अपठित गद्यांश - महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर

CBSE कक्षा 10 हिंदी 'बी'
अपठित गद्यांंश

अपठित गद्यांश पर आधारित प्रश्नोत्तर
  1. एक वृक्ष पर तोते के दो बच्चे रहते थे। दोनों एक ही जैसे थे- हरे-हरे पंख, लाल चोंच, चिकनी और कोमल देह। जब बोलते तब दोनों के कंठ से एक ही जैसी ध्वनी निकलती थी। एक का नाम था - सुपंखी और दूसरे का नाम सुकंठी। सुपंखी और सुकंठी एक ही माँ कि कोख से उत्पन्न हुए थे। दोनों के रूप-रंग, बोली और व्यवहार में कोई अंतर न था। दोनों साथ-साथ सोते-जागते, साथ-साथ दाना चुगते, पानी पीते, दिन भर फुदकते रहते। रात सुख-स्वप्नों में बीत जाती और दिन खेलने-कूदने और चहकने में। बड़े सुख से दोनों का जीवन बीत रहा था। पर यह सुख का जीवन आगे भी सुख से बीत पाता तब न !
    एक दिन असमान काले-काले बादलों से घिर गया। घनघोर गर्जन हुआ। बिजली कड़की और बड़ी तेज़ आँधी आ गई। वन के सारे वृक्ष, झाड़ी-झुरमुट, पशु-पक्षी तहस-नहस हो गए। कुछ ज़मीन पर गिर कर नष्ट हो गए, कुछ आँधी के साथ उड़कर कहाँ से कहाँ चले गए। ऐसे में सुपंखी और सुकंठी भला कैसे बच पाते ! वे तो अभी बच्चे ही थे। सुपंखी तो आँधी के साथ उड़कर चोरों कि एक बस्ती में जा गिरा और सुकंठी एक पर्वत से टकराकर बेसुध हो गया, जहाँ से लुढ़ककर वह ऋषियों के एक आश्रम में जा गिरा।
    इस प्रकार दोनों बच्चे एक-दूसरे से विलग हो गए। समय आगे बढ़ता रहा। सुपंखी चोरों कि बस्ती में पलता-बढ़ता रहा और सुकंठी ऋषियों के आश्रम में। धीरे-धीरे कई वर्ष बीत गए। एक दिन उसी राज्य का राजा अश्व पर सवार होकर आखेट के लिए निकला। बनैले पशुओं के पीछे दौड़ता-भागता जब थक गया तो सरोवर के किनारे विश्राम करने लगा। सभी सैनिक पीछे छूट गए। यह सरोवर चोरों की बस्ती के पास था। उस समय सरोवर के आसपास कोई नहीं था। बस, घने वृक्ष थे, जो हवा के झोंकों से से धीरे-धीरे झूम रहे थे।
    राजा थका तो था ही, उसे नींद आने लगी। वह अभी अर्धनिद्रा में ही था कि किसी कर्कश वाणी में उसकी नींद टूट गई। राजा ने इधर-उधर देखा, कोई नहीं था। तभी कर्कश वाणी फिर से सुनाई पड़ी, "पकड़ो, पकड़ो, यह व्यक्ति जो सोया है, राजा है। इसके गले में मोतियों कि माला है। अनेक आभूषण-अलंकार हैं इसके पास। लूट लो, सब कुछ लूट लो। इसे मारकर झाड़ी में डाल दो।" राजा हड़बड़ा के उठ बैठा। सामने पेड़ की डाल पर एक तोता बैठा था। वही कर्णकटु वाणी में यही सब कुछ बोल रहा था। राजा को आश्चर्य हुआ। साथ ही उसे भय भी लगा। वह उठ खड़ा हुआ। अपने अश्व पर सवार हुआ। चलने लगा तो तोता फिर बोला, "राजा जाग गया ! देखो, देखो ... वह भागा जा रहा है ! पकड़ो इसे ... लो ... राजा गया। अलंकार गए। आभूषण गए। सब कुछ गया। कोई पकड़ ही नहीं रहा है।"
    राजा उस स्थान से बहुत दूर निकल गया और एक पर्वत कि तलहटी में जा पहुँचा। पर्वत कि तलहटी में ऋषियों का एक आश्रम था। आश्रम में उस समय सन्नाटा छाया था। सभी ऋषि-मुनि भिक्षाटन के लिए गए हुए थे। राजा तन-मन विक्षुब्ध तो था ही, सोचा- यहीं विश्राम करूँ। उसने ज्यों ही आश्रम में प्रवेश किया उसे एक मधुर वाणी सुनाई पड़ी, "आइए राजन्, आइए ! ऋषियों के इस पावन आश्रम में आपका स्वागत है।" राजा ने चकित होकर सामने की ओर देखा - वृक्ष कि डाल पर बैठा एक तोता राजा का स्वागत कर रहा था। प्रथम दृष्टि में तो राजा को यही प्रतीत हुआ कि यह वहीं तोता है, जो सरोवर के किनारे मिला था - वही रंग, वही आकार-प्रकार। राजा पुनः ध्यान से उसे देखने लगा। तोता फिर बोला, "राजन् ! आप चकित क्यों हैं? इस आश्रम का आतिथ्य ग्रहण कीजिए। आप थके हैं, विश्राम कीजिए। जलाशय से जल पीजिए। आपको भूख भी लगी होगी। आश्रम के फल ग्रहण कीजिए।" राजा सोचने लगा - नहीं, यह तोता वह नहीं है, जो सरोवर के किनारे मिला था। इसकी वाणी कितनी मधुर है, कितनी कोमल है और वाणी में कितनी विनम्रता और शिष्टता है।
    तोता फिर बोला, "राजन् ! आप किस संकोच में पड़ गए? आश्रम में प्रवेश कर हमें अनुगृहीत कीजिए।" राजा बोला "तुम्हारी मधुर वाणी सुनकर मैं दुविधा में पड़ गया हूँ। अभी कुछ समय पूर्व मुझे सरोवर के किनारे भी एक तोता ...." इतना सुनते ही तोता बोल उठा, " मैं सब समझ गया ! वह मेरा जुड़वाँ भाई सुपंखी है और मैं -सुकंठी। एक ही कोख से उत्पन्न होकर हम दोनों एक परिवेश में नहीं रह पाए। समय का ऐसा चकर चला कि दोनों अलग-थलग हो गए। वह चोरों कि बस्ती में पला-बढ़ा और मैं यहाँ ऋषियों के आश्रम में ...." कहते-कहते सुकंठी थोड़ा-सा रुका। फिर दुखी स्वर में बोला, " राजन्, सुपंखी मेरा भाई है। दो-चार बार मुझे मिला भी। मैंने बहुत चाहा कि वह मेरे पास इस पावन आश्रम में आ जाए। परंतु राजन्, उसे आश्रम का वातावरण रुचिकर नहीं लगा। जानते हैं क्यों? वह मुझसे विलग होकर सदैव चोरों कि बस्ती में रहा। वहीं की वाणी, वहीं का परिवेश और आचरण उसके भीतर रच-बस गए हैं।"
    1. उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
    2. उत्तर- उपर्युक्त गद्यांश का शीर्षक - जैसा खाया दाना, वैसा पाया बाना।
    3. तोते के बच्चों का जीवन बड़े सुख से कैसे बीत रहा था?
      उत्तर-
       तोते के बच्चों का जीवन बड़े सुख से बीत रहा था दोनों साथ-साथ जागते-सोते, साथ-साथ दाना चुगते, पानी पीते, दिन भर फुदकते रहते। रात सुख स्वप्नों में बीत जाती और दिन खलने-कूदने और चहकने में।
    4. तोते के बच्चे आँधी में कहाँ-कहाँ जा गिरे?
      उत्तर-
       सुपंखी तो आँधी में उड़कर चोरों कि बस्ती में जा गिरा और सुकंठी एक पर्वत से टकराकर बेसुध हो गया और लुढ़कर ऋषियों के आश्रम में जा गिरा।
    5. राजा ने किसकी कर्कश वाणी सुनी और वह क्या कह रहा था?
      उत्तर-
       राजा ने सुपंखी कि कर्कश वाणी सुनी जो कह रहा था, "पकड़ो-पकड़ो, यह व्यक्ति जो सोया है, राजा है। इसके गले में मोतियों कि माला है। अनके आभूषण-अलकार हैं इसके पास। लूट लो, सब कुछ लूट लो। इसे मारकर झाड़ी में डाल दो
    6. राजा ने ऋषियों के आश्रम में किसकी मधुर वाणी सुनी और वह क्या कह रहा था?
      उत्तर-
       राजा ने आश्रम में सुकंठी कि मधुर वाणी सुनी जो कह रहा था, "आइए राजन्, आइए ! ऋषियों के इस पावन आश्रम में आपका स्वागत है।"
    7. निम्नलिखित वाक्य में उचित विराम-चिन्हों का प्रयोग करें -
      तोता फिर बोला राजन् आप किस संकोच में पड़ गए
      आश्रम में प्रवेश कर हमें अनुगृहीत कीजिए

      उत्तर- तोता फिर बोला, "राजन् ! आप किस संकोच में पड़ गए? आश्रम में प्रवेश कर हमें अनुगृहीत कीजिए।"
  2. मोहन राकेश के कश्मीर पहुँचते ही तय हुआ कि उपेंद्रनाथ अश्क को श्रीनगर या पहलगाँव में स्थापित करके हम दोनों कहीं और निकल जाएँगे - गुलमर्ग या किसी भी जगह ..... हम बंजारों कि तरह सिर्फ़ घूमेंगे और गप्पें लड़ाएँगे। अपने कलम होटल-मालिक के पास जमा करवा देंगे और लिखने-लिखाने का काम नहीं करेंगे। जो लिखता हुआ पकड़ा जाएगा, वह दूसरे दिन के घूमने, नाश्ते और खाने का पूरा खर्चा उठाएगा। इस नियम में कोई परिवर्तन नहीं किया जाएगा और अश्क जी से बहुत सीरियसली कहा जाएगा कि वे अपना कीमती वक्त बर्बाद न करें, अपनी सेहत का ख्याल रखने के साथ-साथ साहित्य कि सेहत का भी ख्याल रखें और मोटा उपन्यास या नाटक हर हालत में पूरा करें। यह मुमकिन न हो, तो अगली महान रचनाओं की रूपरेखा बनाएँ। तानी अश्क जी साहित्य में रहें और हम कश्मीर में ! पर अश्क के भी जीवट का जवाब नहीं ! कोल्हाई चलने के लिए वे सुबह-सुबह ही हम दोनों से पहले उठाकर तैयार हो गए थे और चीख रहे थे - " यारों ! नौ मील का रास्ता है ... जल्दी नहीं चलोगे तो मारे जाओगे ....।"
    पिछले दिन के सफ़र ने काफ़ी थका दिया था। पहलगाँव से आडू से लिद्दरवट। हम सुबह उठाकर लिद्दरवट के डाक-बँगलें से कोल्हाई के लिए चल पड़े। सचमुच रास्ता बहुत भयानक था और खतरनाक भी। दाहिनी और लिद्दर नदी बह रही थी, उसका पानी चट्टानों के नीचे था, और जगह-जगह जहाँ चट्टानों के बीच में खाली जगह थी एकाएक पानी के गहरे कुंड आ जाते थे, जिनमे गिर जाने के बाद निकलना संभव ही नहीं था। कुछ दूर पहुँचने पर रास्ता सँकरा होने लगा। बाई ओर टूटे हुए पत्थरों के पहाड़ आ गए। दाहिनी ओर दरिया के उस पार देवदार के पेड़ बंद छातों की तरह उगे हुए थे। कुछ दूर पर ही भोजपत्र का जंगल आया। यादगार स्वरूप हमने कुछ छाल उताकर ओवरकोट की जेबों में रख ली। भोजपत्र के जंगल के आगे रास्ता कुछ साफ़ था। घाटी भी खुल गई थी। तभी आराम से चलते-चलते ममदू ने कहा, "साब, कोल्हाई के ऊपर एक दूधसर लेक होता। बहोत खूबसूरत लेक है ... कश्मीर का सबसे खूबसूरत लेक !"
    हमने हामी भर दी। सतलंजन का मैदान सामने था। उलटे तिकोन की तरह। यह मैदान बहुत खौफ़नाक था। कभी भी नालों में पानी बढ़ सकता थका और पूरा मैदान गहरी झील में तब्दील हो सकता था। हम कुछ देर रुकना भी चाहते थे पर ममदू ने आगाह किया, "कुछ पता नहीं साब ! हम यहाँ रुकने का सलाह नहीं देगा ... क्या पता कब नालों में पानी आ जाए और निकलना मुश्किल हो जाए। मालूम नई पड़ेगा कि ऊपर पहाड़ पर पानी आ गया है। जल्दी-जल्दी पार करने का, साब !" शायद ममदू कुछ ज़्यादा ही डरा हुआ था पर अनजानी जगहों में जानकारों कि गैरज़रूरी बातों को भी मानना पड़ता है। फिर पथरीली और बेहद पतली घाटियों में होते हुए हम एक ऐसी जगह पहुँच जहाँ से आगे का कोई रास्ता दिखाई नहीं दे रहा था। तीनों तरफ़ के पहाड़ सिमसिम कि तरह बंद थे। सिर्फ़ वापस जाने वाला रास्ता खुला हुआ था। हम लोग रुक गए। ममदू ने आगे बढ़कर बताया, "इधर दाहिनी तरफ़ दर्रा है ... इसी दर्रा में दो मील आगे कोल्हाई ग्लेशियर है। उधर उसके पास तक कोई नई जा सकता। इधर मोड़ पर मुड़ते ही बर्फीली नदी दिखाई पड़ेगा और बर्फ़ का छोटा-सा झील जिससे लिद्दर का दरिया निकलता है ..." चारों ओर सन्नाटा था। एक चिड़िया तक कहीं नहीं थी। तीनों ओर नीले-नीले पहाड़ खड़े थे। जैसे वे बर्फ़ीली हवाओं से नीले पड़ गए हों ! ऊपर आसमान साफ़ था। घड़ी देखी तो साढ़े ग्यारह बज रहे थे। हम तीनों ही खामोश थे। वीरान सौंदर्य चारों ओर बिखरा हुआ था। नदी की धारा नीली, हरी और सिलेटी चट्टानों के पहाड़ सन्यासियों कि तरह चुप खड़े थे।
    1. उपर्युक्त गद्यांश का शीर्षक लिखिए।
      उत्तर-
       उपर्युक्त गद्यांश का शीर्षक - लिद्दरवट से कोल्हाई कि यात्रा।
    2. उपेंद्रनाथ अश्क को श्रीनगर या पहलगाँव छोड़कर लेखक ने कहाँ जाने कि बात कहीं?
      उत्तर-
       उपेंद्रनाथ अश्क को श्रीनगर या पहलगाँव छोड़कर लेखक ने गुलमर्ग या किसी भी जगह जाने कि बात कही।
    3. लिद्दरवट और कोल्हाई के बीच खतरनाक रास्ते का वर्णन कीजिए।
      उत्तर-
       लिद्दरवट और कोल्हाई के बीच का रास्ता बहुत भयानक और खतरनाक था। दाहिनी और लिद्दर नही बह रही थी, उसका पानी चट्टानों के नीचे था, और जगह-जगह जहाँ चट्टानों के बीच में खाली जगह थी एकाएक पानी के गहरे कुंड आ जाते थे, जिनमे गिर जाने पर निकलना संभव ही नहीं था।
    4. भोजपत्र के जंगल से लेखक और साथियों ने यादगार स्वरूप ओवरकोट कि जेबों में क्या रख लिया?
      उत्तर-
       भोजपत्र के जंगल से लेखक और साथियों ने यादगार-स्वरूप कुछ छाल उतारकर ओवरकोट की जेबों में रख ली।
    5. सतलंजन के मैदान में रुकना लेखक वे साथियों ने उचित क्यों नहीं समझा?
      उत्तर-
       सतलंजन का मैदान बहुत खौफ़नाक था। कभी नालों में पानी बढ़ सकता था और पूरा मैदान गहरी झील में तब्दील हो सकता था।
    6. पथरीली और बेहद पतली घाटियों में फँस जाने पर ममदू ने आगे बढ़कर क्या बताया?
      उत्तर-
       पथरीली और बेहद पतली घाटियों में फँस जाने पर ममदू ने आगे बढ़कर बताया कि इधर दाहिनी तरफ दर्रा है, इसी दर्रे में दो मील आगे कोल्हाई ग्लेशियर है। उधर उसके पास तक कोई नहीं जा सकता। इधर मोड़ पर मुड़ते ही बर्फ़ कि नदी दिखाई पड़ेगी। और बर्फ़ का छोटा-सा झील जिससे लिद्दर का दरिया निकलता है।
  3. पिछले दो-तीन सालों में रामचरितमानस कि चौथी सदी के संबंध में देश और विदेश में बहुत से जलसे किए गए। इस दौरान तुलसीदास और रामचरितमानस के बारे में कई अहम किताबें भी लिखी गईं। कुछ लोगों ने तुलसीदास को पुराणपंथी और दकियानूसी बताया तो कुछ और लोगो ने उन्हें प्रगतिवादी और समाजवादी साबित किया। मैं इस बहस में नहीं पड़ना चाहता। इतिहास का विद्यार्थी होने के नाते मेरी रूचि मध्य युग के कवियों, संतो और लेखकों में रही है। मैंने उनको भक्ति-आंदोलन को सही दिशा सूफ़ी फ़कीरों और संत कवियों ने दी। तुलसीदास का इस आन्दोलन में बड़ा योगदान रहा है। मैं आज तुलसीदास के बारे में न तो ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करना चाहता हूँ और न ही बात पर जोर देना चाहता हूँ कि उन्होंने राज का, समाज का और अनुशासन का कौन-सा रूप हमारे सामने रखा। मेरे सामने तुलसीदास कि तस्वीर उन्हीं के शब्दों में यह है -
    माँगिक खैबो मसीत को सोइबो
    लैबे को एक न दैबे को दोऊ।

    यह फ़कीर अपनी जात से ऊँचा उठकर समाज को कुछ देना चाहता है इसीलिए उसने एक तरफ़ तो पुरानी पंरपराओं के ढाँचे को साफ़ और मज़बूत बनाकर हमारे सामने रखा और दूसरी तरफ़ उसने भारतीय संस्कृति के उस मिले-जुले रूप को पेश किया जो उस युग कि माँग थी और जिसका सिलसिला हिंदुस्तान में सदियों से चला आ रहा था। दरअसल भारतीय संस्कृति गंगा कि धारा के समान है जिसमे बहुत-सी धाराएँ मिलकर एक हो जाती हैं। भारत तो एक ऐसा चमन है जिसमें बहुत-सी ज़बानें हैं, बहुत-से धर्म हैं, बहुत-सी जातियाँ हैं, जो तरह-तरह के फूलों और फलों के मानिंद हैं और सब मिलकर चमन कि खूबसूरती बढ़ाते हैं। तुलसीदास ने इसी चमन में माली का काम किया। इसलिए देशो और विदेशी सभी विद्वान तुलसीदास पर मोहित हैं। हमें यह देखना होगा कि तुलसीदास में वे कौन-सी विशेषताएँ है जिनकी वजह से उसकी शख्सियत हर रोज़ रौशन होकर समाने आ रही है। यह ठीक है कि रामचरितमानस का हज़ारों और लाखों आदमी आज पाठ करते हैं और अपनी-अपनी भवनाओं के मुताबिक उसके अर्थ भी निकालते हैं लेकिन तुलसीदास को अम्र बनाने वाली चीज़ सिर्फ़ यहीं नहीं है। इसका हमें ठोस आधार ढूढ़ना होगा। तुलसीदास युगपुरुष थे, बल्कि हम कह सकते हैं कि युग-युग के पुरुष थे। उन्हें प्रेरणा अपने युग से मिली, लेकिन वह उससे बँधे नहीं। सोलहवीं और सत्रहवीं सदी में भारत कि सियासत में कुछ ठहराव आ गया था लेकिन कुछ ऐसी चीज़ें भी समाज में दाखिल हो चुकी थीं जिनका भारत कि परंपराओं से टकराव था।
    भारतीय संस्कृति कि धारा भी कुछ अलग-लग दिशाओं में बह रही थी। जिंदगी के मूल्यों में भी उतार-चढ़ाव था। जिन्होंने भक्ति आंदोलन को गहराई से देखा होगा। वे इस बात को अच्छी तरह से समझ सकते हैं। तुलसीदास की निगाह ने इस बात को भाँप लिया और उन्होंने अपनी ज़िंदगी समाज और देश के लिए उत्सर्ग कर दी। भारतीय संस्कृति कि धारा वैदिक काल से ही अपनी दिशा बदलती रही है। परंपराएँ और जीवन के मूल्य भी अलग-अलग रूपों में हमारे सामने आते रहे हैं। भारत कि यह विशेषता रही है कि यहाँ संतो, कवियों और साहित्यकारों ने इस टकराव को दूर करने कि कोशिश की है। वाल्मीकि, व्यास, कालिदास, आचार्य शंकर गोरखनाथ, कबीर, दादू और जायसी वगैरह ने भारतीय संस्कृति को विशेष दिशा देने का काम किया था। तुलसीदास ने भी अपने जीवन का यही मकसद बनाया। उसके सामने सवाल था कि वक किस आधार पर अपने मिशन को पूरा करें। समाज के हालात को देखकर उन्होंने राम और रावण कि कहानी को लिया और उनके ज़रिए भारतीय भारतीय संस्कृति का सारा रूप ही हमारे सामने पेश कर दिया। राम इंसानियत के पैमाने में और रावण हैवानियत के। इस तरह उन्होंने जनसमाज तक अपना संदेश पहुँचाने की कोशिश की। खूबी यह रही कि परंपरा के पुराने ढाँचे को उन्होंने रद्द नहीं किया, चाहे वर्णों के हो या आश्रमों का, वेदों का मसला हो या पुराणों का, सभी को उन्होंने अहमियत दी और सबको साथ लेकर उन्होंने समाज के ऐसा ढाँचा जनता के सामने पेश किया जिसको सबने पसंद किया। राम और रावण कि लड़ाई क्या है, निर्गुण और सगुण कि चर्चा क्या है, शिव शक्ति और विष्णु कि भक्ति क्या है - इन सबका निचोड़ तुलसीदास ने पेश करने की कोशिश की।
    1. उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक लिखें।
      उत्तर-
       उपर्युक्त गद्यांश का शीर्षक - युग-युग के पुरुष - तुलसीदास।
    2. लोगों का तुलसीदास के बारे में क्या मत है?
      उत्तर-
       कुछ लोगों ने तुलसीदास को पुराणपंथी और दकियानूसी बताया तो कुछ और लोगों ने उन्हें प्रगतिवादी और समाजवादी साबित किया।
    3. हज़ारों और लाखों आदमी आज किसका पाठ करके अपनी-अपनी भावनाओं के मुताबिक़ अर्थ निकालते हैं?
      उत्तर-
       हज़ारों और लाखों आदमी आज रामचरितमानस का पाठ करते हैं और अपनी-अपनी भवनाओं के मुताबिक़ उसके अर्थ निकालते हैं।
    4. तुलसीदास के आलावा किन किन संतों और कवियों ने भारतीय संस्कृति को नई दिशा देने का काम किया था?
      उत्तर- तुलसीदास के अलावा वाल्मीकि, व्यास, कालिदास, आचार्य शंकर, गोरखनाथ, कबीर, दादू और जायसी वगैरह ने भारतीय संस्कृति को नई दिशा देने का काम किया था।
    5. तुलसीदास ने समाज का कैसा ढाँचा जनता के सामने पेश किया, जिसको सभी नमे पसंद किया?
      उत्तर-
       तुलसीदास जी ने परंपरा के पुराने ढाँचे को रद्द नहीं किया, चाहे वर्णों का हो या आश्रमों का, वेदों का मसला हो या पुराणों का, सभी को उन्होंने अहमियत दी और सबका साथ लेकर उन्होंने समाज का ऐसा ढाँचा जनता के सामने पेश किया जिसको सबने पसंद किया।
    6. तुलसीदास ने किसका निचोड़ पेश करने की कोशिश की?
      उत्तर-
       तुलसीदास जी ने राम और रावण की लड़ाई क्या है, निर्गुण और सगुण कि चर्चा क्या है, शिव शक्ति और विष्णु की भक्ति क्या है- इन सबका निचोड़ पेश करने की कोशिश की।
  4. अभी 26 जनवरी को ही हमने अपने सर्वप्रभुत्व-संपन्न लोकतंत्र राज्य के स्थापना-दिवस की वर्षगाँठ मनाई। उस दिन की, जिस दिन भारत ने स्वतंत्र होने की दृढ़ प्रतिज्ञा की और जिस दिन भारत ने अपने सर्वप्रभुत्व-संपन्न लोकतंत्र राज्य होने कि घोषणा की। और, फिर चार ही दिन बाद हमने अपने बापू की बरसी मनाई, उस बापू की जिसने हमें स्वतंत्रता की शपथ लिवाई, जिसने हमें स्वतंत्रता दिलाई \ आज हम हैं, हमारी स्वतंत्रता भी है, किंतु हमारे बापू नहीं हैं ............... 30 जनवरी कि मनहूस संध्या को मैं बनारस स्टेशन पर रेल से उतरा ही था कि वहीं बापू के निधन का समाचार मिला। वह समाचार था कि जंगल कि आग थी - दहकती, लहकती चारों ओर बढ़ी चली जा रही थी। जो लोग इक्कों, ताँगों और रिक्शों पर बैठ चुके थे, वे सभी इक्के, ताँगे और रिक्शे छोड़-छोड़ कर पैदल चलने लगे। सामान्य लोगों का निधन होता है तो उनके संबंधी ही रोते हैं। बापू का निधन हुआ तो उनके संबंधी-असंबंधी सभी रोए। देवदास गांधी से भी अधिक ऐसे लोग रोए, जिन्होंने कभी बापू को देखा तक नहीं था। और लोगों का निधन होता है तो उनके प्रशंसक ही रोते हैं, बापू का निधन हुआ तो उनके आलोचक ही नहीं निंदक भी रोए। और लोगों का निधन होता है तो उनके अपने धर्म वाले ही रोते हैं, बापू का निधन हुआ तो हिन्दू-मुसलमान सभी रोए, छाती पीट-पीट कर रोए। और लोगों का निधन होता है तो उनके देशवाले ही रोते हैं, बापू का निधन हुआ तो अंग्रेज़ भी रोए, जिनकी सरकार को बापू ने ‘शैतानी सरकार’ कहा था।
    ये सभी क्यों रोए? और इतना अधिक क्यों रोए? क्योंकि ‘बापू’ मानवता के धनी थे। हर दो हाथ, दो पैर वाले पशु को हम आदमी समझने की गलती करते हैं - ‘मानव’ मान लेते हैं। हर दो हाथ, दो पैर वाला पशु मानव नहीं होता। स्वामी रामतीर्थ ने आदमियों के चार प्रकार बताए हैं - 1. जड़-मानव, 2. वनस्पति-मानव, 3. पशु-मानव और 4. मानव-मानव। जो व्यक्ति केवल अपनी ही चिंता करता है, अपने से बाहर कुछ सोच ही नहीं सकता, वह ‘जड़-मानव’ है। जो अपने साथ अपने परिवार वालों, अपने नगरवालों की भी चिंता करता है, वह ‘वनस्पति-मानव’ है। जो अपने साथ अपने परिवार और नगर के लोगों तथा अपने देश के साथ-साथ ‘मानवमात्र’ कि ही नहीं ‘प्राणिमात्र’ की भी चिंता करता है, वही मानव-मानव है। मौलाना हाली का शेर है -
    फरिश्ते से बेहतर है इंसान बनना,
    मगर उसमें पड़ती है मेहनत ज़्यादा।

    जो लोग बापू कि राजनीति से सहमत नहीं रहे अथवा मेरी तरह जो राजनीति को विशेष समझते भी नहीं रहे, वैसे लोगों पर भी बापू कि ‘शालीनता’ बापू कि ‘मानवता’ जादू-सा असर करती थी। मेरी ही एक दिन कि आपबीती सुनिए -6 दिसंबर सन् 1945 कि शाम को मैं बापू की व्यस्तता का ख्याल कर उनकी कुटिया के भीतर पैर रखने में हिचकिचा रहा था। आवाज़ सुनाई दी- "आइए, आइए !" मैं भीतर चला गया।
    "अब आप यहाँ रहने के लिए आए हैं। एक महीना, दो महीने, चार महीने, जितना रह सकें।" "हाँ बापू, जितने दिन वर्धा में रहूँगा, यहीं रहने की कोशिश करूँगा।" दो-चार और बातें करने के अनंतर बापू बोले, "अच्छा तो भोजन की घंटी बज गई है। पहले जाकर भोजन कर लीजिए।" सेवाग्राम में भोजन के समय भोजन करने पर दूसरे दिन तक उसी प्रकार इंतज़ार करना पड़ता था, जैसे रेलगाड़ी छुट जाने पर फिर दूसरी गाड़ी का। "भोजन तो मैं नहीं करूँगा बापू, थोड़ा दूध पी लूँगा।" श्रीमन्नारायण जी को इशारा हो गया और मुझे उनके साथ वैसे ही जाना पड़ा जैसे किसी कैदी को सिपाही के साथ। यह थी प्रेम कि कैद। लौटा तो बापू को बुरी तरह व्यस्त पाया। एक के बाद दूसरी समस्या निबटाई जा रही थी। आपसी बात कहने का आग्रह रखने में अपना ही मन संकोच मानता था। तब डॉ. सुशीला नय्यर ने धीरे से सलाह दी, "बापू जी, अब जैसे भी हो मौन ले लें।" "नहीं, वह तो नहीं हो सकता।" "बापू ! स्ट्रेन बढ़ जाएगा।" "जिनको समय दिया जा चुका है, उनको समय देना तो धर्म है, वह कैसे तोड़ा जा सकता है?"
    1. उपर्युक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
      उत्तर-
       उपर्युक्त गद्यांश का शीर्षक - बापू की यादें।
    2. बापू के निधन का समाचार कब और कहाँ मिला?
      उत्तर- 
      30 जनवरी 1948 कि मनहूस संध्या को बनारस के रेलवे स्टेशन पर लेखक को बापू के निधन का समाचार मिला।
    3. बापू के निधन का उन लोगों पर क्या प्रभाव पड़ा जो इक्कों, ताँगों और रिक्शों में बैठ चुके थे?
      उत्तर-
       बापू के निधन का इक्कों, ताँगों और रिक्शों में बैठ चुके लोगों पर यह प्रभाव पड़ा कि वे सभी लोग इक्कों, ताँगों और रिक्शों से उतर कर पैदल चलने लगे।
    4. मानव-मानव किसे कहा गया है?
      उत्तर-
       जो मानव अपने साथ परिवार और नगर के लोगों तथा अपने देश के साथ-साथ ‘मानव -मात्र की ही नहीं ‘प्राणी मात्र’ की भी चिंता करता है, वहीं मानव-मानव है।
    5. 6 दिसंबर सन् 1945 कि शाम लेखक बापू की कुटिया के भीतर पैर रखने में क्यों हिचकिचा रहा था?
      उत्तर-
       6 दिसंबर सन् 1945 की शाम को लेखक बापू की व्यस्तता का ख्याल कर उनकी कुटिया के भीतर पैर रखने में हिचकिचा रहा था।
    6. सेवाग्राम में समय पर बोजन न करने का क्या परिणाम होता था?
      उत्तर-
       सेवाग्राम में भोजन के समय पर भोजन न करने का परिणाम यह था कि भोजन के लिए दूसरे दिन तक उसी प्रकार इंतज़ार करना पड़ता था, जैसे रेलगाड़ी छुट जाने पर फिर दूसरी गाड़ी का इंतज़ार करना पड़ता है।
  5. जाकिर साहब ने हिंदी सीखने के लिए अपने सामने गांधी जी का आदर्श रखा था। अपने एक भाषण में उन्होंने कहा था, "उन कामों में जो महात्मा ने अपनी दूरदृष्टि से हमारे देश के लिए, एक हिंदी प्रचार का काम नहीं था। हिंदी गांधी जी की मातृभाषा नहीं थी फिर भी उसे इसलिए फैलाना चाहा था कि उनके विचार में दो बातें साफ़ थीं। एक तो यह कि देश में जो एकता अंग्रेजी भाषा के द्वारा दिखाई देती हैं वह उस वक्त तक चल ही सकती है, जब तक कि थोड़े से लोग पढ़ना-लिखना सीखते हैं और उसके जरिए अपने को औरों से ऊँचा करके उनसे अलग-थलग एक विदेशी का जीवन बिताते हैं। जब देश आजाद होगा और हर बच्चा लिखना-पढ़ना सीखेगा तो वह लिखना-पढ़ना विदेशी भाषा में नहीं हो सकता। देश की भिन्न-भिन्न भाषाओँ में होगा और होना भी चाहिए। गांधी जी ने अलग-अलग भाषाएँ बोलने वालों को मिलाने के लिए हिंदी जबान को चुना और फिर इरादा किया कि इसे फैलाएँगे। वे हिंदी अच्छी नहीं बोलते थे, पर हिंदी ही बोली, और इसके माध्यम से लोगों के दिलों के अंदर बस गए।"
    13 मई, 1967 को राष्ट्रपति का पद सँभालते हुए उन्होंने कहा था, "सारा भारत मेरा घर है, मैं सच्ची लगन से इस घर को मजबूत और सुंदर बनाने की कोशिश करूँगा ताकि वह मेरे महान देशवासियों का उपयुक्त घर हो जिसमें इंसाफ और खुशहाली का अपना स्थान हो।"
    1. ज़ाकिर साहब ने हिंदी सीखने के लिए किसे अपना आदर्श बनाया?
      उत्तर-
       ज़ाकिर साहब ने हिंदी सीखने के लिए गांधी जी को अपना आदर्श बनाया क्योंकि वे गांधी जी के विचारों से अत्यधिक प्रभावित थे। अतः उनके अधूरे कार्यों को पूरा करना चाहते थे।
    2. विदेशी भाषा में देश की एकता कब तक चल सकती है? क्यों?
      उत्तर-
       विदेशी भाषा में देश कि एकता तब तक चल सकती है, जब तक कि थोड़े से लोग पढ़ना-लिखना सीखते हैं और उसके जरिए स्वयं को औरों से ऊँचा करके उनसे अलग-थलग एक विदेशी का जीवन बिताते हैं, क्योंकि देश का प्रत्येक बच्चा विदेशी भाषा में शिक्षा ग्रहण नहीं कर सकता।
    3. गांधी जी का हिंदी प्रेम किस प्रकार सिद्ध कर सकते हैं?
      उत्तर-
       गांधी जी का हिंदी प्रेम इस बात से स्वतः सिद्ध होता है कि वे गुजराती भाषी होते हुए हिंदी बोलते थे और उसी के प्रचार-प्रसार के लिए उन्होंने ताउम्र मेहनत की।
    4. ज़ाकिर साहब ने राष्ट्रपति बनने के बाद जो वक्तव्य दिया उससे क्या पता चलता है?
      उत्तर-
       ज़ाकिर साहब ने राष्ट्रपति बनने के बाद जो वक्तव्य दिया उससे पता चलता है कि ज़ाकिर साहब एक सच्चे देशभक्त थे और हमेशा भारत की भलाई के बारे में सोचते थे।
    5. ‘अविस्मरणीय’ तथा ‘विचार’ शब्द का एक-एक पर्यायवाची लिखिए।
      उत्तर-
       उल्लेखनीय तथा दृष्टिकोण।
    6. राष्ट्रपति के पद को स्वीकारते हुए ज़ाकिर हुसैन ने क्या संकल्प लिया था?
      उत्तर-
       राष्ट्रपति पद को स्वीकारते हुए ज़ाकिर हुसैन ने सारे भारत को अपना घर मानकर सच्ची लगन से इसे मज़बूत और सुंदर बनाकर उसमें इंसाफ और खुशहाली सुनिश्चित करने का संकल्प लिया।