सपनों के-से दिन - CBSE Test Papers
सीबीएसई कक्षा-10 हिंदी ब
टेस्ट पेपर-01
संचयन पाठ-02 सपनों के- से दिन-गुरदयाल सिंह
टेस्ट पेपर-01
संचयन पाठ-02 सपनों के- से दिन-गुरदयाल सिंह
निर्देश-
- सभी प्रश्न अनिवार्य है।
- प्रश्न 1 से 3 एक अंक के है।
- प्रश्न 4 से 8 दो अंक के है।
- प्रश्न 9 से 10 पांच अंक के है।
- पाठ तथा लेखक का नाम लिखिए |
- गर्मी की छुट्टियों में लेखक कहाँ जाते थे ?
- स्काउट परेड करते समय लेखक अपने आप को क्या समझने लगते थे ?
- कोई भी भाषा आपसी व्यवहार में बाधा नहीं बनती - पाठ के किस अंश से यह सिद्ध होता है?
- लेखक के साथ खेलने वाले बच्चों का हाल कैसा हुआ करता था?
- नई श्रेणी में जाने और नई कापियों और पुरानी किताबों से आती विशेष गंध से लेखक का बालमन क्यों उदास हो उठता था?
- लेखक ने बच्चों के मनोविज्ञान को कब समझा?
- लेखक के अनुसार उन्हें स्कूल खुशी से भागे जाने की जगह न लगने पर भी कब और क्यों उन्हें स्कूल जाना अच्छा लगने लगा?
- ‘सपनों के-से दिन’ पाठ के आधार पर बताइए कि अभिभावकों को बच्चों की पढ़ाई में रूचि क्यों नहीं थी?
- विद्यार्थियों को अनुशासन में रखने के लिए पाठ में अपनाई गई युक्तियों और वर्तमान में स्वीकृत मान्यताओं के संबंध में अपने विचार प्रकट कीजिए।
सीबीएसई कक्षा-10 हिंदी ब
टेस्ट पेपर-01
संचयन पाठ-02 सपनों के- से दिन-गुरदयाल सिंह
(आदर्श उत्तर)
टेस्ट पेपर-01
संचयन पाठ-02 सपनों के- से दिन-गुरदयाल सिंह
(आदर्श उत्तर)
- पाठ का नाम -सपनों के-से दिन तथा लेखक का नाम गुरदयाल सिंह है |
- गर्मी की छुट्टियों में लेखक अपने ननिहाल जाया करते थे |
- स्काउट परेड करते समय लेखक खुद को महत्त्वपूर्ण व्यक्ति फ़ौजी जवान समझने लगते थे|
- पाठ के शुरु में लेखक ने अपने उन दोस्तों का जिक्र किया है जो राजस्थान से आए थे। लेखक को उनकी भाषा समझ में नहीं आती थी लेकिन खेलते समय सभी एक दूसरे की भाषा आसानी से समझ लेते थे। इस प्रकरण से पता चलता है कि भाषा आपसी व्यवहार में बाधा नहीं बनती।
- लेखक के साथ खेलने वाले बच्चों के बाल बिखरे हुआ करते थे | वे मैली -फटी हुई कच्छी और टूटे बटनों वाले कुरते पहन कर, नंगे पाँव रेत-मिटटी में भागते हुए ,चोट लगने पर भी घरवालों से पिटते थे,परन्तु खेलना नहीं छोड़ते थे|
- नई श्रेणी में जाने पर लेखक के लिए नई कापियाँ और पुरानी किताबें खरीदी जाती थीं। नई श्रेणी में जाने पर अधिक मुश्किल पढ़ाई का भय और कुछ नए शिक्षकों की पिटाई का भय लेखक के मन मे बना रहता था इसलिए नई श्रेणी में जाने पर लेखक के लिए नई कापियाँ और पुरानी किताबों से आती विशेष गंध से लेखक का बालमन उदास हो उठता था।
- लेखक ने बड़े होकर जब अध्यापक बनने की ट्रेनिंग ली और वहां बाल-विज्ञान का विषय पढ़ा,तब यह बात उन्हें समझ आई कि बच्चों को खेलना इतना अच्छा क्यों लगता है? इसके पश्चात ही वे यह समझ पाए कि माता-पिता से पिटने के बाद भी बच्चे खेलने क्यों चले आते थे |
- लेखक को स्कूल जाना बिलकुल भी अच्छा नहीं लगता था, लेकिन जब पीटी साहब उन्हें परेड में शाबाशी देते तो उन्हें बहुत अच्छा लगता था। स्काउट की परेड में जब उन्हें धुले हुए साफ कपड़े और गले में दोरंगी रुमाल के साथ परेड करने को मिलता तो भी उन्हें मजा आता था। परेड के दौरान उनके बूटों की ठक-ठक उनके कानों में मधुर संगीत की तरह लगती थी। इन सब कारणों से लेखक को स्कूल जाना अच्छा लगने लगा था।
- लेखक के अधिकतर पड़ोसी व्यवसाय से परचूनिए,आढ़तिए और छोटा-मोटा काम-धंधा करने वाले लोग थे| वे अपने बच्चों को स्कूल भेजना जरुरी नहीं समझते थे |वे चाहते थे कि पंडित घनश्याम दास से हिसाब-किताब लिखने,बही-खाता जाँचने और मुनीमी का काम सिखा कर बच्चों को दुकान पर बैठा दिया जाए|किताब-कॉपियों का खर्च उठाना भी अभिभावकों को अच्छा नहीं लगता था इसलिए अभिभावकों को बच्चों की पढ़ाई के प्रति रूचि नहीं थी |
- विद्यार्थियों को अनुशासन में रखने के लिए पाठ में अपनाई गई युक्तियाँ बड़ी ही क्रूर लगती हैं। आज हर विशेषज्ञ का मानना है कि शारीरिक यातना देकर बच्चों को नहीं सुधारा जा सकता है। आज के शिक्षाविदों का मानना है कि बच्चों को प्यार और स्नेह से ही सही तरीके से सिखाया जा सकता है। गुजरे जमाने के स्कूली जीवन के बारे में तो सोचकर ही रूह काँप जाती है।पाठ में वर्णित ओमा जैसे बालकों के साथ आज मनोवैज्ञानिक युक्तियाँ ही अपनाई जाती हैं,समय -समय पर विशेषज्ञ ऐसे छात्रों से मिलते रहते हैं |उन्हें सही राह पर लाने के अन्य प्रयास किए जाते हैं जो शारीरिक दंड नहीं होता है |इन युक्तियों का प्रभाव धीरे-धीरे ही सही,लेकिन स्थाई रूप से होता है|