ल्हासा की ओर - पुनरावृति नोट्स

CBSE कक्षा 9 क्षितिज हिंदी अ
पुनरावृत्ति नोट्स
पाठ-2 ल्हासा की ओर

महत्त्वपूर्ण बिन्दु-
  1. पाठ “ल्हासा की ओर” “राहुल सांकृत्यायन” जी की रचना ‘प्रथम तिब्बत यात्रा’ से लिया गया है जो सन १९३० में उन्होंने की थी। यह पाठ ‘यात्रा वृत्तांत’ पर आधारित है। उस समय भारतीयों को तिब्बत यात्रा की अनुमति न होने के कारण राहुल जी को यह यात्रा भिखमंगे के छद्म वेश में करनी पड़ी थी।
  2. ल्हासा तिब्बत की राजधानी है जिसका रास्ता अति दुर्गम होने के कारण लेखक को बहुत सी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था।
  3. नेपाल से तिब्बत जाने का पुराना रास्ता व्यापारिक होने के साथ-साथ सैनिक रास्ता भी था। वहाँ जगह-जगह फौजी चौकियाँ और किले बने थे,जिनमें चीनी पलटनें किसी समय में रहा करती थी।अब वहीं दुर्ग के किसी हिस्से में किसान रहने  लगे थे ऐसे ही एक परित्यक्त किले में वे चाय पीने के लिए ठहरे थे।
  4. तिब्बत यात्रा के दौरान उन्हें कठिनाइयाँ मिलने के साथ कुछ सुखद अनुभव भी मिलें जैसे उस समय का तिब्बती समाज विकसित था,वहाँ औरतें पर्दा नहीं करती थीं,जाति-पाँति,छुआ-छूत नहीं था। यहाँ तक यात्री घर के भीतर जाकर चाय आदि ले सकते थे अथवा घर की स्त्रियाँ भी चाय का सामान देने पर चाय पका देती थी।
  5. दूसरी बार यात्रा के समय लेखक के साथ मंगोल भिक्षु सुमति था,इस बार वे भद्र वेश में थे। पिछली बार भिखमंगे के वेश में ठहरने की अच्छी जगह मिली किन्तु इस बार भद्र वेश उन्हें अच्छी जगह नहीं दिला पाया,क्योंकि वे वहाँ शाम के समय पहुँचे थे उस समय छड्ग पीने के कारण होशो-हवास में नहीं रहते थे, इस कारण तिब्बतवासी सही निर्णय नहीं ले पाये और उन्हें अच्छी जगह नहीं मिली ।
  6. सोलह-सत्रह हजार फीट की ऊँचाई होने के कारण डांडा तिब्बत की सबसे खतरनाक जगह थी। डाकुओं का आतंक था,जान-माल का खतरा था। कानून व्यवस्था न होने के कारण कोई भी हथियार रखने की खुली छूट थी। डांडे से लङकोर जाने के लिए उन्होंने दो घोड़े लिए थे।
  7. डांडे के सर्वोच्च स्थान पर देवता का मन्दिर था,जिसे पत्थरों,जानवरों की सीगों,रंग-बिरंगी झंडियों से सजाया गया था। वहाँ से उतराई करते हुए घोड़े के धीमे चलने के कारण लेखक रास्ता भटक गये फलस्वरूप वह लङ्कोर देर से पहुँचा जिससे उसे सुमति के गुस्से का सामना भी करना पड़ा। वहाँ उन्हें ठहरने की अच्छी जगह मिलने के साथ खाने के लिए चाय-सत्तू के अलावा गरमागरम थुक्पा भी मिला।
  8. अगले दिन वे तिङ्गरी-समाधि-गिरि पहाड़ी पर जा पहुँचे जहाँ सुमति के बहुत यजमान थे,जो उसका बहुत सम्मान करते थे। सुमति ने वहाँ यजमानों को बौद्धगया से लाये गए गंडे बांधे और उनके खत्म हो जाने पर उन्होंने बड़ी होशियारी से किसी भी कपड़े से गंडे बना कर यजमानों को संतुष्ट किया। वे अपने फायदे के लिए अन्य गाँवों में भी जाना चाहते थे लेकिन शीघ्र ल्हासा पहुँचने के लिये लेखक ने उन्हें स्वयं रुपये देने का आश्वासन दिया।
  9. भरिया न मिल पाने के कारण उन्हें दस-ग्यारह बजे की तेज़ धूप में चलना पड़ा। तिब्बत की धूप बड़ी कड़ी होती है जिससे  मोटे कपड़े से सिर को ढक कर कुछ हद तक बचा जा सकता है। दो बजे के समय सामने की धूप से ललाट जलता है तो दूसरी ओर पीछे का कंधा बर्फ के समान ठंडा हो जाता है। उसके बाद वे शेकर विहार की ओर चल पड़े।
  10. तिब्बत की जमीन छोटे-बड़े जागीरदारों में विभाजित है,जिनकी देख-रेख मठों के हाथों में है। जागीरदार खेती खुद कराता है,मजदूर बेगार में मिल जाते हैं। खेती का इंतजाम देखने के लिये कोई भिक्षु भेजा जाता है जिसका सम्मान सभी किसी राजा की तरह करते हैं।
  11. लेखक और सुमति शेकर विहार में एक भद्र पुरुष नम्से से मिले। वहाँ एक अच्छा मन्दिर था,जिसमें एक सौ तीन हस्तलिखित  (बुद्धवचन -अनुवाद) पोथियाँ रखी थीं। जो मोटे कागज पर लिखी और १५-१५ सेर से कम नहीं थीं। लेखक ने अपना आसन वहीं लगाया और उनका अध्ध्यन करने में तल्लीन हो गए। इस कार्य में दो-तीन दिन का समय लगेगा ऐसा सोच कर उन्होंने सुमति को तिङ्गरी गाँव जाने की सहमति दे दी। तत्पश्चात अपना-अपना सामान पीठ पर उठा कर भिक्षु नम्से से विदाई लेकर चल पड़े