अंतरा - हरिशंकर परसाई - पुनरावृति नोट्स

 CBSE कक्षा 11 हिंदी (ऐच्छिक)

अंतरा गद्य-खण्ड
पाठ-3 टार्च बेचने वाले
पुनरावृत्ति नोट्स


विधा- व्यंग्य विधा
कहानीकार- हरिशंकर परसाई

रचनाकार-

  • (सुप्रसिद्ध व्यंग्य लेखक) हरिशंकर परसाई (जन्म-1922-मृत्यु-1995) जमानी गाँव 'वसुधा' पत्रिका का सम्पादन कार्य।

प्रमुख रचनाएँ-

  • कहानी संग्रह- ‘हँसते हैं रोते हैं’, ‘जैसे उनके दिन फिरे’।
  • उपन्यास- 'रानी नागफनी की कहानी', 'तट की खोज'।
  • निबन्ध-संग्रह- 'भूत के पाँव पीछे', 'पगडंडियों का जमाना', 'सदाचार का ताबीज', ‘शिकायत मुझे भी है’, ‘और अंत में’।
  • व्यंग्य लेख-संग्रह- ‘वैष्णव की फिसलन', 'तिरछी रेखायें’, ‘ठिठुरता हुआ गणतन्त्र’, ‘विकलांग श्रद्धा का दौर’

भाषा-शैलीगत विशेषताये-

  1. सरल और सुबोध भाषा-शैली
  2. तत्सम शब्दों का सटीक प्रयोग
  3. मुहावरों का प्रयोग
  4. भाषा शैली-व्यंग्यपूर्ण, संवादात्मक, उपदेशात्मक।

पाठ-परिचय-

  • एक व्यंग्यरचना 'टार्च बेचने वाले' में परसाई जी ने टार्च बेचने वाले दो मित्रों के माध्यम से समाज में घटित अंध-विश्वास, रूढ़ियों पर कुठाराघात करने के लिए अपने सशक्त हास्य और व्यंग्य के माध्यम से समाज पर तीव्र प्रहार किया है। दो मित्रों में से एक टार्च बेचते-बेचते प्रवचनकर्ता बन जाता है तो दूसरा संतों की वेशभूषा में भोलीजनता की आत्मा के अँधेरे को दूर करने की बात करता है। आत्मा के उजाले के लिए लोगों को संसार का घना अंधेरा दिखाकर भय पैदा कर देता है। इस रचना के माध्यम से समाज में व्याप्त अंधविश्वास तथा तथाकथित धर्माचार्यों पर कड़ा प्रहार किया है।

स्मरणीय बिन्दु-

  • लेखक बहुत दिनों बाद एक दाढ़ी बढ़ाये लम्बा कुर्ता पहने हुए उस व्यक्ति से मिला जो पहले चौराहे पर 'सूरजछाप’ टार्च बेचा करता था। बदली हुई वेशभूषा का कारण पूछने पर उसने बताया कि जीवन में कुछ ऐसा घटित हुआ कि उसने टार्च बेचने का काम छोड़ दिया।
    इसके बाद वह लेखक को उस घटना के विषय में बताता है। पाँच साल पहले वह और उसका दोस्त निराश बैठे थे। उनके सामने एक प्रश्न था- 'पैसा केसे पैदा करें?’ इस सवाल के हल के लिए अपनी किस्मत आजमाने के लिऐ अलग-अलग दिशाओं में दोनों मित्र निकल पड़े। इस वादे के साथ कि पाँच वर्ष बाद इसी स्थान पर फिर मिलते हैं।
  • इन पाँच वर्षों के दौरान पहला मित्र टार्च बेचने का धंधा करने लगा। वह चौराहे पर या मैदान में लोगों को इकट्ठा कर लेता तथा अंधेरे का डर बड़े ही नाटकीय अंदाज से दिखाता कि उसकी सारी टार्च हाथों हाथ बिक जाती। उसका धंधा खूब चल निकला।
  • वायदे के मुताबिक पाँच साल बाद वह निश्चित स्थान पर पहुँचता है परन्तु मित्र वहाँ नहीं मिलता। वह उसे ढूँढ़ने निकल पड़ता है। एक शाम उसे एक मैदान में मंच पर सुन्दर रेशमी वस्त्रों से सजे एक भव्य पुरूष बैठे दिखाई दिये। हजारों लोग श्रद्धा से झुके गुरू गम्भीर वाणी को तन्मय होकर सुन रहे हैं। वह व्यक्ति प्रवचन दे रहा था-मैं आज मनुष्य को घने अंधकार में देख रहा हूँ, आज आत्मा में भी अन्धकार है। मनुष्य की आत्मा भय, पीड़ा से त्रस्त है। आज मनुष्य इस अन्धकार से घबरा उठा है। डरो मत, जहाँ अन्धकार है, वहीं प्रकाश है, प्रकाश को बाहर नहीं, अन्दर में खोजों। इस प्रकार वह लोगों को पहले डराते हैं फिर तुरन्त उन्हें अपने साधना-मन्दिर में बुलाकर अन्तः ज्योति जलाने का अह्वान करते हैं। लोग तन्मय होकर सन्त की बातें सुन रहे थे पर उसकी हँसी छूट रही थी।
  • तभी उसने देखा कि भव्य-पुरूष मंच से उतर कर कार पर चढ़ने जा रहा है। उसने तो उस भव्य पुरूष को नहीं पहचाना पर भव्य पुरूष ने उसे पहचान कर कार में बिठा लिया सन्त की वेशभूषा में यह उसका मित्र ही था। बंगले के वैभव को देखकर वह हैरान हो गया। फिर दोनों मित्रों में खुलकर बात-चीत हुई।
  • उसने सन्त बने अपने मित्र से पूछा कि उसने इतनी दौलत कैसे पाई, क्या वह भी टार्च बेचता है। फिर वह कहता है कि उन दोनों के प्रचवन एक जैसे ही हैं, वह भी लोगों को अँधेरे का डर दिखाकर टार्च बेचता है। तथा सन्त बना मित्र भी लोगों को डर दिखाकर टार्च बेचता है। दोनों लोगों के जीवन में प्रकाश लाने का वादा करते हैं पर दूसरे मित्र की टार्च किसी कम्पनी की बनाई हुई नहीं है। वह बहुत सूक्ष्म है मगर उसकी कीमत बहुत अधिक मिल जाती है। मित्र को सारा रहस्य समझ में आ गया।
  • पहला मित्र सन्त के साथ दो दिन तक रहा। अब उसने निर्णय लिया कि नया धंधा शुरू करूँगा। वह सूरज छाप टार्च की पेटी नदी में फेंक देता है। दाढ़ी बढ़ाकर लम्बा कुरता पहन लेता है। वह लेखक को बताता है कि पहले वह लोगों को बाहरी अन्धकार से डराता है, फिर लोगों को आत्मा में प्रकाश फैलाने की बात कहकर उन्हें आसानी से ठग सकेगा। इस प्रकार दोनों मित्र इस ठगी के धन्धे में अँधेरे को दूर करने की बात करते हैं। बस फर्क सिर्फ बाहर के अंधेरे और अंदर के अँधेरे का ही है।