समाजशास्त्र में प्रयुक्त शब्दावली संकल्पनाएँ - एनसीईआरटी प्रश्न-उत्तर

कक्षा 11 समाजशास्त्र
एनसीईआरटी प्रश्न-उत्तर
पाठ - 2 समाजशास्त्र में प्रयुक्त शब्दावली संकल्पनाएँ एवं उनका उपयोग

1. समाजशास्त्र में हमें विशिष्ट शब्दावली और संकल्पनाओं के प्रयोग की आवश्यकता क्यों होती है?
उत्तर- समाजशास्त्र में हमें विशिष्ट शब्दावली और संकल्पनाओं के प्रयोग की आवश्यकता होती है क्योकि सामान्य ज्ञान के विपरीत किसी अन्य विज्ञान के सदृश समाजशास्त्र की अपनी संकल्पनाएँ (Concepts), सिद्धांत तथा तथ्य-संग्रह की पद्धतियाँ हैं। किसी सामाजिक विज्ञान के रूप में समाजशास्त्र जिन सामाजिक वास्तविकताओं और क्रिया-विधियों/प्राविधियों, जिनका अध्ययन करता है, का किसी विशेष अर्थ की जरूरत नहीं पड़ती है। प्रत्येक विषय को मानक शब्दावली पारिभाषिक शब्दावली, भाषा एवं संकल्पनाओं की जरूरत पड़ती है, इसके माध्यम से पेशेवर व्यक्ति इसके विषय के संबंध में विचार-विमर्श करते हैं और इसकी विविध विशिष्टाओं को कायम रखते हैं।
सामाजिक शब्दावली पर चर्चा करना और ज़्यदा आवश्यक बन जाता है, क्योंकि सामान्य उपयोग के दृष्टिकोण से उनका क्या अभिप्राय है, जिनके विविध अर्थ एवं संकेतार्थ हो सकते हैं।

2. समाज के सदस्य के रूप में आप समूहों में और विभिन्न समूहों के साथ अंतःक्रिया करते होंगे। समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से इन समूहों को आप किस प्रकार देखते हैं?
उत्तर- सामाजिक समूह का सरोकार सदस्यों या व्यक्तियों से हैं, जिसको सदस्यता के औपचारिक या अनौपचारिक कसौटी के माध्यम से परिभाषित किया जाता हैं और जो एकता के अनुभव का आदान-प्रदान करते हैं या अंतःक्रिया के अपेक्षाकृत स्थिर प्रतिमानों के माध्यम से एक-दूसरे से बँधे होते हैं।
सामाजिक समूह के सदस्य समान विशेषताओं तथा उद्देश्यों के द्वारा संबंधों को बनाते हैं एवं एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं।
सामाजिक समूह के अंतर्गत, यह दो या दो से ज़्यादा व्यक्तियों की एक संगठित संरचना है, जिसमें व्यक्ति एक-दूसरे के साथ अंतःक्रिया करते हैं, समान ओचित्यो का विनिमय करते हैं, एक-दूसरे पर पूरी तरह से आश्रित हैं और स्वयं को किसी समूह का सदस्य समझते हैं।
समूह की निम्नलिखित प्रमुख विशेषताएँ हैं:
  1. एक सामाजिक इकाई, जिसमें दो या दो से अधिक व्यक्ति पाए जाते हैं, जो स्वयं को किसी समूह के साथ अपनापन का भाव महसूस करते हैं। समूह की यह विशेषता एक समूह को दूसरे समूह से अंतर करने में सहायता करती हैं तथा समूह को उसकी पहचान दिलाती हैं।
  2. निरंतर व्यवस्था करने के लिए अटल अंतःक्रिया।
  3. व्यक्तियों का एक समुच्च, जिसके समान प्रयोजन एवं उसके औचित्य होते हैं। समूह या तो किसी दिए गए उद्देश्य के प्रति कार्य करता है या समूह के समक्ष निश्चित आशंकाओं से दूर होकर काम करता है।
  4. समान प्रतिमानों और संरचनाओं की स्वीकृति।
  5. अंतःक्रिया का एक स्थिर मानक।
  6. व्यक्तियों का एक समुच्चय, जो इस तथ्य पर अन्योन्याश्रित है कि कोई क्या कर रहा है, इसका प्रभाव दूसरों पर भी पड़ सकता है।
  7. यह प्रतिमान, प्रस्थिति, भूमिका और संसक्तिशीलता (Cohensiveness) के समुच्चय के द्वारा एक संगठित संरचना है।

3. अपने समाज में उपस्थित स्तरीकरण की व्यवस्था के बारे में आपका क्या प्रेक्षण है? स्तरीकरण से व्यक्तिगत जीवन किस प्रकार प्रभावित होते हैं?
उत्तर- समाजशास्त्र में 'स्तरीकरण' शब्द संरचनातीत सामाजिक असमानताओं के अध्ययन के लिए इस्तेमाल किया जाता है, जैसे कि व्यक्तिओं के समूहों के बीच किसी सुव्यवस्थिति असमानताओं का अध्ययन, जो सामाजिक प्रक्रिया एवं संबंधों के अप्रत्याशित परिणाम के रूप में प्रकट होता है। जब हम पूछते हैं कि गरीबी क्यों है, भारत में दलित और महिलाएँ सामाजिक रूप से अपंग क्यों हैं, तो हम सामाजिक स्तरीकरण के विषय में प्रश्न खड़ा करते हैं। सामाजिक स्तरीकरण सूक्ष्म समाजशास्त्र की सारभाग (Core) समस्या है, जोकि समाज का समग्र अध्ययन है। सामाजिक स्तरीकरण का सरोकार विभिन्न अनेक अर्थों में वर्ग और प्रस्थिति की समस्याओं से है-सामाजिक समाकलन (Integration) के समझ की कुंजी के रूप में समूह गठन, जोकि जिस हद तक सामाजिक संबंध संसक्तिशील (Cohesive) है या विभाजनात्मक (Divisive), वह परिणामतः सामाजिक व्यवस्था को निर्धारित करता है।
मेरे द्वारा यह प्रेक्षण किया गया है कि हमारे समाज में स्तरीकरण व्यवस्था संरचना का अस्तित्व, भारतीय समाज के विविध समूहों के मध्य असमानता इत्यादि का द्योतक हैं। भारतीय समाज में संस्तरण के स्तर पाए जाते हैं, जोकि समाज के शिखर पर उच्चतम योग्य व्यक्ति तथा धरातल पर निम्नतम योग्य व्यक्ति। भारतीय समाज में जाति व्यवस्था इत्यादि का जन्म हुआ, आर्थिक विषमता, जिससे वर्ण व्यवस्था, स्तरीकरण में आवश्यक भूमिका निभाती है।
  1. भारत में जाति स्तरीकरण व्यवस्था में किसी व्यक्ति की प्रस्थिति व्यक्ति की उपलब्धियों और उसके योगदान या उसके मनोवैज्ञानिक गुणों से न होकर जन्म से निर्धारित होतीं है।
  2. स्तरीकरण किसी समाज की स्वाभाविक प्रक्रिया है। जैसे हम जानते हैं कि समाज एक समूह है और समूह एक संगठित संरचना है, जिसमें सदस्यों की प्रस्थिति भूमिका होती हैं।
  3. भारतीय समाज के इस स्तरीकरण के विरुद्ध कुछ आशाएँ हैं। संवैधानिक व्यवस्था, नगरीकरण, औद्योगिकीकरण, आर्थिक विकास, शिक्षा, सुगम संचार और प्रबुद्ध द्वारा की वजह से हमारा समाज खुशहाली की तरफ धीरे-धीरे परिवर्तनशील हैं।
  4. उम्मीदों से भूमिका का सरोकार होता हैं, जो क्रियाशील है तथा प्रस्थिति का व्यवहारिक क्षेत्र है। प्रस्थिति का संदर्भ समाज में हर एक सदस्य द्वारा धारण स्थिति से है। किसी सदस्य की प्रस्थिति की संस्थापित भूमिका है। प्रस्थिति समाज में व्यवस्थित, मानकीकृत एवं औपचारिक हो जाती है।
  5. सामाजिक स्तरीकरण इस बात का आश्वासन देता है कि सबसे ज़्यादा महत्त्वपूर्ण पदों पर योग्य व्यक्तियों को होना चाहिए।
  6. सामाजिक स्तरीकरण सामान्य पूर्वानुमान से शुरुआत होती है या प्रकार्यवाद के विश्वास पर आधारित है कि कोई भी समाज वर्गहीन या बिना स्तरीकरण के है। केवल समन्वय, संतुलन, समाकलन तथा सबके विकास की जरूरत पड़ती है, जो किसी स्वस्थ समाज का उद्देश्य होना चाहिए

4. सामाजिक नियंत्रण क्या है? क्या आप सोचते हैं कि समाज के विभिन्न क्षेत्रों में सामाजिक नियंत्रण के साधन अलग-अलग होते हैं? चर्चा करें।
उत्तर- 'सामाजिक नियंत्रण' शब्द का संबंध उस सामाजिक प्रक्रिया से हैं, जिसके माध्यम से व्यक्ति या समूह के व्यवहार को नियंत्रित किया जाता है। समाज मानवों का सामंजस्यपूर्ण संघ है, जिनसे अपेक्षा की जाती है कि वे अपना कार्य तदनुसार करें। समाज को अपने सदस्यों पर अस्तित्व और विकास के लिए निश्चित नियंत्रण रखना पड़ता है। इस प्रकार नियंत्रणों को सामाजिक नियंत्रण कहा जाता है। परिणामतः सामाजिक नियंत्रण किसी भी समाज को परिष्कृत कर देने वाला लक्षण हैं।
सामाजिक नियंत्रण व्यक्तियों एवं समूहों के अप्रत्याशित व्यवहारों को नियंत्रित करने में मदद करता हैं। इसका इस्तेमाल समाज समग्र रूप से समूह के कल्याण व विकास के लिए करता है। सामाजिक नियंत्रण का स्वरूप एक समाज से दूसरे समाज में परिवर्तित हो जाता है, क्योंकि प्रत्येक समाज के अपने नियम एवं प्रतिमान हैं। समाज के अनेक प्रकार जैसे व्यक्तिवादी/व्यष्टिवादी समाज या जन सामूहिक समाज अपने सदस्यों से विभिन्न अपेक्षाएँ रखते हैं।
पश्चिमी व्यक्तिवादी समाज के अंतर्गत भारतीय सांस्कृतिक मूल्य और जीवन के सामान्य मानक/मानदण्ड से भिन्न हैं। तदनुसार उस विशिष्ट समाज में परिवार व्यवस्था, विवाह पद्धति, सकारात्मक एवं नकारात्मक परिपाटियाँ, धर्म तथा शिक्षा व्यवस्था विकसित की गई हैं। विशिष्ट समाज के सदस्यों को इन व्यवस्थाओं की आज्ञा का पालन करना चाहिए। समाज किसी खास विशिष्ट समाज के लिए उचित सामाजिक नियंत्रण को विकसित करता है।