे वह नम्रता ही से उत्पन्न हो। यह बात तो निश्चित है कि जो मनुष्य मर्यादापूर्वक जीवन व्यतीत करना चाहता है, उसके लिए वह गुण अनिवार्य है, जिससे आत्मनिर्भरता आती है और जिससे अपने पैरों के बल खड़ा होना आता है। युवा को यह सदा स्मरण रखना चाहिए कि वह बहुत कम बातें जानता है, अपने ही आदर्श से वह बहुत नीचे है और उसकी आकांक्षाएँ उसकी योग्यता से कहीं बढ़ी हुई हैं। उसे इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वह अपने बड़ों का सम्मान करे, छोटों और बराबर वालों से कोमलता का व्यवहार करें, ये बातें आत्ममर्यादा के लिए आवश्यक हैं। यह सारा संसार, जो कुछ हम हैं और जो कुछ हमारा है-हमारा शरीर, हमारी आत्मा, हमारे भोग, हमारे घर और बाहर की दशा, हमारे बहुत से अवगुण और थोड़े गुण सब इसी बात की आवश्यकता प्रकट करते हैं कि हमें अपनी आत्मा को नम्र रखना चाहिए नम्रता से मेंरा अभिप्राय दब्बूपन से नहीं है, जिसके कारण मनुष्य दूसरों का मुँह ताकता है जिससे उसका संकल्प क्षीण और उसकी प्रज्ञा मंद हो जाती है; जिसके कारण वह आगे बढ़ने के समय भी पीछे रहता है और अवसर पड़ने पर चट-पट किसी बात का निर्णय नहीं कर सकता। मनुष्य का बेड़ा उसके अपने ही हाथ में है, उसे वह चाहे जिधर ले जाए। सच्ची आत्मा वही हैं, जो प्रत्येक दशा में, प्रत्येक स्थिति के बीच अपनी राह आप निकालती हैं।

प्रश्न- (क) ‘विनम्रता के बिन स्वतंत्रता का कोई अर्थ नहीं।’ इस कथन का आशय स्पष्ट कीजिए।

(ख) मर्यादापूर्वक जीने के लिए किन गुणों का होना आनिवार्य है और क्यों?

(ग) नम्रता और दब्बूपन में क्या अंतर हैं ?

(घ) दब्बूपन व्यक्ति के विकास में किस प्रकार बाधक होता है ? स्पष्ट कीजिए।

(ङ) उपर्युक्त गद्यांश का एक उपयुक्त शीर्षक दीजिए।

(च) आत्ममर्यादा के लिए कौन-सी बातें आवश्यक हैं ? इससे व्यक्ति को क्या लाभ होता है ?

(छ) आत्मा को नम्र रखने की आवश्यकता किनकी किनकी होती है ?

(ज) निर्देशानुसार उत्तर दीजिए—

(i) नम्रता , अनिवार्य का विलोम लिखिए।

(ii) ‘अभिमान’ और ‘संकल्प’ में प्रयुक्त उपसर्ग एवं मूल शब्द लिखिए।

उत्तर- (क) किसी भी व्यक्ति में स्वतंत्रता का भाव आते ही उसके मन में अहंकार आ जाता है। इस अहंकार के कारण वह अपनी मनुष्यता खो बैठता है। इससे व्यक्ति के आचरण में इतना बदलाव आ जाता है कि वह दूसरों को खुद से हीन समझने लगता है। ऐसे में स्वतंत्रता के साथ विनम्रता का होना आवश्यक हैं, अन्यथा स्वतंत्रता अर्थहीन हो जाएगी।

(ख) मर्यादापूर्वक जीवन जीने के लिए मानसिक स्वतंत्रता आवश्यक है। इस स्वतंत्रता के साथ नम्रता का मेल होना आवश्यक हैं। इससे व्यक्ति में आत्मनिर्भरता आती है। आत्मनिर्भरता के कारण वह परमुखापेक्षी नहीं रहता है। उसे अपने पैरों पर खड़ा होने की कला आ जाती है।

(ग) दब्बूपन में व्यक्ति का संकल्प व बुद्धि क्षीण होती है, वह त्वरित निर्णय नहीं ले सकता। वह अपने छोटे छोटे कार्यों तथा निर्णय लेने के लिए दूसरों पर निर्भर रहता है। इसके विपरीत नम्रता में व्यक्ति स्वतंत्र होता है। वह नेतृत्व करने वाला होता है। वह अपने निर्णय खुद लेता है और दूसरे का मुँह देखने के लिए विवश नहीं होता है।

(घ) दब्बूपन व्यक्ति के विकास में बाधक होता है क्योंकि इसके कारण मनुष्य दूसरे का मुँह ताकता है। वह निर्णय नहीं ले पाता। वह अपने संकल्प पर स्थिर नहीं रह पाता है। उसकी बुद्धि कमजोर हो जाती है। इससे मनुष्य आगे बढ़ने की बजाय पीछे रह जाता है।

(ङ) शीर्षक- विनम्रता का महत्व।

(च) आत्ममर्यादा के लिए अपने बड़ो का सम्मान करना, छोटों और बराबर वालों से कोमलता का व्यवहार करना आवश्यक है। इससे व्यक्ति को यह लाभ होता है कि वह आत्मसंस्कारित होता हैं, विनम्र और मर्यादित जीवन जीता हैं तथा उसे अपने पैरों पर खड़े होने में मदद मिलती हैं।

(छ) आत्मा को नम्र रखने की आवश्यकता इस सारे संसार के लिए, जो कुछ हम हैं और जो कुछ हमारा है, आदि से में प्रकट करते हैं। अर्थात् हमारा शरीर, हमारी आत्मा, हम जो कुछ खाते-पीते हैं, हमारे घर और बाहर की दशा, हमारे बहुत से अवगुण यहाँ तक कि कुछ गुण भी आत्मा की नम्र रखने की आवश्यकता प्रकट करते हैं।

(ज) (i) शब्द विलोम

नम्रता उद्दंडता

अनिवार्य ऐच्छिक

(ii)शब्द उपसर्ग मूलशब्द

अभिमान अभि मान

संकल्प सम् कल्प


6. तुलसी जैसा कवि काव्य की विशुद्ध, मनोमयी, कल्पना-प्रवण तथा शृंगारात्मक भावभूमियों के प्रति उत्साही नहीं हो सकता। उनका संत-हृदय परम कारुणिक राम के प्रति ही उन्मुख हो सकता है, जो जीवन के धर्ममय सौंदर्य, मर्यादापूर्ण शील और आत्मिक शौर्य के प्रतीक हैं। विजय-रथ के रूपक में उन्होंने संत जीवन की रूपरेखा उभारी हैं और अपनी रामकथा को इसी संतत्व की चरितार्थता बना दिया है। उनका काव्य भारतीय जीवन की सबसे बड़ी आकांक्षा मर्यादित जीवन-चर्या अथवा ‘संत-रहनि’ को वाणी देता है। धर्ममय जीवन की आकांक्षा भारतीय संस्कृति का वैशिष्ठ्य है। तुलसी के काव्य में धर्म का अनाविल, अनावरण और अक्षुण्ण रूप ही प्रकट हुआ है। मध्ययुग की आध्यात्मिकता का प्रतिनिधित्व करते हुए भी उनका काव्य भारतीय आत्मा के चिरंतन सौंदर्य का प्रतिनिधि है, जो सत्य, तप, करुणा और मैत्री में ही आरोहण के देवधर्मी मूल्यों को अनावृत करता है। उनके काव्य में हमें श्रेष्ठ कवित्व ही नहीं मिलता, उसके आधार पर हम संत-कवित्व की रूपरेखा भी निर्धारित कर सकते हैं। भक्ति उनके संतत्व की आतरिक भाव-साधना है। इस भाव-साधना की वाणी की अप्रतिम क्षमता देकर उन्होंने निष्कम्प दीपशिखा की भाँति अपनी काव्य-कला को निःसंग और निर्वैयक्तिक दीप्ति से भरा है।

प्रश्न- (क) उपर्युक्त गद्यांश का एक उपयुक्त शीर्षक बताइए।

(ख) कवि तुलसी में किसके प्रति उत्साह नहीं है ? तुलसी के काव्य की विशेषता का उल्लेख कीजिए।

(ग) गद्यांश में तुलसी के राम की क्या विशेषताएँ बताई गई हैं ?

(घ) ‘संत-रहनि’ का आशय स्पष्ट करते हुए भारतीय जीवन में इसकी महत्ता स्पष्ट कीजिए।

(ङ) तुलसी के काव्य में देवधर्मी मूल्य किस प्रकार अनावृत हुए हैं ?

(च) तुलसी की भक्ति साधना पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।

(छ) तुलसी के काव्य में धर्म किस रूप में प्रकट हुआ है ? स्पष्ट कीजिए।

(ज) निर्देशानुसार उत्तर दीजिए—

(i ) पर्यायवाची बताइए- संत, वाणी।

(ii) प्रत्यय पृथक कर मूल शब्द बताइए- करुणिव, मयादित।

उत्तर- (क) शीर्षक- संत कवि तुलसीदास।

(ख) तुलसी के काव्य में विशुद्ध मन की उपज, काल्पनिकता की अधिकता तथा शृंगारिक भावभूमियों के प्रति अत्यधिक लगाव नहीं है। उनके काव्य में राम के प्रति उन्मुखता है। तुलसी के संत हृदय का असर उनके काव्य पर स्पष्ट रूप से दिखाई देता है।

(ग) गद्यांश में तुलसी के राम को आदर्श पुरूष बताते हुए, उन्हें धर्ममय सौंदर्ययुक्त कहा गया है। उनका शील मर्यादापूर्ण तथा उनमें वीरता एवं करूणा कूट-कूटकर भरी है।

(घ) ‘संत-रहनि’ का आशय है-संतों जैसी जीवन शैली या संतों जैसा जीवन जीना। भारतीय जीवन में संतों जैसी मर्यादित जीवन-चर्या की आकांक्षा की गई है। ऐसी जीवन-चर्या भारतीय संस्कृति की विशेषता एवं धर्ममय रही है।

(ङ) तुलसी के काव्य में आध्यात्मिकता का प्रतिनिधित्व है, जिसमें भारतीय काव्य-आत्मा के चिरंतन सौंदर्य के दर्शन होते हैं। इसमें निहित सत्य तप, करुणा और मित्रता के आरोहण में देवधर्मी मूल्यों का आरोहण किया गया है।

(च) तुलसी के काव्य में उनके संतत्व और भक्ति साधना का मणिकांचन योग है। इसी भक्ति-साधना की वाणी को अद्वतीय क्षमता से युक्त कर उसे उस दीपशिखा के समान प्रज्वलित कर दिया है, जिसकी लौ युगों-युगों तक प्रकाश फैलाती रहेगी।

(छ) तुलसी के काव्य में धर्म अपने पंकरहित, निष्कलंकित, खुले रूप में, अक्षुण्ण या अपने संपूर्ण रूप में प्रकट हुआ है। काव्य में धर्म का जो रूप है, उसके मूल में लोक कल्याण की भावना भी समाहित किए हुए है।

(ज) (i) शब्द पर्यायवाची

संत साधू, अवधूत

वाणी वचन, वाक्शक्ति

(ii) शब्द मूल शब्द प्रत्यय

कारुणिक करुणा इक

मर्यादित मर्यादा इत


7. संस्कृति ऐसी चीज़ नहीं, जिसकी रचना दस-बीस या सौ-पचास वर्षो में की जा सकती हो। हम जो कुछ भी करते हैं, उसमें हमारी संस्कृति की झलक होती है; यहाँ तक कि हमारे उठने-बैठने, पहनने-ओढ़ने, घूमते-फिरने और रोने-हँसने से भी हमारी संस्कृति की पहचान होती है, यद्यपि हमारा कोई एक काम हमारी संस्कृति का पर्याय नहीं बन सकता। असल में, संस्कृति जाने का एक तरीका है और यह तरीका सदियों से जमा होकर उस समाज में छाया रहता है, जिसमें हम जन्म लेते हैं। इसलिए, जिस समाज में हम पैदा हुए हैं अथवा जसी समाज से मिलकर हम जी रहे हैं, उसकी संस्कृति हमारी संकृति है; यद्यपि अपने जीवन में हम जो संस्कारजमा कर रहे हैं, वे भी हमारी संस्कृति के अंग बन जाते हैं और मरने के बाद हम अन्य वस्तुओं के साथ अपनी संस्कृति की विरासत भी अपनी संतानों के लिए छोड़ जाते हैं। इसलिए, संस्कृति वह चीज मानी जाती है, जो हमारे सारे जीवन को व्यापे हुए है तथा जिसकी रचना और विकास में अनेक सदियों के अनुभवों का हाथ है। यही नही, बल्कि संस्कृति हमारा पीछा जन्म-जन्मांतर तक करती है। अपने यहाँ एक साधारण कहावत है कि जिसका जैसा संस्कार है, वैसा ही पुर्नजन्म भी होती है। जब हम किसी बालक या बालिका को बहुत तेज पाते हैं, तब अचानक कह देते हैं कि वह पूर्वजन्म का संस्कार है। संस्कार या संस्कृति, असल में, शरीर का नहीं, आत्मा का गुण है; और जबकि सभ्यता की सामग्रियों से हमारा संबंध शरीर के साथ ही छुट जाता है, तब भी हमारी संस्कृति का प्रभाव हमारी आत्मा के साथ जन्म-जन्मांतर तक चलता रहता है।

प्रश्न- (क) उपर्युक्त गद्यांश का एक उपयुक्त शीर्षक बताइए।

(ख) संस्कृति के बारे में लेखक क्या बताता है?

(ग) स्पष्ट कीजिए कि संस्कृति जीने का एक तरीका है।

(घ) संस्कृति एवं सभ्यता में अंतर स्पष्ट कीजिए।

(ङ) संस्कृति पूर्वजन्म का संस्कार है। इसे बताने के लिए लेखक ने क्या उदाहरण दिया है?

(च) संस्कृति की रचना और विकास में अनेक सदियों के अनुभवों का हाथ है-स्पष्ट कीजिए।

(छ) संस्कृति जीने का तरीका क्यों है?

(ज) निर्देशानुसार उत्तर दीजिए-

(i) संस्कृति जीने का तरीका है और यह तरीका सदियों से जमा होकर समाज में छाया रहता है-मिश्र वाक्य बनाइए।

(ii) विलोम बताइए- छाया, जीवन

उत्तर- (क) शीर्षक-सभ्यता और संस्कृति।

(ख) संस्कृति के बारे में लेखक बताता है कि इसकी रचना दस-बीस या सौ-पचास साल में नहीं की जा सकती है। इसके बनने में सदियाँ लग जाती हैं। इसके अलावा हमारे दैनिक कार्य-व्यवहार में हमारी संस्कृति की झलक मिलती है।

(ग) मनुष्य के अत्यंत साधारण से काम, जैसे- उठने-बैठने, पहनने-ओढ़ने, घुमने-फिरने और रोने-हँसने के तरीके में भी उसकी संस्कृति की झलक मिलती है। यद्यपि किसी एक काम को संस्कृति का पर्याय नहीं कहा जा सकता है, फिर भी हमारे कामों से संस्कृति की पहचान होती है, अतः संस्कृति जीने का एक तरीका है।

(घ) संस्कृति और सभ्यता का मूल अंतर यह होता है कि संस्कृति हमारे सारे जीवन में समाई हुई है। इसका प्रभाव जन्म-जन्मांतर तक देखा जा सकता है। इसका संबंध परलोक से है, जबकि सभ्यता का संबंध इसी लोक से है। इसका अनुमान व्यक्ति के जीवन-स्तर को देखकर लगाया जाता है।

(ङ) संस्कृति पूर्वजन्म का संस्कार है, इसे बताने के लिए लेखक ने यह उदाहरण दिया है कि व्यक्ति का पुनर्जन्म भी उसके संस्कारों के अनुरूप ही होता है। जब हम किसी बालक-बालिका को बहुत तेज पाते हैं, तो कह बैठते हैं कि ये तो इसके पूर्वजन्म के संस्कार हैं।

(च) व्यक्ति अपने जीवन में जो संस्कार जमा करता है वे संस्कृति के अंग बन जाते हैं। मरणोपरांत व्यक्ति अन्य वस्तुओं के अलावा इस संस्कृति को भी छोड़ जाता है, जो आगामी पीढ़ी के सारे जीवन में व्याप्त रहती है। इस तरह उसकी रचना और विकास में सदियों के अनुभवों का हाथ होता है।

(छ) व्यक्ति के उठने-बैठने, जीने के ढंग उस समाज में छाए रहते हैं, जिसमें वह जन्म लेता है। व्यक्ति अपने समाज की संस्कृति को अपनाकर जीता है, इसलिए संस्कृति जीने का तरीका है।

(ज) (i) संस्कृति जीने का वह तरीका है, जो सदियों से जमा होकर समाज में छाया रहता है।

(ii) शब्द विलोम

छाया धूप

जीवन मरण


8. प्रकृति वैज्ञानिक और कवि दोनों की ही उपास्या है। दोनों ही उससे निकटम संबंध स्थापित करने की चेष्टा करते हैं, किंतु दोनों के दृष्टिकोण में अंतर है। वैज्ञानिक प्रकृति के बाह्य रूप का अवलोकन करता और सत्य की खोज करता है। परंतु कवि बाह्य रूप पर मुग्ध होकर भावों का तादात्म्य स्थापित करता है। वैज्ञानिक प्रकृति की जिस वस्तु का अवलोकन करता है, उसका सूक्ष्म निरिक्षण भी करता है। चंद्र को देखकर उसके मस्तिष्क में अनेक विचार उठते हैं। इसका तापक्रम क्या है, कितने वर्षों में वह पुर्णतः शीतल हो जाएगा। ज्वार-भाटे पर इसका क्या प्रभाव होता है, किस प्रकार और किस गति से वह सौर-मंडल में परिक्रमा करता है और किन तत्वों से इसका निर्माण हुआ है। वह अपने सूक्ष्म निरिक्षण और अनवरत चिंतन से उसको एक लोक ठहराता है और उस लोक में स्थित ज्वालामुखी पर्वतों तथा जीवनधारियों की खोज करता है। इसी प्रकार वह एक प्रफुल्लित पुष्प को देखकर उसके प्रत्येक अंग का विश्लेषण और वर्ग विभाजन की प्रधानता रहती है। वह सत्य वास्तविकता का पुजारी होता है। कवि की कविता भी प्रत्यक्षावलोकन से प्रस्फुटित होती है। वह प्रकृति के साथ अपने भावों का संबंध स्थापित करता है। वह उसमें मानव-चेतना का अनुभव करके उसके साथ अपनी आंतरिक भावनाओं का समन्वय करता है। वह तथ्य और भावना के संबंध पर बल देता है। वह नग्न सत्य का उपासक नहीं होता। उसका वस्तु-वर्णन हृदय की प्रेरणा का परिणाम होता है, वैज्ञानिक की भाँति मस्तिष्क की यांत्रिक प्रक्रिया नहीं।